जबसे तालिबान की वापसी हुई है, मेरे मन में घूमने लगी हैं उनके पहले दौर की तस्वीरें। इनमें सबसे डरावनी हैं उन नीले बुर्के पहने महिलाओं की, जिनको फुटबॉल के स्टेडियम में बेरहमी से तड़पा-तड़पा कर मारा जाता था। उनके हाथ पीछे बंधे हुए होते थे, उनके तथाकथित गुनाह मालूम नहीं क्या थे, लेकिन अक्सर इतने गंभीर नहीं कि उनको सजा-ए-मौत मिले। जिनको कोड़े लगते थे या पथरों से मारा जाता था, उनको देर लगती थी बेहोश होने में। जिनकी मौत बंदूक की गोली से होती थी, वे अचानक कपड़े की गुड़िया की तरह पलट जाती थीं। याद है मुझे कि किस तरह महिलाओं का घर से अकेले निकलना गंभीर गुनाह माना जाता था। गंभीर गुनाह और भी थे। चेहरा दिखाना गुनाह था। मोजे दिखाना गुनाह था।
किताबें पढ़ना गुनाह था।
तालिबान के उस पहले दौर की यादें और भी हैं। कंधार में किस तरह भारत को घुटने टेकने पड़े थे आइसी 814 के यात्रियों को रिहा कराने के लिए। तालिबान की मदद लेकर पाकिस्तान ने काठमांडो से इस जहाज को अपहृत करवाया था भारत की जेलों से अपने आतंकवादी छुड़वाने के लिए। इनमें उमर शेख भी था, जिसने दो साल बाद अमेरिकी पत्रकार डैनियल पर्ल की हत्या करवाई थी उसका सिर काट कर। रिहा हमने मौलाना मसूद अजहर को भी किया था, जिसने हमारी संसद पर जिहादी हमला करवाया था। आज भी उसकी जिहादी संस्था जैश-ए-मोहम्मद कश्मीर में पुलवामा जैसे आतंकवादी हमले करवाती है।
कैसे भुला सकती हूं मैं कि जब बामियान की प्राचीन, आलीशान बुद्ध की प्रतिमाओं को तालिबान सरकार ने उड़ा दिया था बारूद से, तो दिल्ली में जो पाकिस्तान के राजदूत थे उन्होंने मुस्करा कर इस बर्बरता के बारे में कहा था मुझसे, ‘देखिए, बात ये है कि तालिबान सरकार परेशान थी कि उसको मान्यता दुनिया के कई देश दे नहीं रहे थे, इसलिए उन्होंने ऐसी हरकत की, याद दिलाने के लिए कि वे अभी मौजूद हैं सत्ता में।’
जबसे पंद्रह अगस्त की शाम को तालिबान ने काबुल को फतह किया है, तबसे चर्चा शुरू हुई है इस बात को लेकर कि क्या अब तालिबान की सोच बदल गई है और वे आतंकवादी न रह कर उदारवादी बन गए हैं। इसको साबित करने के लिए उनके प्रवक्ताओं ने पिछले हफ्ते दुनिया के पत्रकारों को संबोधित किया। मीठी-मीठी बातें की इन प्रवक्ताओं ने। महिलाओं को दुबारा उनके घरों में कैद नहीं किया जाएगा, लेकिन उनको वही हक मिलेंगे, जो शरीअत में उनको दिए गए हैं। यानी कुछ भी बदला नहीं है। इन झूठी बातों के पीछे ये वही लोग हैं, जिनका नजरिया उन मुसलमानों से मिलता है, जिन्होंने इराक में इस्लामी खिलाफत बनाया था। इस्लामी खिलाफत अब अफगानिस्तान में कायम होने वाली है और इस इस्लामी रियासत की नजर में सबसे बड़ा दुश्मन होगा भारत। हम बुतपरस्तों को तालिबान काफिर समझते हैं और काफिरों की हत्या की इजाजत दी गई है कुरान में।
इसलिए हैरान हूं मैं कि भारत सरकार अभी तक सोच रही है कि तालिबानी सरकार के साथ रिश्ता बन सकता है कि नहीं। हमारे विदेश मंत्री ने दलील दी है कि हमने पिछले बीस सालों में अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है अस्पतालों, स्कूलों और विकास की अलग-अलग योजनाओं में, सो इस निवेश को हम सुरक्षित रखना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करना ठीक है क्या, जब इस निवेश को सुरक्षित रखने के लिए हमको दोस्ती का हाथ बढ़ाना होगा ऐसे लोगों से, जो हमसे नफरत करते हैं और जिनकी सोच हमारे बुनियादी उसूलों की बिलकुल उलट है? क्या हम उनके साथ रिश्ता जोड़ सकेंगे, जिनके सबसे बड़े समर्थक हैं चीन और पाकिस्तान? क्या हम दोस्ती कर सकते हैं ऐसे लोगों से, जो बंदूक की नोक पर अपनी हिंसक, बर्बर सोच थोपते हैं?
विनम्रता से कहना चाहूंगी कि भारत सरकार ने ऐसा अगर किया तो देश के हित को ताक पर रख कर करेंगे। तालिबान से दोस्ती करना हमारे हित में इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने स्पष्ट किया था अपने पहले दौर में कि भारत को वे दुश्मन मानते हैं और भारत के लोगों को काफिर। अफगानिस्तान अगर जिहादी आतंकवादियों का दुबारा अड््डा बनने वाला है, तो उसके निशाने पर रहेगा कश्मीर। पाकिस्तान ने पहले से कोई कसर नहीं छोड़ी है कश्मीर घाटी में अशांति फैलाने में, तो अब जब उनको साथ मिलेगा तालिबान का और चीन का भी, क्या होगा घाटी में ईश्वर ही जानता है।
इतने में हमारा रिश्ता उन अफगानियों के साथ मजबूत किया जाना चाहिए, जो तालिबान की तशद्दुत से भाग कर हमारे देश में शरण लेना चाहते हैं। अच्छा किया है भारत सरकार ने कि उनके लिए आपातकालीन वीजा का प्रबंध किया गया। वरना नागरिकता कानून में संशोधन जो मोदी सरकार लाई थी 2019 में, उसमें पहली बार शरण और नागरिकता की नीति बनी थी मजहब के आधार पर। हमारे गृहमंत्री ने जो भाषण दिया था संसद में इस नए कानून को लाते समय, उसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि सिर्फ मुसलिम शरणार्थियों के लिए भारत के दरवाजे बंद रहेंगे।
अब उनके प्रवक्ता कहते फिर रहे हैं कि ये सिर्फ उन लोगों के लिए था जो 2014 से पहले आए थे भारत। लेकिन याद कीजिए कि सीएए का संदेश मुसलमानों को यही गया था कि इसके बाद आने वाला है एनआरसी, जिसके तहत उनको साबित करना होगा कि वे वास्तव में भारत के नागरिक हैं कि नहीं। संदेश इतना डरावना था कि सड़कों पर निकल आए थे मुसलमान विरोध जताने। बहुत बुरा माहौल बना था उन दिनों और बहुत बदनाम हुई थी मोदी सरकार, इसलिए कि इस संशोधन की जरूरत ही नहीं थी। हिंदुओं और सिखों के लिए वैसे भी भारत के दरवाजे हमेशा खुले रहे हैं।