पिछले सप्ताह मैंने हिजाब के विवाद पर अपनी राय स्पष्ट की। इस विषय को दुबारा छेड़ने का मेरा इरादा नहीं था, लेकिन मुझे इतनी गालियां पड़ी हैं मेरे विचारों को लेकर कि दुबारा इस विषय पर लिखना पड़ रहा है। इस बार शुरू में ही कहना ठीक समझती हूं कि एक औरत होने के नाते मैं जब हिजाब या नकाब पहने मुसलिम महिलाओं को देखती हूं तो मेरी समझ में नहीं आता कि वे इस दकियानूसी लिबास के खिलाफ क्यों नहीं लड़ाई छेड़ती हैं। अजीब बात यह है कि ऐसा बहुत पहले से हुआ है उन देशों में जो अपने आप को इस्लामी कहलाते हैं और जहां बेनकाब औरतों को पीटा या उनको किसी और तरह दंडित किया जाता है। अपने देश में उल्टा होता दिख रहा है।

हमारा हाल यह है कि जो मुसलिम महिलाएं कभी नकाब या हिजाब नहीं पहनती थीं, अब हिजाब पहनने का हक मांग रही हैं और इसको लिबास का हिस्सा न मान कर अपने मजहब की पहचान मानने लग गई हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? कौन हैं वे ताकतें जो इनको ऐसे रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर रही हैं, जिस पर उमर भर उनको एक तरह से आधी जिंदगी जीनी पड़ेगी?

यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं मैं, क्योंकि मेरी कई सहेलियां मुसलिम हैं और अपने मजहब, अपने रसूल को बहुत मानती हैं, लेकिन उनको कभी ऐसा नहीं लगा है कि हिजाब उनकी आस्था से जुड़ी हुई चीज है। उल्टा वे जब पश्चिमी देशों में जाती हैं तो खुशी-खुशी पश्चिमी लिबास अपना लेती हैं, यह कहते हुए कि उनको अपनी तरफ गैर लोगों की नजरें आकर्षित करना पसंद नहीं है। तो अपने देश में क्या हो रहा है इन दिनों, कि पिछले सप्ताह हजारों मुसलिम महिलाएं सड़कों पर उतर आईं हिजाब पहनने का अधिकार मांगने? क्या यह सारा मसला अब मजहबी न रह कर राजनीतिक बन गया है?

ऐसा मुझे तब लगने लगा जब सोशल मीडिया पर मुझे ऐसे मुसलिम दोस्तों की गालियां सुननी पड़ीं, जो मुझे सालों से जानते हैं। एक पुराने पत्रकार दोस्त ने तो यहां तक इल्जाम लगाया ट्विटर पर कि मैंने हिजाब का विरोध करके अपना फासीवादी चेहरा दिखाया है और अब उसको समझ में आया है कि कैसे हिटलर की मदद मेरे जैसे लोगों ने उस नाजी दौर में की होगी।

पुराने दोस्तों के अलावा कई अनजान लोगों से भी इस किस्म के इल्जाम लगाए गए, जिन्होंने हिजाब के इस झगड़े को सीधा जोड़ा हरिद्वार में हुई उस धर्मसंसद से, जहां भगवापोश साधु-संतों ने कहा था कि भारत की मुसलिम समस्या का एक ही समाधान है और वह है उनका जनसंहार।

कहां से कहां पहुंच गया है यह विवाद, जो उडुपी की उन छह लड़कियों से शुरू हुआ था, जिन्होंने अपने कालेज में जाने से इनकार किया था जब तक उनको कक्षा के अंदर हिजाब में रहने का अधिकार न मिले। इस छोटे से प्रदर्शन से अगर आज पूरे देश में मुसलिम महिलाओं का आंदोलन छिड़ गया है, तो क्या हमको पूछने का अधिकार नहीं है कि इनके पीछे कौन है?

पिछले सप्ताह कुछ खोजी पत्रकारों ने उडुपी जाकर कुछ हद तक इस सवाल का जवाब सामने रखा है, यह ढूंढ़ निकाल कर कि इन लड़कियों का संपर्क था उस पापुलर फ्रंट आफ इंडिया से, जो जिहादी इस्लाम को फैलाने के लिए कायम हुआ था 2006 में। याद कीजिए कि उस समय 9/11 वाले हमले का बदला लेने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति ने जिहादी आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जंग का ऐलान किया था और दुनिया भर में मुसलमानों को शक की नजरों से देखा जा रहा था।

इस्लामी मुल्कों के अलावा भारत शायद एकमात्र ऐसा देश था, जहां मुसलमान अपने लिबास, दाढ़ियां और आस्था का खुल कर प्रदर्शन कर सकते थे, इसलिए पहले सवाल तो यह है कि हमारे देश में इस संस्था की जरूरत क्या थी? आज कहते फिर रहे हैं जिहादी इस्लाम के पहरेदार कि मुसलमानों को मोदी के दौर में अपनी पहचान खोने का डर है, इसलिए हिजाब की यह लड़ाई छिड़ गई है व्यापक तौर पर, लेकिन उस समय कौन-सी वजह थी?

अपने आप से यह सवाल आप करेंगे और इतिहास के पन्नों में झांक कर देखेंगे तो शायद पाएंगे कि देश के विभाजन से कोई दस साल पहले भारत के मुसलमानों को उनके राजनेता गुमराह इसी तरह कर रहे थे। आम, अर्ध-शिक्षित मुसलमानों को डराते थे ये राजनेता ऐसा कह कर कि अगर मुसलमानों के लिए अलग देश नहीं बनता है अंग्रेजों के जाने के बाद, तो तय है कि उनको न गाय काटने का अधिकार रहेगा, न हलाल गोश्त खाने का, न मस्जिदों में जाने का और न अपनी संस्कृति को जिंदा रखने का।

बहुत कोशिश की पंडित नेहरू ने साबित करने के लिए कि ये सब बेकार की बातें हैं और आजादी के बाद उनके सारे अधिकार उतने ही सुरक्षित रहेंगे, जितने ब्रिटिश राज में थे, लेकिन उनकी बातें सुनने को न जिन्ना साहब तैयार थे, न मौलाना-मौलवी।

नतीजा इस मुहिम का हम सबको पता है आज। ऐसा नहीं कहती कि देश को फिर से इस्लाम के नाम पर तोड़ने की कोशिश हो रही है, लेकिन इतना जरूर कह रही हूं कि यह झगड़ा अब केवल मुसलिम लड़कियों का कक्षाओं के अंदर हिजाब पहनने का नहीं है। कुछ और हो रहा है इन बातों के पीछे, जिसकी गहराई तक अगर पहुंचने की पूरी कोशिश नहीं होती है, तो भारत का नुकसान दिखता है बहुत बड़े स्तर पर। अंत में एक आखरी सवाल : देश के गृहमंत्री क्या इसलिए चुप हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में इस झगड़े का फायदा मिल सकता है भारतीय जनता पार्टी को?