आज के दौर को संकट और जोखिमों का दौर कहा जा सकता है जिनमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम देखे जा सकते हैं। प्राचीन समाज में किसी भी प्रकार की समस्या या जोखिम के लिए अशिक्षा को एक महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता था, पर आज के शिक्षित और तकनीकी रूप से विकसित समाज में इस प्रकार के जोखिमों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। एक ऐसा समाज, जिसमें तकनीकी ज्ञान और कौशल का उपयोग कर जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाता है।
शिक्षा का उद्देश्य उत्पीड़नकारी व्यवस्था और शोषण को समाप्त करना
शिक्षा का उद्देश्य उत्पीड़नकारी व्यवस्था और शोषण को समाप्त करना तथा समानता स्थापित करना होता है। शिक्षा महज ज्ञान का लेन-देन नहीं, बल्कि समाज को संतुलित विकास की ओर अग्रसर करती है। शिक्षाशास्त्री पाउलो फ्रेरे लिखते हैं कि शिक्षित होने का मतलब उत्पीड़न वाली व्यवस्था में अपनी जगह बना लेना नहीं, बल्कि मनुष्य बनना है और पूर्ण मनुष्य तभी बना जा सकता है जब अमानुषिक बनाने वाले यथार्थ को बदला जाए।
तकनीक का उपयोग समाज और मानव के विकास तथा प्रगति के लिए किया जाए, तब तक तो ठीक है, लेकिन उसका आवश्यकता से अधिक उपयोग या उस पर पूरी तरह निर्भरता ने अनेक तरह के जोखिमों को उत्पन्न कर दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सामाजिक संबंध यहां तक कि मनुष्य की सुरक्षा तक खतरे में है। निजता की अवधारणा अब अतीत की घटना हो गई है, क्योंकि आप हर जगह कैमरे की निगरानी में हैं, यानी आपकी जिंदगी का हर पक्ष खुली किताब के समान है जिसे कोई भी पढ़ सकता है, देख सकता है और तो और उसका दुरुपयोग कर सकता है। समाज विज्ञानी अलरिच बैक ऐसे समाज को जोखिम भरे समाज की संज्ञा देते हैं। कुछ खतरे प्राकृतिक होते हैं, जिनका सामना करना चुनौती हो सकता है, क्योंकि वे अनिश्चित होते हैं और उन पर पूर्णत: नियंत्रण करना भी लगभग संभव नहीं होता। मगर तकनीकी खतरे स्वयं मानव द्वारा उत्पन्न किए गए हैं, जिन्होंने मानव अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
सामाजिक असमानता, आर्थिक अस्थिरता, पर्यावरणीय संकट, मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां ऐसे खतरे हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। मसलन, छोटी उम्र में दिल का दौरा, आंखों का रोग, मोटापा, कैंसर, कंप्यूटर और रोबोट क्रांति के कारण रोजगार के क्षेत्र में अनिश्चितता, तनाव, निराशा, हिंसा, अकेलापन और पर्यावरण संबंधी जोखिम आदि ऐसे खतरे हैं जिनमें तकनीकी विकास ने वृद्धि कर दी है। फिर भी इन जोखिमों से लड़ने या इन्हें रोकने के सार्थक प्रयास दिखाई नहीं दे रहे। संभवत: इसलिए कि विज्ञान और तकनीकी विकास किसी भी देश की प्रगति का सूचक माना जाता है।
मगर आश्चर्य की बात है कि तकनीकी रूप से विकसित राष्ट्र खुद को गैर-तकनीकी राह पर चलने के लिए अग्रसर हो रहे हैं और हमारे जैसे विकासशील देश विकसित देशों की पंक्ति में शामिल होने और स्वयं को विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की होड़ में तकनीक केंद्रित समाज बनते जा रहे हैं। यहां स्वीडन के उदाहरण की चर्चा की जा सकती है। स्वीडन ने वर्ष 2009 में स्कूल-कालेजों में किताबों की जगह स्क्रीन लगाने के लिए बेहिसाब खर्च कर दिए, लेकिन अब वह पुन: किताबें वापस लाने के लिए बड़ी राशि खर्च कर रहा है। आखिर क्यों, यह गहन चिंतन का विषय है। संभवत: उसने शिक्षा के डिजिटलीकरण के खतरों को अनुभव कर लिया, तो क्या विकासशील देश उनके अनुभवों से सबक नहीं ले सकते।
शिक्षा बाजार और मुनाफे की व्यवस्था नहीं, कल्याण और विकास की प्रणाली है। इसलिए विभिन्न तरह के खतरों का सामना करने के लिए सरकारी संस्थानों को बेहतर करना होगा। केवल निजी क्षेत्र को समर्थन देने से विकास नहीं होगा। परंपरागत शिक्षा प्रणाली की खामियों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली द्वारा सुधारना एक अच्छा विकल्प हो सकता है, लेकिन उसे पूर्णत: उपेक्षित करना समस्या का समाधान नहीं है। कितनी भी विकसित तकनीक क्यों न हो, वह एक शिक्षक का स्थान नहीं ले सकती। यह बात अलग है कि कुछ लोग इस बात से असहमति रखते हैं, वे मानते हैं कि एआइ (कृत्रिम मेधा) के विकास के बाद ये संभावनाएं भी गलत साबित हो रही हैं।
बच्चों को जन्म देने का काम कृत्रिम कोख करेगी, रोबोट चिकित्सक, शिक्षक, नर्स, परिचारक और ड्राइवर की भूमिकाओं का निर्वाह करेंगे, लेकिन यहां एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि क्या दुनिया के अधिकांश देश, विशेष रूप से विकासशील देश, इस तकनीक के परिणाम भुगतने या उनका सामना करने के लिए तैयार हैं? जहां सरकारी विद्यालयों/महाविद्यालयों में कुर्सी-मेज, शिक्षक और बुनियादी संसाधन तक नहीं हैं, चिकित्सा केंद्रों में जीवनरक्षक सुविधाएं, पर्याप्त चिकित्सक और कर्मचारी नहीं है, महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा की गारंटी नहीं है, साइबर अपराध पर नियंत्रण नहीं है, वहां एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल समाज की कल्पना यथार्थ से कोसों दूर नजर आती है।
आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ संतुलन बिठाया जाना चाहिए, ताकि डिजिटल उपकरण केवल सहायक की भूमिका में रहें, जीवन पर हावी होकर हमारे अस्तित्व को चुनौती न दें। समाजविज्ञानी कहते हैं कि अगर हम सफल होना चाहते हैं, तो हमें विफलता की दर को दोगुना करना होगा। क्योंकि अगर हम तकनीक के जोखिम को खत्म नहीं कर सकते, तो हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, सिवाय इसके कि हम इस पर नियंत्रण करना सीखें लें। दरअसल, तकनीक या तकनीकी ज्ञान बुरा नहीं है, लेकिन उसका वह उपयोग नहीं हो रहा, जिससे समाज को फायदा अधिक हो।
इसके विपरीत नई दुनिया में बच्चे, किशोर और युवा सूचनाओं के ऐसे भंवर जाल में फंसते जा रहे हैं, जिससे निकलना उनके बस में नहीं रहा। छोटी उम्र में ही मोबाइल और लैपटाप की ऐसी लत पड़ने लगी है कि यह पीढ़ी इसके बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि मशीनी मानव की जगह सहृदय मानव, काल्पनिक दुनिया की जगह वास्तविक दुनिया और आभासी संबंधों की जगह वास्तविक संबंधों को दोबारा केंद्र में लाया जाए. ऐसा न हो कि आने वाले समय में मशीन मालिक और मानव गुलाम बन जाए, जिसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।