जब प्रधानमंत्री का कद अपने मंत्रिमंडल से कुछ ज्यादा ऊंचा होता है, तो मंत्रियों का आना-जाना बेमतलब हो जाता है। लेकिन यह भी कहना चाहती हूं कि इस बार अच्छा लगा कि स्वास्थ्य मंत्री को जाना पड़ा। मैं डॉक्टर हर्षवर्धन को जानती नहीं हूं। जो उनको जानते हैं उनसे सुना है कि बड़े अच्छे इंसान हैं। होंगे। लेकिन अपने जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा में उन्होंने जो नाकामी और नाकाबिलियत दिखाई है, उसको माफ करना मुश्किल है। जब कोविड की दूसरी लहर ने देश को बेहाल कर दिया था, उन्होंने नेतृत्व दिखाने के बजाय सारा दोष राज्य सरकारों पर डालने की कोशिश की। जब आम लोगों को आश्वासन देना चाहिए था कि टीका लगवाने से ही हम कोविड को हरा सकते हैं, डॉक्टर साहब दिखे बाबा रामदेव के साथ, जिन्होंने मखौल उड़ाया विज्ञान और ऐलोपैथी चिकित्सा का ‘स्टूपिड’ कह कर।

कोविड के इस भयानक दौर से गुजरने के बाद मेरा मानना है कि सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका स्वास्थ्य मंत्री की है, सो थोड़ी मायूस हुई यह देख कर कि इस पद पर प्रधानमंत्री ने ऐसे व्यक्ति को चुना है, जो तकरीबन अनजान है। मनसुख मांडविया को जिम्मेदारी साथ में दी गई है रसायन और उर्वरक मंत्रालय की। इन दोनों मंत्रालयों का आपस में वास्ता क्या है, समझना मुश्किल है, लेकिन उससे भी मुश्किल है समझना कि प्रधानमंत्री क्यों नहीं अभी तक देख सके हैं कि लाखों लोग सिर्फ इसलिए मरे हैं कोविड के दूसरे दौर में कि हमारी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं उन राज्यों में भी, जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन है।

दिल्ली में जिस दिन अफवाहें थीं मंत्रिमंडल में फेरबदल की, मैं उत्तर प्रदेश की तरफ निकल गई। बहुत दिनों बाद मौका मिला था असली पत्रकारिता करने का और मुझे वैसे भी भरोसा था कि मोदी के राज में मंत्रियों की अहमियत कम है। मेरा इरादा था रात तक दिल्ली वापस लौटने का, सो मैंने ऐसे गांव चुने उत्तर प्रदेश के, जो दिल्ली के आसपास हैं और जिनको मैं योगी के मुख्यमंत्री बनने से पहले से जानती हूं। पिछली बार इस तरफ गई थी मैं जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे और आगरा का एक्सप्रेसवे बन रहा था। एक्सप्रेसवे अब ऐसे बिछ गया है यहां के गांवों के ऊपर कि उन पुरानी, कच्ची सड़कों पर उतरना पड़ता है ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रो और अस्पतालों की तलाश में। जब ऐसा किया मैंने तो पाया कि स्वास्थ्य केंद्र बिलकुल वैसे हैं जैसे पहले हुआ करते थे, फर्क इतना है कि इनमें अब कोविड कक्ष बन गए हैं।

कोविड कक्ष के बाहर मैंने दनकौर गांव में कुछ लोगों से बात की। मास्क पहने हुए थे ये नौजवान और उन्होंने बताया मुझे कि अप्रैल और मई के महीनों में कोविड बुरी तरह फैल गया था गांव में। ‘हर घर में बीमार पड़े हुए थे लोग, लेकिन घर में ही हमने इलाज किया, क्योंकि जो अस्पताल जाते थे, वे वापस नहीं आते थे। अस्पतालों का बुरा हाल था, सो जो ठीक हुए वे घर में ही ठीक हुए।’ मैंने जब पूछा कि कोविड की जांच कराई थी बीमार लोगों ने, तो मालूम हुआ कि इसकी जरूरत नहीं समझी गई।

इसके बाद मैं पारसौल गांव गई। वहां भी मालूम यही पड़ा कि कई लोगों को कोविड हुआ था, लेकिन अस्पताल तो दूर की बात, लोग स्वास्थ्य केंद्र तक जाने को भी नहीं तैयार थे, क्योंकि वहां कोई सुविधा नहीं है इलाज करवाने की। एक दुकानदार ने कहा, ‘पंखा तक नहीं है, अगर हमको वहां जाना पड़ेगा टीका लगवाने के लिए तो गर्मी से मर जाएंगे। मुझे खुद कोविड हुआ था, लेकिन मैंने घर में ही अपना इलाज किया।’

समस्या यह है कि इस महामारी को हराना है अगर, तो बहुत जरूरी है असली आंकड़ों को जानना। योगी आदित्यनाथ वैसे भी इनको छिपाने की कोशिश में लगे हुए हैं, कई बार कह चुके हैं कि गंगाजी के किनारे जो लाशें रेत में दफनाई गई हैं, उनसे बिलकुल साबित नहीं होता कि कोविड से अनगिनत लोग मर गए हैं उनके प्रदेश में। कहते हैं कि पुरानी परंपरा है कई हिंदुओं में दफनाने की। जब पत्रकारों ने श्मशानों में जाकर लाशों की गिनती की थी कोविड की ‘पीक’ के समय, तो उन पर गिद्ध पत्रकारिता करने का इल्जाम लगा था। यानी योगी का कवच है इनकार।

सो, मेरी राय में जितनी अहमियत केंद्र सरकार में एक काबिल और शक्तिशाली स्वास्थ्य मंत्री की आज है, पहले कभी नहीं थी। इस मंत्री की जिम्मेवारी होगी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार लाने के लिए एक ठोस नीति बनाने की। माना कि जमीन पर काम करने की जिम्मेवारी राज्य सरकार की होगी, लेकिन नए सिरे से एक नीति बनाने का काम केंद्र सरकार का है, बिलकुल वैसे जैसे टीकों कि खरीदारी सिर्फ केंद्र सरकार कर सकती है। स्वास्थ्य सेवाएं अपने देश में दशकों से बेहाल हैं, लेकिन अब अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि भारत में अब सबसे ज्यादा जरूरत है स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में सुधारों की। आर्थिक सुधार बेमतलब साबित होंगे अगर इन दोनों क्षेत्रों में सुधार नहीं लाए जाते हैं युद्धस्तर पर।

पिछले सप्ताह हमको नया स्वास्थय मंत्री मिला है और नया शिक्षामंत्री भी, लेकिन क्या जानते हैं ये दोनों कि आज देश में सबसे महत्त्वपूर्ण काम उनको करना है? उम्मीद है कि इस बात को प्रधानमंत्री समझ गए होंगे और अपने इन नए मंत्रियों का मार्गदर्शन खुद करेंगे। शिक्षा का बुरा हाल इस महामारी ने किया है ग्रामीण क्षेत्रों में। लाखों बच्चे अब पढ़ ही नहीं पाते हैं, क्योंकि बहुत कम ऐसे हैं जिनके पास स्मार्टफ़ोन हैं। स्कूल सारे बंद पड़े हैं पिछले अठारह महीनों से, सो महनगरों में भी गरीबों के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। अस्वस्थ, अशिक्षित बच्चे कैसे बनाएंगे मोदी के सपनों का नया भारत?