Global Politics: माना जाता है कि अधिकारों का पहला चार्टर 1215 में इंग्लैंड के सम्राट द्वारा स्वीकृत ‘मैग्ना कार्टा’ है। यह भी माना जाता है कि दुनिया की पहली संसद आइसलैंड में 1262 में स्थापित ‘अलथिंग’ थी। ब्रिटेन में पहली द्विसदनीय विधायिका की तलाश 1341 में हुई थी। दुनिया का पहला लिखित संविधान 1600 में सैन मैरिनो गणराज्य द्वारा तैयार किया गया था। शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का श्रेय फ्रांसीसी दार्शनिक मांटेस्क्यू द्वारा 1748 में प्रकाशित ‘कानून की भावना’ को दिया जाता है। किसी देश की न्यायिक शक्ति पहली बार 24 सितंबर, 1789 को संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में निहित की गई थी।

खतरे में अच्छाई

सांविधानिक इतिहास के महान और बेहतरीन पाठ अमेरिकी संविधान में निहित हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं सहित अनेक देशों ने इनकी नकल की है। संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देशों ने एक नई विश्व-व्यवस्था बनाने का वादा किया था, जिसमें युद्ध, गरीबी और बीमारी को समाप्त करने का संकल्प था। इसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। हालांकि नई व्यवस्था स्थानीय युद्धों को समाप्त नहीं कर सकी, मगर इससे पहले, बीते आठ दशकों की तुलना में, दुनिया ने ऐसा अमन, अभूतपूर्व विकास और व्यापक समृद्धि कभी नहीं देखी थी। इसलिए, यह एक बड़ा झटका है कि पिछले तीन वर्षों के घटनाक्रम- और, खासकर, 20 जनवरी, 2025 के बाद के घटनाक्रम- दुनिया को एक स्वार्थी और सत्तावादी सांचे में ढालने की धौंस देते हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति का कार्यालय अपनी विशाल, निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट शक्तियों के कारण अद्वितीय है, इस तथ्य से यह जाहिर होता है कि अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर देश है। उन शक्तियों का प्रयोग करते हुए, विलियम मैककिनले ने संयुक्त राज्य अमेरिका के क्षेत्र का विस्तार किया और प्यूर्टो रिको, गुआम, फिलीपींस और हवाई पर कब्जा कर लिया। वुडरो विल्सन और फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति को दबा दिया और विदेशियों तथा विद्रोहियों को हिरासत में लेने या निर्वासित करने के लिए कार्यकारी आदेशों का इस्तेमाल किया। बराक ओबामा ने युद्ध शक्ति अधिनियम, 1973 के तहत अमेरिकी कांग्रेस की अनुमति के बिना, लीबिया में युद्ध शुरू कर दिया था। अन्य राष्ट्रपतियों ने अपने कार्यालय की सीमाओं को जांचा-परखा और स्पष्ट रूप से वे असंवैधानिक कृत्यों से बच निकले।

विश्व व्यवस्था पर प्रहार

संयुक्त राज्य अमेरिका के सैंतालीसवें राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रंप से ज्यादा, किसी राष्ट्रपति ने अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल नहीं किया। आठ दशकों तक, विचलन और दुस्साहस के बावजूद, अमेरिका को स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देशों का अगुआ और विश्व व्यवस्था का संरक्षक माना जाता था। शांति, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए कई वैश्विक संस्थान बनाए गए। हालांकि, ट्रंप साहब के सत्ता संभालने के बमुश्किल आठ हफ्तों के भीतर, अमेरिका ने डब्लूएचओ को त्याग दिया और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी), संयुक्त राष्ट्र राहत और कार्य एजंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) को वित्तीय मदद देने से इनकार करने या रोकने की धमकी दी है। ट्रंप साहब ने यूएसएड को बंद कर दिया और दुनिया भर में दर्जनों कार्यक्रमों को रोक दिया है। वे नाटो और यूरोपीय सहयोगियों को छोड़ सकते हैं।

घरेलू स्तर पर, दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति एलन मस्क के उकसावे पर, ट्रंप साहब ने अमेरिकी सरकार के ढांचे को खत्म करना शुरू कर दिया है। उन्होंने हजारों लोगों को नौकरी से निकाल दिया है और शिक्षा विभाग को बंद करने की आशंका है।
ट्रंप साहब के शासन में, दोस्त दुश्मन बन गए हैं (राष्ट्रपति जेलेंस्की) और दुश्मन दोस्त बन सकते हैं (राष्ट्रपति पुतिन)। ट्रंप कनाडा को अमेरिका का इक्यावनवां राज्य बनाना चाहते हैं और उन्होंने ग्रीनलैंड को अमेरिका में शामिल होने के लिए खुला आमंत्रण दिया है। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा है कि ‘हम इसे किसी न किसी तरह हासिल करेंगे’।

ट्रंप साहब ने दुश्मन (चीन) और दोस्त (भारत) के बीच कोई अंतर नहीं रखा है, और वे हर तरह के सौदे करने को तैयार हैं। ‘मैंने अपनी पूरी जिंदगी सौदेबाजी की है’, उन्होंने शेखी बघारते हुए कहा था और राष्ट्रपति जेलेंस्की को आमंत्रित करने, अपमानित करने और बाहर निकालने के बाद, उन्होंने उन्हें वापस आमंत्रित किया- ‘जब वे शायद महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो जाएं’। ट्रंप साहब ने इसे ‘बदला’ कहा।

दुनिया पर काले बादल

अमेरिका के एक सौदागर राष्ट्रपति और कबूलनामे वाले सौदेबाज के साथ दुनिया कहां जाएगी? और भारत के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं? दुनिया को संचालित करने के लिए, सत्तावादी शासक एक ‘क्लब’ बनाएंगे- ट्रंप, पुतिन और शी जिनपिंग। वे अपने मनचाहे इलाकों को हड़प लेंगे- अमेरिका की नजर पनामा नहर, कनाडा, ग्रीनलैंड और गाजा पर है; रूस, जो पहले ही क्रीमिया, अब्खाजिया और दक्षिण ओसेशिया पर कब्जा कर चुका है, और यूक्रेन तथा शायद जार्जिया पर कब्जा करना चाहता है; और चीन, तिब्बत और हांगकांग को जबरन अपने में मिलाने के बाद, ताइवान, भारत के महत्त्वपूर्ण हिस्सों और दक्षिण चीन सागर तथा उसके द्वीपों पर कब्जा करने की अपनी इच्छा दबाए नहीं रख सका है। तीनों देश, दुनिया को ‘प्रभाव के क्षेत्रों’ में विभाजित करने और संबंधित प्रमुख क्षेत्रों में संसाधनों का दोहन करने का प्रयास करेंगे। भारत, चीन के सामने कमजोर होगा और न तो अमेरिका उसकी मदद करेगा, और न ही रूस।

भारत को अमेरिका से अधिक सैन्य उपकरण खरीदने पर मजबूर होना पड़ेगा। उसे कम शुल्क पर अमेरिका से अधिक सामान आयात करने पर बाध्य होना पड़ेगा। अमेरिका और रूस के बीच तनाव कम होने का मतलब यह होगा कि रूसी तेल अब सस्ते दामों पर उपलब्ध नहीं होगा। भारत को ‘ब्रिक्स’ को कम महत्त्व देने के लिए ‘मनाया’ जा सकता है। ‘क्वाड’ को चीन के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं माना जाएगा। पाकिस्तान और बांग्लादेश अपने साझा संरक्षक, अमेरिका के तहत घनिष्ठ संबंध बनाएंगे। अगर ट्रंप साहब ‘टैरिफ युद्ध’ शुरू करते हैं, तो यह नियम-आधारित विश्व व्यापार को पलट देगा और भारत की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी। जर्मनी और फ्रांस ने महसूस किया है कि भारत को अपनी रक्षा खुद करनी होगी।

मोदी साहब सोचते हैं कि ट्रंप के साथ उनकी दोस्ती भारत को बचा लेगी। मगर ऐसा कोई मौका नहीं आने वाला है। ट्रंप स्वार्थी और अहंकारी हैं, और उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि उनकी वजह से दुनिया की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी। दुनिया के लोगो, चार साल तक और इंतजार करो।