भारत में स्कूली शिक्षा की परीक्षा में प्राप्त अंक उच्च शिक्षा का रास्ता खोलते हैं। यही नहीं, अंकों की यह दौड़, शिक्षा-व्यवस्था में व्याप्त असमानता को नजरअंदाज करके, अच्छे स्कूल वालों को अच्छा कालेज मिलने की संभावना को स्वीकार्य बना देती है। हर साल कई लाख छात्र बारहवीं की परीक्षा पास करते हैं, लेकिन देश के प्रतिष्ठित कालेजों-विश्वविद्यालयों की सूची में सौ प्रतिशत और निन्यानबे प्रतिशत अंक के साथ स्थान पाने वाले बहुमत के छात्र केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के ही क्यों होते हैं?
क्या इसमें परीक्षा पद्धति की कोई भूमिका है या प्रतिभावान छात्रों को ही इस उपलब्धि का श्रेय दिया जाना चाहिए? क्या देश में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, हिमाचल आदि राज्य स्तर के बोर्डों और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की मूल्यांकन पद्धति में एकरूपता जरूरी नहीं है? देश के सभी परीक्षा बोर्डों का परिणाम भी अलग-अलग समय पर आता है और जिन राज्यों का परीक्षा परिणाम देर से आता है, उनके छात्र देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों-कालेजों में प्रवेश से वंचित रह जाते हैं।
क्या देश में परीक्षा के लिए बने बोर्डों की सचमुच जरूरत है? क्या यह नहीं हो सकता कि दसवीं-बारहवीं की कक्षाओं में मूल्यांकन के लिए भी स्कूल को ही अधिकृत कर दिया जाए! जब स्कूल अपने छात्रों की पढ़ाई कराता है, तो क्या वह परीक्षा नहीं आयोजित करवा सकता? जो प्रशासनिक व्यवस्था बोर्ड की परीक्षा कराती है, उसमें भी प्रश्न-पत्र शिक्षक ही बनाते हैं, परीक्षा-कक्ष में ड्यूटी देने और मूल्यांकन करने वाले भी मुख्यत: शिक्षक होते हैं। परीक्षा भी किसी न किसी स्कूल पर ही होती है। ऐसे में अगर स्कूलों को बोर्ड परीक्षा कराने की स्वायत्तता दे दी जाए तो क्या यह एक बेहतर विकल्प नहीं होगा?
आमतौर पर, छात्रों के मूल्यांकन से यह पता चलता है कि छात्रों ने क्या सीखा। क्या इन परीक्षा परिणामों से शिक्षक और व्यवस्थापक कुछ सीखते हैं? क्या छात्रों का फेल होना, उनकी व्यक्तिगत विफलता मानी जाए, शिक्षकों के पढ़ाने के ढंग की कमजोरी मानी जाए या परीक्षा और शिक्षा-व्यवस्था को भी इसका दोषी माना जाए? जापान में अगर कक्षा में कोई छात्र कोई अवधारणा नहीं सीख पाता, तो कक्षाध्यापक सहित पूरी कक्षा के छात्रों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे उस छात्र को सिखाएं। मगर अपने देश में छात्र अपनी विफलता को अपनी नियति मान लेता है।
छात्रों के सीखने में संसाधनों की उपलब्धता, पाठ्यक्रम, परीक्षा जैसे तत्त्वों की भूमिका और अलग-अलग स्तर पर व्याप्त सामाजिक-शैक्षिक असमानता के लिए निरंतर बहस होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि अलग-अलग तरह के स्कूल और परीक्षा के लिए बने अलग-अलग बोर्ड भी समाज के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्य बोर्डों के छात्र, बहुमत में अपने-अपने राज्य के विश्वविद्यालयों-कालेजों में ही रुक जाते हैं। उनकी मेरिट उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय तक पहुंचने के लिए उत्साहित नहीं कर पाती है।
अगर स्कूलों को परीक्षा के लिए स्वायत्तता दे दी जाए तो विश्वविद्यालय स्तर पर प्रवेश के लिए राष्ट्रीय या प्रादेशिक स्तर पर प्रवेश परीक्षा का प्रावधान किया जा सकता है, जैसा कि मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों के लिए होता है। इस तरह बोर्ड परीक्षा के लिए कुंभ मेले जैसे ताम-झाम से बचा जा सकता है और छात्रों पर बोर्ड परीक्षा का दबाव भी कम हो जाएगा।
एक स्थानीय परिवेश में सहज प्रक्रिया द्वारा छात्रों का मूल्यांकन हो सकेगा। स्कूल स्तर पर मूल्यांकन से स्कूल और शिक्षक को अपनी शिक्षण व्यवस्था में आवश्यक सुधार करने के लिए जरूरी ‘फीडबैक’ और अनुभव भी प्राप्त होगा।
परीक्षा पद्धति में बदलाव के लिए निश्चित रूप से प्रयोग होने चाहिए। भारतीय स्कूली शिक्षा-व्यवस्था में परीक्षाओं को लेकर बदलाव करने की मांग बहुत पुरानी है। प्रोफेसर यशपाल की अगुआई वाली समिति ने भी ‘शिक्षा बिना बोझ के’ में परीक्षा पद्धति को बदलने की बात कही थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भी बोर्ड परीक्षा के वर्तमान स्वरूप को बदलने की अनुसंशा करती है। शिक्षा अधिकार कानून-2009 में सतत शिक्षण मूल्यांकन का प्रावधान था।
इससे शिक्षकों को नियमित रूप से यह पता चलता कि उनकी कक्षा के किस छात्र को कौन-सी अवधारणा सीखने में कठिनाई है और वे उस छात्र की समय रहते मदद कर सकते थे। लेकिन शिक्षकों के एक वर्ग के विरोध के चलते सतत शिक्षण मूल्यांकन को शिक्षा अधिकार कानून से हटा दिया गया। तीन दशक पूर्व कक्षा नौवीं में प्रायोगिक तौर पर ‘खुली किताब परीक्षा’ का आयोजन हुआ था। इसमें प्रश्न ऐसे बनाए गए थे, जिसके लिए किताब पास हो तब भी उसे देख कर उत्तर देना सहज नहीं था। लेकिन यह प्रयोग आगे नहीं बढ़ पाया।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने पिछले वर्ष कोरोना के चलते स्कूलों के बंद होने के कारण परीक्षा के लिए पहले तीस प्रतिशत पाठ्यक्रम कम करने की बात कही थी। मगर परीक्षा को लेकर असमंजस बना रहा और फिर बारहवीं की बोर्ड परीक्षा नहीं हुई। दसवीं-ग्यारहवीं और बारहवीं के प्री-बोर्ड के आधार पर 2020-2021 सत्र के छात्रों को अंक दिए गए।
अब केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड 2021-2022 सत्र के लिए दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में एक प्रयोग कर रहा है। इस वर्ष अर्धवार्षिक और वार्षिक दो परीक्षाओं का प्रावधान किया गया है। दोनों परीक्षाएं कुल पाठ्यक्रम के आधे-आधे हिस्से पर आधारित होंगी। परीक्षा में बहुविकल्पीय प्रश्नों के साथ ‘केस’ आधारित सवाल होंगे।
उम्मीद है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अपने प्रश्नपत्र और परीक्षा आयोजित करने में समावेशी दृष्टिकोण रखेगा। क्योंकि जो छात्र दिव्यांग हैं, जो देख नहीं सकते और उन्हें परीक्षा में एक सहायक की जरूरत होगी, उनके लिए विशेष व्यवस्था करनी होगी।
कोरोना काल में पढ़ाई को लेकर यह असमंजस बना रहा कि 2020 में जहां पढ़ाई छूटी थी वहां से शुरू हो कि छात्र अब जिस कक्षा में आ गए हैं, उस पाठ्यक्रम को पढ़ाया जाए। लगभग अस्सी प्रतिशत छात्र आनलाइन पढ़ाई से वंचित रहे हैं, इसमें से भी कुछ छात्रों को स्कूल जाकर परीक्षा देनी है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रश्नपत्र तो पाठ्यक्रम के अनुसार बनेगा। एक सामान परीक्षा में किसके पास आनलाइन कक्षा के लिए संसाधन थे और किसके पास नहीं थे, यह विचार करने की संभावना नहीं है।
महामारी जनित अनिश्चितता के इस समय में क्या दूसरे राज्यों के परीक्षा बोर्डों को भी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की तरह, उसी प्रकार के बहुविकल्पी प्रश्नों वाली परीक्षा का विकल्प नहीं चुनना चाहिए? अलग-अलग बोर्डों के बीच परीक्षा पद्धति में समानता होगी तब छात्रों की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो सकेगा और सभी को अपने प्राप्तांकों के बल पर आगे बढ़ने का सामान अवसर मिल सकेगा।
परीक्षा में सुधार के क्रम में यह देखना होगा कि परीक्षा बोर्ड की भूमिका क्या है? क्या इससे जीवन में आगे बढ़ने का अवसर मिलता है या परीक्षा के जरिए अपनी सामाजिक स्थित को न्यायोचित मान लेने का ही विकल्प उपलब्ध है! सभी राज्य परीक्षा बोर्ड मूल्यांकन की एक सामान पद्धति को अपना सकते हैं।
इससे छात्रों को यह नहीं लगेगा कि उसके राज्य के कारण परीक्षा और मूल्यांकन में कोई भेदभाव हो रहा है। देश के सभी छात्रों को यह लगना चाहिए कि उसे प्राप्त अंक विश्वविद्यालय के चयन में उसको केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की तरह ही अवसर दे रहे हैं, उनके साथ कोई असमानता का भाव नहीं है।