राकेश सिन्हा
हाल में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी की पुस्तकों से कुछ बातों को हटाने पर विवाद छिड़ गया है। यह गैर-जरूरी विवाद है। ऐसे विवादों से इतिहास पर जरूरी विमर्श कमजोर पड़ जाता है। वास्तव में भारत के इतिहास में असली लड़ाई इसके फलक की है। इतिहास के वर्तमान स्वरूप का फलक न सिर्फ छोटा है, बल्कि संकीर्ण भी है। आजादी के बाद जो इतिहास पाठ्यक्रमों में परोसा गया, वह समकालीन वैचारिक परिवेश के हित को देख कर लिखा गया है। वर्तमान कभी भी इतिहास का जनक नहीं हो सकता, अपितु इतिहास वर्तमान को बुनियाद देने में सक्षम होता है।
नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का न सिर्फ प्राचीन, बल्कि सबसे समृद्ध विश्वविद्यालय था
भारत के इतिहासकारों ने विचारों की परिधि में अगर इतिहास को नहीं ढाला होता, तो पीढ़ियों को इतिहास की पुस्तकों में सात सौ वर्षों तक अस्तित्व में रहे नालंदा विश्वविद्यालय के सिर्फ भग्नावशेष से नहीं, बल्कि इस बात से भी साक्षात्कार होता कि सभ्यता में ज्ञान पर हमला कैसे, कब और क्यों हुआ? नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का न सिर्फ प्राचीन, बल्कि सबसे समृद्ध विश्वविद्यालय था।
बख्तियार खिलजी को विश्वविद्यालय के विचारों, विद्यार्थियों और पुस्तकों से क्या दिक्कत थी? जब इसके बहुमंजिला पुस्तकालय में आग लगाई गई थी, तो तीन महीने से अधिक समय लगा था पुस्तकों को जलने में। दुनिया के इतिहास में ज्ञान पर यह सबसे बड़ा हमला था।
इस पर एक छोटी-सी पुस्तक है, जो हंसमुख संकालिया द्वारा लिखी गई थी। इससे इतर मिस्र में एलेग्जेंड्रिया लाइब्रेरी, मात्र कुछ लाख पुस्तकें थीं, उसे भी ज्ञान के शत्रुओं के कारण नष्ट होना पड़ा था। इस पर सैकड़ों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। यह इतिहासकारों के स्व-सृजित सोपानों को रेखांकित करता है।
यह अकेली घटना नहीं है, जो इतिहास की दुर्बलता को दिखाता है। मार्क्सवादी-नेहरूवादी इतिहासकारों की पूरी बौद्धिकता और प्रतिबद्धता मुगल शासकों के कुकृत्यों को ढंकने में खर्च हो गई। वे भूल गए कि चयनित घटनाओं से इतिहास की अस्मिता धूमिल हो जाती है। उनके लिए बाबर, औरंगजेब के शासन को समन्वयकारी साबित करना सतत चुनौती रही है।
हकीकत यह है कि इतिहास घटनाओं का संग्रह भी नहीं है। यह घटनाओं के कारण और परिणाम को ढूंढता है। वही ईमानदार खोज भविष्य की पीढ़ियों की दृष्टि का संबल बनती है। पुस्तकों में शहीद गुरु तेगबहादुर की शहादत का जिक्र तो होता है, पर उन्होंने शहादत क्यों दी और शहादत देने वाले शासकों का सामाजिक-राजनीतिक दर्शन क्या था, यह प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिया जाता है।
मुगल शासक ने 1704 में गोविंद सिंह के दो पुत्रों को ईंटों की दीवार में चुनवा दिया था
एक दूसरी घटना कम प्रासंगिक नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसंबर को ‘वीर बाल दिवस’ क्यों घोषित किया, इसका उत्तर इतिहास की पुस्तकों में स्पष्टता से उपलब्ध नहीं है। श्री गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्रों, साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, जिनकी आयु क्रमश: नौ और सात साल थी, को मुगल शासक ने 1704 में ईंटों की दीवार में चुनवा दिया था।
पूरी दुनिया के इतिहास में धर्म परिवर्तन न करने के कारण इतनी क्रूरतम दमनकारी घटना दूसरी कोई नहीं है। त्याग और बलिदान की पराकाष्ठा सिर्फ महिमामंडन का विषय नहीं, बल्कि सभ्यता के इतिहास में मानव अस्तित्व के संबंध में दो दर्शनों के टकराव का भी इतिहास है। आखिर मार्क्सवादी, नेहरूवादी क्यों इस टकराव के पीछे के दर्शनों को दिखाने और बताने से डरते और भागते रहे।
इसलिए इतिहास का पुनर्लेखन उसके फलक के विस्तार और सर्वसमावेशी बनाने का प्रयास है। इतिहास को ‘तेरा इतिहास’ ‘मेरा इतिहास’ के जंजाल से बाहर निकालना किसी भी राष्ट्र के बौद्धिकों का नैतिक दायित्व होता है। इतिहास पर कुलीनता का प्रकोप इस यथार्थ से दूर कर देता है। परिणामस्वरूप इतिहास का बड़ा अंश लोक-स्मृतियों और श्रुतियों से आगे नहीं बढ़ पाता है। पुस्तक का अंश नहीं बन पाता है।
आजादी के अमृत महोत्सव ने भारतीय इतिहास की कुलीनता को उजागर किया है। इसने आजादी के संघर्ष को टटोलने की जरूरत बताई है। देश को स्वतंत्र करने में सामान्य लोगों ने कितने जुल्म सहे और किस साहस का परिचय दिया, वह गांधी-नेहरू इतिहास की परिधि में प्रवेश नहीं पा सका है।
मुझे दो ऐसे लोगों से मिलने का अवसर मिला, जिनका जन्म अपने पिता की शहादत के बाद हुआ। इनमें एक वर्धा में डा. अरविंद माल्पे हैं। माल्पे के पिता डा. गोविंद माल्पे 1942 में त्रिचूर (महाराष्ट्र) में पुलिस की बर्बरता के शिकार और शहीद हुए। तब अरविंद माल्पे अपनी मां के गर्भ में थे।
दूसरे शहीद कुमार हैं। वे बेगूसराय (बिहार) के मेघौल नामक गांव में शहीद पिता की संतान हैं। अंग्रेज अधिकारी ने उनके पिता राधा प्रसाद सिंह की देशभक्ति का जवाब उन्हें खंजर से मार कर दिया। मरते-मरते वे कह गए कि ‘शहीद कुमार (उनकी पत्नी के गर्भ में पल रहा शिशु) आ रहा है।’ जब राधा प्रसाद सिंह पर पुलिस बर्हरता हो रही थी तब रामरती देवी ने उसका प्रतिकार किया। पत्थर फेंका। तब उन पर गोली चलाई गई। वे घायल हुर्इं और बच गईं।
मगर उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान नहीं मिल पाया। उनकी मृत्यु 1996 में हुई। ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने में अनगिनत लोगों ने अकल्पनीय त्याग किया। वे गांवों के सामान्य लोग थे। मगर इस इतिहास को संकलित करने की जगह वर्तमान को भूत पर थोपने की अनवरत लड़ाई चलती रही।
इतिहास जब विचारों की प्रयोगशाला बन जाता है, तब विवाद और विमर्श गैरजरूरी घटनाओं और पात्रों के इर्द-गिर्द सिमट जाता है। चाहे-अनचाहे हम उस विवाद का हिस्सा बन कर रह जाते हैं। इतिहास को कमजोर बनाए रखने के पीछे गहरी साजिश रही है। पहला, राष्ट्र के ‘स्व’ को उभरने से रोकना और दूसरा, चहेते लोगों को नायक बना कर प्रस्तुत करना।
भारत की आजादी के आंदोलन में अग्रिम पंक्ति के नेताओं में प्रभावशाली वर्ग पश्चिम से अभिभूत था, इसलिए साम्राज्यवादी आतंक के प्रति चयनित और नरम रहना उनके इतिहासकारों का धर्म बन गया है। तभी तो मोहन रणाडे की घटना इतिहास के पन्नों की जगह संसदीय विमर्श में सिमट कर रह गई।
वे पुर्तगाली साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए पकड़े गए थे। गोवा की मुक्ति के लिए वे संघर्ष कर रहे थे। उन्हें पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन भेज दिया गया। उनकी मां रमाबाई आप्टे की आंखों की रोशनी जा रही थी। रेडक्रास सोसाइटी के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष की मदद से उन्होंने पुर्तगाल सरकार को अपने पुत्र को देखने की इच्छा का प्रार्थना पत्र भेजा, पर वह अस्वीकृत हो गया।
भारत की सरकार ने 1960 के दशक में सैंतीस सौ पुर्तगाली सैनिकों को मुक्त कर पुर्तगाल जाने दिया, पर उसकी एवज में मोहन रणाडे को वापस लौटाने की शर्त नहीं रख पाई। संसद में 1966 में इस पर सवाल जवाब हुए। सरकार निरुत्तर थी, पर लज्जित नहीं।
भारत के इतिहासकारों की विडंबना है कि उनकी पहली प्रतिबद्धता राजनीतिक विचारधारा की रही है। इस तरह इतिहास लेखन उसकी बलि चढ़ता रहा। भारत की दस हजार साल पुरानी सभ्यता के इतिहास को किसी कालखंड विशेष के ग्रहण से मुक्त कराना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
घटनाएं निर्जीव नहीं होती हैं। प्रत्येक घटना एक मानवीय प्रवृत्ति और सामाजिक दर्शन को अपने अंदर समेटे रहती है। इतिहासकार का काम चींटी की तरह चीजों को सिर्फ एकत्रित करना नहीं, बल्कि उस मकड़ी की तरह जाल बुनना भी होता है, जिसे विमर्श (नैरेटिव) कहते हैं। इसलिए इतिहास पुनर्लेखन में न आक्रामक होने की जरूरत है, न ही अपराधबोध से ग्रस्त होने की।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)