भारत का संविधान राज्यों के बीच एक समझौता था। संविधान के केंद्रीय स्तंभ में तीन सूचियां हैं- संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। दूसरी सूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 11, जो मूल रूप से इस प्रकार है- विश्वविद्यालयों सहित शिक्षा सूची-1 की प्रविष्टि 63, 64, 65 और 66 और सूची-3 की प्रविष्टि 25 के प्रावधानों के अनुसार होगी। सूची-तीन (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 25 में श्रमिकों की व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा की बात है।
लोहार के हथौड़े की चोट
प्रविष्टि संख्या 63 से 66 तक को लेकर कोई समस्या नहीं है, क्योंकि इनका संबंध केंद्र सरकार के पैसे से चलने वाले कुछ नामित संस्थानों, वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षण संस्थानों, प्रशिक्षण संस्थानों और मानक निर्धारित करने से है। रचनात्मक व्याख्या इन प्रविष्टियों और सिद्धांतों में तालमेल बैठा लेती है कि ‘शिक्षा’ राज्य का विषय है और उसे बनाए रखा गया है।
संसद ने हड़बड़ी दिखाते हुए अक्खड़पन से राज्य सूची की प्रविष्टि 11 पर हथौड़ा चला दिया। इस प्रविष्टि को पूरी तरह से खत्म कर समवर्ती सूची की प्रविष्टि 25 को दुबारा इस प्रकार लिखा गया- शिक्षा, जिसमें तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और विश्वविद्यालय, शामिल हैं, सूची एक की प्रविष्टि 63, 64, 65 और 66 के प्रावधानों के तहत आने वाले विषय हैं और श्रमिकों के व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा भी इसमें शामिल हैं।
जिस तरह यह हथौड़ा चलाया गया है वह संघवाद के विचारों, राज्यों के अधिकार और सामाजिक न्याय पर चोट करता है। आपातकाल-विरोधी योद्धाओं, जिन्होंने चौवालीसवां संविधान संशोधन पारित किया (42वें संशोधन की खामियों को दूर करने के लिए), उन्होंने जरा विचार नहीं किया कि शिक्षा से संबंधित मूल प्रविष्टियों को बहाल करना कितना जरूरी था।
ऐतिहासिक रूप से, मेडिकल कॉलेजों की स्थापना राज्यों ने की थी और निजी क्षेत्र को मेडिकल कॉलेज खोलने की अनुमति दी थी। इन कॉलेजों में छात्रों के दाखिले पर नियंत्रण सरकारों के हाथ में था। शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता में भी काफी सुधार आया। राज्यों के संचालित इन कॉलेजों से कई नामी-गिरामी डॉक्टर निकले। तमिलनाडु में तत्काल जो नाम दिमाग में आ रहे हैं उनमें डॉक्टर रंगाचारी और डॉक्टर गुरुस्वामी मुदालियर हैं, जिनकी प्रतिमा मद्रास मेडिकल कॉलेज के प्रवेश द्वार पर लगी है। यह माना जाता है कि तमिलनाडु उन राज्यों में से है, जो चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में अग्रणी थे और हैं। मुद्दा यह है कि इन मशहूर चिकित्सकों (और देश भर में ऐसे हजारों चिकित्सक हैं) का दाखिला अखिल भारतीय परीक्षा के आधार पर नहीं हुआ था।
राज्यों के अधिकारों को मान्यता
राज्यों के अधिकारों के लिए लड़ने का मामला यह है- राज्य में जो मेडिकल कॉलेज स्थापित किए जा रहे हैं वे राज्य के लोगों के पैसे से खोले जा रहे हैं। उनका मकसद कुल मिला कर उस राज्य के लोगों के बच्चों को दाखिला देना, उन्हें अंग्रेजी में चिकित्सा की पढ़ाई करवाना और इसके साथ ही राज्य की आधिकारिक भाषा जो उस राज्य की बहुसंख्यक आबादी की भाषा है, में भी पढ़ाना है। कुल मिलाकर स्नातक कर रहे डॉक्टरों से उम्मीद की जा रही है कि वे राज्य के लोगों की सेवा करें, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में जहां स्वास्थ्य सेवाएं निराशाजनक रूप से खस्ताहाल और अपर्याप्त हैं। उनसे कुल मिलाकर उम्मीद की जा रही है कि वे अपनी भाषा में मरीजों से बात कर उनका इलाज करें।
राज्य सरकार के नियम सामाजिक न्याय के मुद्दों का भी समाधान देते हैं। वे ग्रामीण छात्रों, सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चों, गरीब परिवारों के बच्चों को और वंचित तबके के बच्चों और पढ़ाई करने वाली पहली पीढ़ी के बच्चों को दाखिले के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
राज्यों में जो व्यवस्था मौजूद है, उसके बारे में कोई भी शिकायत नहीं करता। कम से कम तमिलनाडु या महाराष्ट्र में तो बिल्कुल नहीं और जहां तक मेरी जानकारी है, दक्षिण के राज्यों में भी नहीं। वाकई ऐसे गंभीर मसले हैं, जिनका समाधान निकाले जाने की जरूरत है जैसे कैपिटेशन फीस, अत्यधिक फीस, उपकरणों की घटिया गुणवत्ता, अपर्याप्त संबद्ध अस्पताल, प्रयोगशालाओं से लेकर पुस्तकालय, छात्रावास और खेल संबंधी सुविधाओं की भारी कमी। चाहे राज्य सरकार दाखिलों को नियंत्रित करे या कोई केंद्रीय प्राधिकार, ये समस्याएं लगातार बनी हुई हैं।
निराश करने वाले तथ्य
नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टैस्ट (नीट) की प्रस्तावना यह है कि ‘जब उच्च शिक्षा की बात आती है और वह भी पेशेवर संस्थानों में, तो वरीयता ही एकमात्र आधार हो’ (मॉडर्न डेंटल कॉलेज बनाम मध्यप्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट का फैसला) और सिर्फ एक सामान्य प्रवेश परीक्षा ही वरीयता आधारित दाखिले, निष्पक्षता, पारदर्शिता और गैर-शोषण सुनिश्चित करेगी। नीट को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा बनाए गए नियमों के जरिए चुपके से लाद दिया गया और 2016 में एक संशोधन के जरिए अब यह इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट की धारा 10डी में शामिल हो चुकी है।
बहस के बड़े विषय वरीयता को मैं किसी और दिन के लिए सुरक्षित रखता हूं। आज, मैं उन तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करता हूं, जो न्यायमूर्ति एके राजन कमेटी ने तमिलनाडु में मेडिकल कालेजों की दाखिला प्रक्रिया में नीट के प्रभाव के संबंध में सामने रखे हैं-
कृपया अपने से यह सवाल पूछें : राज्य सरकारों को राज्य के करदाताओं का पैसा खर्च करके सरकारी मेडिकल कॉलेजों की स्थापना क्यों करनी चाहिए? विद्यार्थियों को स्कूल में अपनी मातृभाषा (तमिल) क्यों पढ़नी चाहिए? विद्यार्थियों को राज्य बोर्ड के स्कूलों में क्यों पढ़ना चाहिए और क्यों राज्य बोर्ड की परीक्षा देनी चाहिए? सभी राज्यों में बोर्ड क्यों होने चाहिए? क्या शहरी छात्र प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों और तालुका स्तर पर बने अस्पतालों में काम करेंगे?
सारणी में दिखाए आंकड़े सब कुछ कह देते हैं। वरीयता के संदिग्ध सिद्धांत के आधार पर नीट भारी असमानता और अन्याय का युग आने की घोषणा कर रहा है।