कोरोना का नया दौर चरम सीमा पर है, सो पहला टीका लगवाने के बाद भी दक्षिण और पूर्व के राज्यों में चुनाव अभियानों को दूर से देखने पर मजबूर हूं। ऐसा करना आजकल मुश्किल नहीं है, क्योंकि सूचना क्रांति ऐसी आई है कि टीवी पर अगर किसी बड़े नेता का भाषण नहीं देख पाती हूं तो उसको बाद में यूटूब पर देख सकती हूं या सोशल मीडिया पर, जहां कई भाषण ‘लाइव’ देखने को मिलते हैं अब। मुझे इन चुनावों में सबसे ज्यादा दिलचस्पी है पश्चिम बंगाल में, इसलिए कि बाकी राज्यों में नतीजे तकरीबन तय हैं। दूसरी बात यह है कि असम के अलावा किसी अन्य राज्य में मोदी का जादू परखा नहीं जा सकता है। प्रधानमंत्री शायद इस बात को ध्यान में रख कर अपना ज्यादा समय बिता रहे हैं असम और बंगाल में।
पिछले सप्ताह बंगाल में उन्होंने जोश में आकर ऐसे भाषण दिए जैसे कि सवाल हार-जीत का नहीं, राष्ट्र के भविष्य का हो। बंगाल की मुख्यमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने गरजते हुए कहा कि गुरुदेव की धरती से कैसे कोई किसी को ‘बाहरी’ कह सकता है, बिना शर्मिंदा हुए? क्या गुरुदेव ने राष्ट्रगान में नहीं लिखा है- ‘पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग/ विंध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तिरंग’। तो बंगाल में कोई भारतीय ‘बाहरी’ नहीं कहला सकता है। प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री बंगाल पहुंचे थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी। योगी आदित्यनाथ ने अपने खास अंदाज में मजहब को राजनीति में घोल कर कहा कि ‘राम-द्रोहियों’ का अब भारत में कोई काम नहीं है। रही बात गृहमंत्री की, तो उनकी जिस बात ने मुझे सोनिया गांधी की याद दिलाई, वह थी उनका बार-बार कहना कि मोदीजी ने आपके लिए इतने हजार करोड़ भेजे हैं, लेकिन आप तक वह पैसा पहुंचा नहीं है। सोनियाजी जब भारत की अघोषित लेकिन असली प्रधानमंत्री थीं, एक पूरे दशक के लिए, तो उन्होंने कई बार ऐसी बातें कही थीं। राजनेता जब सत्ता में होते हैं, तो अक्सर भूल जाते हैं कि पैसा उनका नहीं, जनता का है।
खैर, बात यह कहना चाहती हूं मैं कि पिछले दो हफ्तों से चुनावी भाषण सुनने के बाद मुझे दो सवाल बहुत सताने लगे हैं। सवाल है कि भारतीय जनता पार्टी क्यों हर निकाय और राज्य चुनाव में अपने महारथियों को उतारती है चुनावी मैदान में? मध्यप्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में, जहां उसकी सरकारें नहीं हैं, वहां क्यों सरकारों को अस्थिर करने का प्रयास लगातार चलता रहता है? दो बार नरेंद्र मोदी ने आम चुनावों में पूर्ण बहुमत हासिल करके दिल्ली में सरकार बनाई है, तो इससे ज्यादा क्या चाहिए उन्हें? अगर कुछ राज्य चुनावों में हार भी जाते हैं तो क्या?
इन सवालों पर बहुत ध्यान देने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि शायद समस्या उनकी यह है कि लोकतंत्र के मायने उनके लिए सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित हैं। चुनावों के बीच जो चीजें हैं, जिनसे कोई देश अपने आप को लोकतांत्रिक कह सकता है, वे चीजें न वे समझ पाए हैं पूरी तरह और न ही उनके सबसे करीबी साथी अमित शाह। लोकतंत्र जिंदा रहता है कई और चीजों पर। लोकतांत्रिक उन देशों को माना जाता है जो मतभेद रखने वालों को जेलों में नहीं डालते हैं। जो छात्रों को आजादी देते हैं विश्वविद्यालयों में क्रांतिकारी भाषा बोलने की। जो न्यायालयों और मीडिया की आजादी कायम रखने का फर्ज निभाते हैं।
मोदी के राज में लोकतंत्र के इस तरह के कई खंभे कमजोर हुए हैं। इनके कमजोर होने के अलावा दिल्ली के आला राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मोदी अपने मंत्रियों पर भी लगाम कस कर रखते हैं। इस तरह की चीजें जब होने लगती हैं किसी लोकतांत्रिक देश में, तो अन्य लोकतांत्रिक देशों में इस पर ध्यान दिया जाता है। भारत आर्थिक तौर पर चीन के पीछे है बहुत ज्यादा, लेकिन अब भी हमारा सिर उस देश से ऊंचा है दुनिया की नजरों में अगर तो सिर्फ इसलिए कि हमने अपने देश में लोकतंत्र को जीवित रखा है तमाम चुनौतियों के बावजूद। इस बात पर हमको गर्व होना चाहिए और हमारे राजनेताओं को भी।
अब पहली बार अगर भारत के बारे में लोकतंत्र की पहरेदारी करने वाली संस्थाएं कहने लगी हैं कि अब ऐसा नहीं कहा जा सकता कि भारत में पूरी तरह स्वतंत्रता है, तो हमारे राजनेताओं को इस बात की चिंता होनी चाहिए। उल्टा हुआ है पिछले दिनों। हमारे विदेश मंत्री ने इंडिया टुडे के दक्षिण में हुए सम्मेलन में हाल में कहा कि भारत को किसी विदेशी संस्था से लोकतांत्रिक प्रमाणपत्र हासिल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। विनम्रता से अर्ज करना चाहती हूं मंत्रीजी कि आप गलत हैं। हर लोकतांत्रिक देश को इस तरह के प्रमाणपत्र हासिल करने में गर्व होना चाहिए, क्योंकि जरूरी है कि हम दुनिया की नजरों में लोकतांत्रिक दिखें।
अति-विनम्रता से यह भी अर्ज करना चाहती हूं प्रधानमंत्रीजी, कि आप जितना ध्यान देते हैं चुनावों को जीतने पर उतना ध्यान देना शुरू करें लोकतांत्रिक संस्थाओं को जिंदा रखने पर। इन संस्थाओं के बिना लोकतंत्र धीरे-धीरे मरने लगता है। ऐसा कहने के बाद यह भी कहना चाहती हूं कि जुल्फिकार अली भुट्टो, जो भारत से नफरत करते थे, ने भी स्वीकार किया था अपने आखिरी दिनों में कि भारत और पाकिस्तान में फर्क सबसे बड़ा यही है कि भारत की हवाओं में स्वतंत्रता है, इसलिए कि यहां है शोर-शराबा लोकतंत्र का। जबसे मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ है, ऐसा लगने लगा है कि उनके साथी और उनके चाहने वाले भूल से गए हैं कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव जीतना नहीं है। चुनावों के बीच उस ‘शोर-शराबे’ को जिंदा रखना है।