कोविड की दूसरी लहर ने मुंबई में दस्तक दी अप्रैल के पहले दिनों में, सो दोनों टीके लगवाने के बाद मैं उसी कोंकण के समुद्र किनारे के गांव में चली गई थी, जहां मैंने पिछले साल कई महीने बिताए थे। मुंबई वापस पिछले हफ्ते आई तो सोचा कि कुछ लोगों से मालूम किया जाए कि नरेंद्र्र मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है कि नहीं। सर्वेक्षणों के मुताबिक थोड़ी-बहुत कम हुई है प्रधानमंत्री की लोकप्रियता, लेकिन इतनी ज्यादा नहीं। लेकिन आम लोगों से इस महानगर में जब बातें कीं, तो मालूम हुआ कि लोग अब मोदी का नाम सुनते ही चिढ़ जाते हैं। एक दुकानदार के शब्दों में, ‘लोग टीकों के अभाव का सारा दोष प्रधानमंत्री पर डाल रहे हैं। अब हमको कहते हैं कि टीका लगवाना जरूरी है, लेकिन लगवाएंगे कैसे, जब इस शहर में हर दूसरे केंद्र पर पता लगता है कि अभी उनका कोटा आया नहीं है। जवाबदेही इस अभाव की किसकी है।’

इसके बाद मैंने एक टैक्सी ड्राइवर से बात की तो उसने कहा कि इस दूसरी लहर में वह अपने गांव नहीं जा सका, क्योंकि वहां भी कोविड पहुंच गया है, तो उसने मुंबई में ही रह कर थोड़ी-बहुत कमाई करने की कोशिश की है। लेकिन जहां कभी रोज पंद्रह सौ रुपए की कमाई हो जाती थी, अब आधी हो गई है। ‘पूछिए मत हम किस हालात में गुजारा कर रहे हैं। ऐसा हाल क्यों हुआ है देश का? सबसे बड़े राजनेताओं को इसका जवाब देना नहीं चाहिए क्या?’ जिनसे भी बातें की हैं मैंने मुंबई वापस लौटने के बाद, उनको नाखुश और मायूस पाया है।

क्या यही वजह है कि इन दिनों मोदी के भक्त और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मोदी न होते तो देश का इससे भी बुरा हाल होता? भारतीय जनता पार्टी की एक महिला प्रवक्ता तो इतने गुस्से में आई कि राजदीप सरदेसाई को ही चुप रहने को कहने लगी, जब इंडिया टुडे के इस जाने-माने एंकर ने उनसे यह कहने की कोशिश की कि माना कि पिछले हफ्तों में भारत ने टीकाकरण की रफ्तार इतनी बढ़ा दी है कि अमेरिका से ज्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं। राजदीप ने विनम्रता से जब याद दिलाया कि भारत की आबादी भी तो अमेरिका से कई गुना ज्यादा है, तो इस महिला ने ऊंची आवाज में एंकर साहब को डांटा, ‘मुझे अपनी बात रखने दो, मेरे बीच में मत बोलो।’ गुस्से में भूल गई थी कि टोकने का अधिकार एंकर का होता है।

प्रधानमंत्री की छवि को बेदाग रखने के प्रयास में इतनी जोश से लग गए हैं उनके भक्त और प्रवक्ता कि भूल गए हैं कि अगर आम लोगों को दिखता कि दूसरी लहर में जो जानलेवा अभाव दिखा अस्पतालों में ऑक्सीजन और दवाइयों का, उसके लिए किसी से जवाब मांगते प्रधानमंत्री, तो जख्मों पर कुछ तो मरहम लगती। इसी तरह जिनकी जिम्मेदारी थी बहुत पहले से टीके खरीदने की, उनसे जवाब मांगने का काम किया होता प्रधानमंत्री ने तो दोष सीधा उन पर नहीं लगता। पिछले हफ्ते ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपने ही बनाए नियम तोड़ कर अपनी प्रेमिका को अपने सरकारी दफ्तर में चूमा। सुरक्षा कैमरों पर यह तस्वीर दिखी और अखबारों में छप गई। इस स्वास्थ्य मंत्री का काम इतना अच्छा रहा है कि बोरिस जॉन्सन ने उनको बचाने की कोशिश की, लेकिन जनता का दबाव इतना था कि इस्तीफा देना ही पड़ा।

तो क्या दोष हमारा है कि हम जवाबदेही मांगने का दबाव नहीं डाल रहे हैं प्रधानमंत्री पर? शायद। लेकिन सच यह भी है कि जिन आला अधिकारियों की गलतियों से हम कोविड के तीसरे दौर के डर से सहमे बैठे हैं, वही आला अधिकारी रोज टीवी पर दिखते हैं हमको नसीहतें देते हुए। दो गज की दूरी रखनी जरूरी है। शादियों में मेहमान कम होने चाहिए। बड़े-बड़े जलसे नहीं होने चाहिए। बाहर जाने से पहले मास्क पहनना जरूरी है।

चलिए, ये सारी बातें हम मान भी लेते हैं अगर, फिर भी यथार्थ यह है कि इस साल के अंत तक टीकों का इतना अभाव रहने वाला है कि अगले साल ही हम सत्तर प्रतिशत भारतीयों को टीके दे सकेंगे। जिन देशों में आधे से ज्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं, वहां अब अर्थव्यवस्था छलांगें मार कर ऊपर की तरफ बढ़ने लगी है। न्यूयॉर्क जैसे शहर में अब लोग बाहर बिना मास्क के भी जाने लगे हैं और ब्रॉडवे के मशहूर थिएटर भी खुलने लगे हैं।

हम हैं कि सुनते हैं रोज अर्थशास्त्रियों से कि जितना नुकसान हमारी अर्थव्यवस्था को हुआ है उसको कम करने के लिए कई साल लग सकते हैं। कोविड अब छोटे-छोटे गांवों में पहुंच चुका है, जहां वैसे भी लोग अक्सर गरीब होते हैं और जहां आसपास कोविड के इलाज के लिए अस्पताल भी नहीं हैं। मेरे गांव के बगल वाले गांव को इन दिनों सील कर दिया गया है, क्योंकि वहां कोविड के मामले बहुत बढ़ गए हैं। अस्पताल यहां से बीस किलोमीटर दूर है, तो उन्हीं मरीजों को वहां ले जाया जाता है, जिनको सांस लेने में तकलीफ है। बाकी घर में ही जैसे-तैसे इलाज करवाने पर मजबूर हैं।

विशेषज्ञ कहते हैं कि कोविड अब जाएगा नहीं। हर साल हमको टीके लगवाने पड़ेंगे इससे बचने के लिए, जैसे ‘फ्लू’ के टीके लगवाते हैं। तो क्या हम इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री नेत्रृत्व दिखा कर कम से कम भाजपा शासित राज्यों में अपने मुख्यमंत्रियों को आदेश देंगे कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार युद्ध स्तर पर किया जाए? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में जवाबदेही अनिवार्य होगी? इसके बिना सुधार संभव ही नहीं हैं।