पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जिस दिन कोरोना को महामारी घोषित किया, मैं न्यूयॉर्क में थी। उसी रात को मुझे भारत वापस आना था, लेकिन अचानक मेरी फ्लाइट रद्द कर दी गई। डब्ल्यूएचओ की घोषणा ने इतनी घबराहट पैदा कर दी थी कि यात्री काफी नहीं थे फ्लाइट पर। महामारी की घोषणा होने के बाद अफवाहें फैलने लगीं कि अमेरिका से अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर पाबंदी लग गई है। मेरी किस्मत अच्छी थी कि जिस एयरलाइन से मेरी बुकिंग थी, उसने मुझे अगले दिन किसी दूसरी एयरलाइन पर सीट दिलवाई और मैं मुंबई वापस आ पाई। लौटने के फौरन बाद मैं महाराष्ट्र के एक छोटे, समुद्र तटीय गांव में आई, क्योंकि मुंबई में महामारी फैलने के डरावने किस्से सुनने को मिल रहे थे। इसी गांव में मैंने महामारी का तकरीबन पूरा साल गुजारा है।

अजीब हाल में बीता है यह साल। शुरू के दिनों में जब प्रधानमंत्री के आदेश पर हमने एक दिन का जनता कर्फ्यू खुशी-खुशी अपने घरों से एक कदम बाहर रखे बिना निभाया, तो लोगों में घबराहट के बदले उत्साह था। लेकिन जब इसके बाद चार घंटों की मोहलत देकर प्रधानमंत्री ने देश भर में लॉकडाउन का ऐलान किया तो इस गांव में जितने भी बाहर से आए हुए मजदूर थे, उनमें इतनी घबराहट फैली कि अचानक माहौल बदल गया। इनमें से कई ऐसे थे, जो अचानक बेरोजगार हुए और कई ऐसे भी थे, जिनके रिश्तेदार मुंबई में काम कर रहे थे, जो सिर्फ बेरोजगार नहीं बेघर भी हो गए थे। लॉकडाउन उठने के बाद जब मैंने बाजार में बेरोजगार युवकों के झुंड देखे, तब मालूम हुआ कि कितनी तकलीफ में इन्होंने लॉकडाउन बिताया था। अगर कुछ दयालु लोगों ने उनकी मदद न की होती तो और भी बुरा हाल होता इनका। कुछ मदद गांव के मंदिरों ने भी की थी गरीबों में अनाज बांट कर और कुछ पंचायत ने भी।

प्रधानमंत्री ने नारा तो अच्छा दिया था : ‘जान है तो जहान है’। लेकिन उस समय घबराहट और चिंता का माहौल इतना बन चुका था कि नारों से कहां तसल्ली होने वाली थी। जिनको घर लौटने और रोजगार की चिंता नहीं थी, उनको चिंता थी बीमार पड़ने की, सो गांव ने तय किया कि बाहर से किसी को भी नहीं आने दिया जाएगा। समस्या इस गांव की यह है कि पर्यटन पर निर्भर है तकरीबन पूरे गांव की अर्थव्यवस्था। कई महीने बुरा हाल रहा उन लोगों का, जो छोटे-मोटे होटल चलाते हैं और जो समुंदर किनारे पर्यटकों को नारियल पानी बेचते हैं और बच्चों के लिए घोड़ा-गाड़ियां चला कर अपने घर चलाते हैं।

घर के बाहर जाना मुश्किल था, लेकिन खबरें मिलती रहीं मुझे छोड़ दिए गए मवेशियों के भूख से मरने की। महामारी से जूझने की आदत डाली ही थी इस गांव ने कि जून के महीने में निसर्ग नाम का चक्रवाती तूफान आया। ऐसा तूफान किसी ने इस गांव में कभी पहले नहीं देखा था। जान का नुकसान नहीं हुआ ज्यादा, लेकिन कई लोगों के घरों की छतें उड़ गईं तूफान में। बिजली कई दिनों तक नहीं रही।

पिछले तीन-चार महीनों से धीरे-धीरे गांव की स्थिति सामान्य होने लगी है और अब गांव में त्योहार जैसा माहौल बन गया है। नए होटल खुल रहे हैं और नए रेस्तरां भी। पर्यटक वापस आने लगे हैं और अब टीकों का भी इंतजाम शुरू हो गया है, सो ऐसा लग रहा है गांव में कि हम एक डरावने सपने से जाग चुके हैं और ‘अच्छे दिन’ वास्तव में आ गए हैं। लोगों से जब पूछती हूं मैं कि प्रधानमंत्री मोदी में उनका विश्वास बढ़ा है या कम हुआ है तो अक्सर कहते हैं कि मोदी से उनको कोई शिकायत नहीं है। क्या कर सकते थे मोदी जब इतनी बड़ी आपदा आन पड़ी थी? शिकायतें हैं कुछ लोगों को स्थानीय अधिकारियों से, लेकिन मोदी से नहीं।

रही मेरी अपनी बात, तो बेझिझक कहने को तैयार हूं कि लापरवाही दिखी है अगर प्रधानमंत्री की तरफ से, तो सिर्फ उस समय, जब उन्होंने प्रवासी मजदूरों के बारे में बिना सोचे इतना कड़ा लॉकडाउन लगाया इतनी छोटी मोहलत देकर कि लाखों लोगों को अपने घरों तक पैदल जाना पड़ा था। क्या ऐसा अचानक लॉकडाउन लगाना जरूरी था? विशेषज्ञों के इस पर अलग-अलग विचार हैं। कई आज भी मानते हैं कि मोदी ने ऐसा करके करोड़ों देशवासियों की जानें बचाईं। उनके भक्त आगे यह भी हमेशा कहते हैं, ‘मोदी न होता तो लाशों के ढेर लग गए होते शहरों की सड़कों पर’।

कुछ विशेषज्ञ हैं जो मानते हैं कि महामारी ने भारत में जान का नुकसान इतना नहीं किया, क्योंकि हमारी ज्यादातर आबादी पैंतीस वर्ष से कम लोगों की है। कुछ यह भी मानते हैं कि हमारे लोग बचपन से ही इतनी बीमारियों का सामना करते हैं कि उनमें कुदरती शक्ति है बीमारियों को झेलने की। असली कारण जो भी हो, इतना तो हम जरूर कह सकते हैं कि कई विशेषज्ञ गलत साबित हुए हैं। कहां हैं वे लोग, जो कहते थे यकीन से कि भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या पिछले साल के बीच तक पांच लाख पार कर जाएगी? कहां हैं वे लोग, जो कहते थे कि इस महामारी का सबसे बड़ा असर दिखेगा भारत में, क्योंकि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी कमजोर हैं?

पिछले सप्ताह मैंने मुंबई के एक सरकारी अस्पताल में कोविड-19 का टीका लगवाया और इतनी सफाई दिखी कि लगा कि किसी निजी अस्पताल में आ पहुंची हूं। मेरे जानकारों में जिनको कोविड हुआ और जिनको सरकारी केंद्रों में दाखिल होना पड़ा, उनका कहना है कि सेवाएं अच्छी थीं। इस महामारी के कारण अगर सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं वास्तव में बेहतर हुई हैं, तो कुछ तो हासिल हुआ है।