तीन छात्रों को पिछले सप्ताह जमानत देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने हमारे शासकों को विरोध और आतंकवाद का अंतर समझाया। ये तीन छात्र एक साल से तिहाड़ जेल में कैद थे, इसलिए कि इन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया था। दिल्ली पुलिस को कड़े शब्दों में फटकार लगाते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि उनको मतभेद और विरोध को कुचलने का इतना शौक था कि भूल गए कि विरोध करने का अधिकार भारत का संविधान देता है, इस देश के हर नागरिक को। सो, विरोध और आतंकवाद के बीच अगर अंतर को मिटा दिया जाता है तो लोकतंत्र के लिए बहुत ही उदास दिन होगा।
इत्तेफाक से पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ने जी-7 सम्मेलन में शिरकत की और उस घोषणापत्र पर दस्तखत किया, जिसमें दुनिया के सबसे अमीर लोकतांत्रिक देशों ने लोकतंत्र के उसूलों को कायम रखने के वादे किए थे। प्रधानमंत्री ने अपने वर्चुअल भाषण में यहां तक कहा कि भारत का साथ देना स्वाभाविक है, इसलिए कि लोकतंत्र हमारे संविधान की नीव है। उम्मीद है कि इस घोषणपत्र को स्वीकार करने से पहले मोदी ने उसको ध्यान से पढ़ा होगा और खासकर उन शब्दों पर ध्यान दिया होगा, जिनमें ‘लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और मानव अधिकारों’ को कायम रखने का वादा है। भारत के अलावा आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका को भी इस सम्मेलन में शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया गया था, सिर्फ इसलिए कि ये चारों देश लोकतांत्रिक हैं और जी-7 लोकतांत्रिक देशों का विश्व में सबसे ताकतवर संगठन है।
भारत की दुनिया में इज्जत अगर है तो इसलिए कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद हमने लोकतंत्र को जिंदा रखा है अलावा उन दो वर्षों के जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी। उन सालों में मोदी के कई आरएसएस साथी जेल में थे और अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे जनसंघ के बड़े राजनेता भी सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसलिए समझ में नहीं आता कि मोदी के दौर में अघोषित इमरजेंसी का आरोप क्यों लगता है बार-बार उनकी सरकार पर। समझ में नहीं आता कि क्यों छात्रों को कई-कई महीने जेल में रखा जाता है, जब छात्रों की फितरत में विरोध है। जो नौजवान विरोध नहीं करते, न्याय के लिए नहीं लड़ते, वे जिंदादिल ही नहीं हैं।
छात्रों के अलावा मोदी के दौर में पत्रकारों को भी दो हिस्सों में बांट कर रखा गया है। एक श्रेणी उनकी है, जो मोदी कि प्रशंसा करते नहीं थकते और चुप्पी साध लेते हैं जब उनकी सरकार की गलतियों के कारण लोग अस्पतालों में ऑक्सीजन के अभाव की वजह से मरते हैं, जब गंगा किनारे लाशों के ढेर लग जाते हैं और जब गलत नीतियों के कारण टीकों का गंभीर अभाव सामने आता है। इस पहली श्रेणी वाले पत्रकारों से प्रधानमंत्री भेंट भी करते हैं और इनको इंटरव्यू भी देते हैं।
दूसरी श्रेणी में वे पत्रकार हैं, जो ईमानदारी से मोदी सरकार की गलत नीतियों और खामियों पर रोशनी डालते हैं। इस श्रेणी में आते हैं आज सिर्फ कुछ मुट्ठी भर पत्रकार और तमाम विदेशी पत्रकार, जिनको मोदी सरकार से डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ज्यादा से ज्यादा यही होता है कि उनको भारत से निकाल दिया जाता है। लेकिन भारतीय पत्रकार, जो विरोध करने की हिम्मत रखते हैं, उनको हर तरह से सताया जाता है। आयकर विभाग के जासूस आ धमकते हैं छापे मारने, सोशल मीडिया पर मोदी के भक्त उनको गालियां देते हैं, छोटे शहरों में तो उनको जेल में डाला जाता है और उनकी हत्या तक कर दी जाती है, अगर विरोध करना बंद नहीं करते हैं। जिन बहादुर पत्रकारों ने गंगा किनारे लाशों के ढेरों का पर्दाफाश किया और श्मशानों में जाकर साबित किया कि कोविड की मौतों के आंकड़े कई गुना ज्यादा हैं, उन पर ‘गिद्ध पत्रकारिता’ करने का इल्जाम लगा।
ऐसा करके मोदी ने भारत की सबसे बड़ी ताकत को कमजोर किया है, जो है लोकतंत्र। हमारा सबसे बड़ा दुश्मन देश, चीन, हमसे कई गुना धनवान है, कई गुना शक्तिशाली है, लेकिन चीन की इज्जत भारत से कम है दुनिया की नजरों में तो सिर्फ इसलिए कि हम लोकतांत्रिक हैं और चीन की शासन प्रणाली की नीव कायम है तानाशाही पर। ऐसा कहना गलत होगा कि मोदी से पहले जो प्रधानमंत्री थे, उन्होंने कोशिश नहीं की थी लोकतंत्र को कमजोर करने की, विरोध और मतभेद को कुचल कर, लेकिन ऐसा जरूर है कि पिछले सात सालों में राजद्रोह के सत्तानबे फीसद मामले सामने आए हैं 1947 के बाद। आर्टिकल 14 नाम की एक वेबसाइट के मुताबिक 149 मामले उन पर लगे हैं, जिन्होंने मोदी की आलोचना की और 144 उन पर जिन्होंने योगी आदित्यनाथ की आलोचना की है। किसी राजनेता की आलोचना अगर राजद्रोह माना जाएगा, तो सवाल जरूर उठेंगे कि भारत में लोकतंत्र सुरक्षित है कि नहीं।
ऐसे सवाल बहुत बार उठाए हैं विदेशी पत्रकारों ने और कुछ मुट्ठी भर भारतीय पत्रकारों ने और इन सवालों का उठना वाजिब है। लेकिन जवाब देने के बदले मोदी के प्रवक्ता उनकी देशभक्ति पर सवाल करने लगते हैं, जिन्होंने सवाल उठाए हैं। इसका परिणाम यही हुआ है कि भारत बदनाम हुआ है दुनिया की नजरों में और हमारी सबसे बड़ी शक्ति कमजोर हुई है। जिन देशों में राजनेताओं की आलोचना करने का अधिकार और उनसे सवाल पूछने की आजादी नहीं होती, उनको लोकतांत्रिक नहीं माना जाता है। मोदी को तय करना होगा कि जो ‘अर्ध-स्वतंत्र’ होने का दाग लगा है पिछले सात सालों में भारत पर, उसको कैसे हटाया जा सकता है। यह ऐसा काम है, जो सिर्फ मोदी कर सकते हैं।