आज की वैश्विक स्थितियां अविश्वास, आशंका, अश्रद्धा, अपमान, असुरक्षा, आतंकवाद, हिंसा, युद्ध, शोषण जैसी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हैं। ऐसे में विकास और प्रगति का बाधित होना स्वाभाविक है। बीमारी, भुखमरी और गरीबी अपने पैर पसार रही हैं। आशा की सबसे प्रखर किरण है शिक्षा! हर व्यक्ति शिक्षा की ओर इस अपेक्षा से देख रहा है कि वहां से हर समस्या के समाधान का कौशल सीखना संभव होगा। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था को अपने को गतिशील और समयानुकूल बनाना होगा। साथ ही उसे संस्कारवान, सुसंस्कृत, सदाचरण से युक्त व्यक्ति तैयार करने की अपनी क्षमताओं का उच्चीकरण करना होगा, और इसके लिए शिक्षा से जुड़ी हर संस्था को अपनी कार्य संस्कृति में आवश्यक बदलाव लाना होगा।
विश्व शांति, सद्भाव तथा समानता की बढ़ती आवश्यकता से अब कोई अपरिचित नहीं है, लेकिन फिर भी- शिक्षा के प्रचार और प्रसार के बाद भी- मनुष्य हिंसा, युद्ध, आत्मघाती अस्त्र-शस्त्र प्रतिस्पर्धा में क्यों संलग्न है, वह अपने आत्मज्ञान से विलग क्यों है? वह भौतिकता की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ रहा है, वह भौतिकता के स्थूल सुखों की सच्चाई को क्यों नहीं देख पाता है? भौतिक समृद्धि और संग्रह की दौड़ में लगा मनुष्य जानता है कि उसने अपने को भावी पीढ़ी की धरोहर के संरक्षक के रूप में नहीं ढाला है, उसने तो भावी पीढ़ियों को बेहतर भविष्य देने के स्थान पर एक जीर्ण-शीर्ण परिवेश उनकी नियति में लिख दिया है, जिसमें उन्हें प्रकृति-प्रदत्त मूल जीवन तत्व, जैसे जल तथा वायु तक अनुपलब्ध और जहरीले मिलेंगे, पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की कितनी ही प्रजातियां विलुप्त हो चुकी होंगीं!
शिक्षा से ही अपेक्षा होगी कि वह इस सबका सामना करने के लिए भावी पीढ़ी को तैयार करे, मनुष्य अपनी सारी समझ के बाबजूद यहां क्यों पहुंचा, यह उनके समक्ष सुनिश्चित करे और सुधार के लिए उनका मनोबल बढ़ाए। भारत में ऐसी शिक्षा का आधार-दर्शन क्या हो? इसके लिए शिक्षा और संस्कृति के समवाय को समझाना होगा।
ज्ञान असीमित है, मनुष्य के सीखने की क्षमता भी असीमित है। 1965 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक रिचर्ड फाइनमैन का एक कथन है : हमारे ज्ञान की अपनी परिधि निर्मित होती है। यह उसकी सीमा है, अंदर सीमित ज्ञान और बाहर असीमित अज्ञान। यानी ज्ञान के साथ-साथ हमारे अज्ञान की भी सीमा है। ज्यों ज्यों हमारा ज्ञान बढ़ता है, परिधि बढ़ती जाती है, हमारे ज्ञान की सीमा भी बढ़ती है, उसी के साथ हमारे अज्ञान की सीमा भी बढ़ती जाती है।
अनेक विद्वानों ने इसे भिन्न-भिन्न प्रकार से दोहराया है; कि जैसे-जैसे व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है, वह समझ जाता है कि वह कितना कम जानता है, ज्ञान का सागर असीमित है, अंधकार का कुहासा भी असीमित ही है। ज्ञान का प्रकाश इस अंधेरे को चीरता चला जाता है और ज्ञान-प्राप्ति के आनंद और संतुष्टि को अंतर्निहित करने वाला व्यक्ति ही इस मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है। और इसके लिए उसे अपने अंतर्मन में झांकना होता है, वहां उपस्थित असीमित ज्ञान भंडार में से ही चुनना पड़ता है, आविष्कार करना पड़ता है। व्यक्ति को अपनी सफलता और संतुष्टि इस अर्जित ज्ञान को वैश्विक ज्ञान भंडार में वृद्धि कर और उसका ‘सर्व भूत हिते रत:’ के संदर्भ से मिलती है।
ज्ञानार्जन के उद्देश्य ‘सर्व भूत हिते रत:’ के स्थान पर स्वार्थ की तरफ मोड़ दिए गए हैं। इसका कारण भौतिकवाद की चमक-दमक, और उससे जनित चकाचौंध; के पीछे तेजी से बढ़ते आकर्षण हैं। इस समय वैश्विक स्तर पर जो व्यय अनुसंधान और नवाचार पर हो रहा है, उसमें सर्वाधिक निवेश बनाने वाली कंपनियों का होता है। उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों से पहले परिणाम चाहिए, जो पहले अगली खोज कर लेगा, उसी का पेटेंट होगा, उसी की कमाई होगी, और चूंकि दवाइयों के मूल्य निर्धारण पर कोई रोक-टोक और नियंत्रण नहीं होता है, अत: उनके मूल्य लागत के सौ ही नहीं, हजार गुने भी हो सकते हैं! एक दूसरा पक्ष देखिए। केवल समृद्ध देशों की नहीं, अत्यंत गरीब देशों की सरकारें भी हथियारों की होड़ में बिना किसी हिचक के अपने व्यय बढ़ाती रहती हैं, भले ही उनके यहां करोड़ों लोगों को भुखमरी, बीमारी और कुपोषण को पीढ़ियों से सहना पड़ रहा हो।
विश्व को ऐसी स्थिति से कौन निकाल सकेगा? अर्नाल्ड टायनबी ने समाधान इन शब्दों में सुझाया था : ‘यह भली भांति स्पष्ट हो रहा है कि एक अध्याय जिसकी शुरुआत पाश्चात्य थी, यदि उसका अंत मानवजाति के आत्मसंहार में नहीं होना है, तो समापन भारतीय होगा… मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानवजाति की मुक्ति का यदि कोई रास्ता है तो वह भारतीय है- चक्रवर्ती अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और श्री रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानवजाति को बचा सकते हैं। यहां हमारे पास एक ऐसी मनोवृत्ति और भावना है जो मानवजाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है। और इस अणु युद्ध में विनाश का यही विकल्प है।’ ऐसी सोच अब विश्वव्यापी है। ऐसा क्यों है, इसे समझाने के लिए दो मनीषियों को याद कारन समीचीन होगा।
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय ज्ञान परंपरा और उसके दर्शन की गंभीरता, गहनता और गरिमा को विश्व पटल पर स्थापित किया। गांधीजी ने नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जैसे कितनों को प्रभावित कर राष्ट्रीय सम्मान और मानवीय गरिमा को प्राप्त करने का एक नया वैकल्पिक रास्ता दिखा दिया। आज भारत की शिक्षा व्यवस्था और विद्वत वर्ग का वैश्विक उत्तरदायित्व यही बनता है कि इन जैसे मनीषियों द्वारा दिखाए गए रास्ते की ओर विश्व के सत्ताधीशों, विद्वानों तथा ज्ञान-सर्जकों को प्रेरित किया जाए। इसके लिए पहली आवश्यकता तो यही है कि भारत की अपनी शिक्षा व्यवस्था में इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को पूरी तरह अंतर्निहित करे, और अपने यहां उसकी व्यावहारिकता का उदाहरण प्रस्तुत करे।
भारत की नई शिक्षा नीति में यह संभावना उभरती है, आशा भी बंधती है : ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष जोर देती है। यह नीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शिक्षा से न केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी बुनियादी क्षमताओं के साथ साथ उच्चतर स्तर की तार्किक और समस्या-समाधान संबंधी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए, बल्कि नैतिक, सामजिक और भावनात्मक स्तर पर भी व्यक्ति का विकास होना आवश्यक है।’ यह आज की आवश्यकता है, आज की भाषा में वर्णित है। इसे ठोस आधार प्रदान करने के लिए निरंतरता की समझ भी आवश्यक है, इसका ध्यान रखा गया है।
भारतीय दर्शन, संस्कृति तथा समाज के मानवीय पक्षों की महत्ता का वैश्विक स्तर पर अप्रतिम प्रभाव पड़ा था। ज्ञान सर्जन कर अपनी प्राचीन प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित करने का उत्तरदायित्व भारत के वर्तमान शिक्षा संस्थानों और युवा पीढ़ी को अपनी विरासत के रूप में स्वीकार करना होगा। कुल मिलाकर शिक्षा नीति और शिक्षा संस्थानों का उद्देश्य विकसित व्यक्तित्व के नागरिकों का निर्माण करना है और यह विकास ‘करुणा, सहानुभूति, साहस, लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक कल्पना शक्ति, नैतिक मूल्यों के आधार’ को सम्मुख रख कर, और सारी प्रक्रिया में इन्हें पूर्ण-रूपेण समाहित करते हुए ही होना चाहिए। नए ज्ञान, विज्ञान और कौशलों के सर्जन तथा अन्य से सहयोग और स्वीकार्यता के समन्वय से ही नई पीढ़ी सिर ऊंचा कर विश्व पटल पर भारत को उचित स्थान दिला सकेगी।