प्रधानमंत्री ने कहा बताते हैं- ‘हाल के वर्षों में कुछ लोग मानवाधिकार की व्याख्या अपने हितों को प्राथमिकता देने के लिए अपने अंदाज में करने लगे हैं। वे किसी एक घटना में मानवाधिकार उल्लंघन को देखते हैं, लेकिन उसी तरह की दूसरी घटना में उन्हें मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं दिखता। इस तरह की मानसिकता मानवाधिकार को काफी नुकसान पहुंचाती है।’ वे एकदम सही हैं।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणापत्र को अंगीकृत किया था। इसमें उन अधिकारों और स्वतंत्रता के बारे में साफ-साफ कहा गया है, जिसके लिए हर इंसान समान और अपरिहार्य रूप से इसका हकदार है।
बदतर स्थिति
इस दस्तावेज की प्रस्तावना में 1948 के वक्तके विश्व की हकीकत को रखा गया था। इस घोषणापत्र को न्यायोचित बताने की जरूरत इसलिए थी, क्योंकि मानवाधिकार की उपेक्षा और उनकी अवहेलना बर्बर रूप में सामने आ रही थी, जिसने इंसान के अवचेतन को झकझोर कर रख दिया था। जो 1948 में सच था, वही आज 1921 में है। कुछ देशों में यह स्थिति जरा बेहतर हो सकती है, लेकिन भारत सहित कई दूसरे देशों में यह निश्चित रूप से बदतर हुई है।
आइए, तीन अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में जो कुछ हुआ, उससे शुरुआत करें। संसद द्वारा लागू किए, वास्तव में जैसे-तैसे पास कराए गए, तीन कृषि कानूनों का किसान विरोध कर रहे थे। गाड़ियों का एक काफिला (जिसमें कम से कम दो की पहचान हो चुकी है) तेजी से प्रदर्शनकारी किसानों के पीछे से आया और चार प्रदर्शनकारियों को रौंद डाला। इसके बाद हिंसा भड़क उठी। कार में बैठे तीन लोगों को गुस्साई भीड़ ने पकड़ लिया और पीट-पीट कर मार डाला। एक पत्रकार भी मारा गया। सबसे आगे चल रहा वाहन केंद्र सरकार में गृह राज्यमंत्री का था। ऐसा आरोप है कि इस गाड़ी में सवार लोगों में एक उनका बेटा था।
इस घटना में मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया। मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र का अनुच्छेद 19 कहता है- ‘हरेक व्यक्ति को अपनी राय रखने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, इस अधिकार में बिना किसी दखल के राय रखने की आजादी भी शामिल है..।’ इसी घोषणापत्र के अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि ‘हरेक को शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठा होने और मिलने की स्वतंत्रता है।’
प्रदर्शनकारी किसान शांतिपूर्ण ढंग से जमा हुए थे और उनका मार्च कृषि कानूनों पर राय की अभिव्यक्ति का अधिकार था। इसी घोषणापत्र का अनुच्छेद तीन कहता है कि ‘हर इंसान को जीवन, स्वतंत्रता और व्यक्ति की सुरक्षा का अधिकार हासिल है।’ तेज रफ्तार गाड़ियों ने एक ही झटके में तीन लोगों की जान ले ली। लखीमपुर खीरी में मानवाधिकारों के उल्लंघन की इस घटना पर प्रधानमंत्री आज तक चुप्पी साधे हुए हैं।
कार्यकर्ता आतंकी हैं!
हम 2018 में लौटते हैं और महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव की घटना पर नजर डालते हैं। छह जून 2018 को पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इन सभी पर जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव में जातीय हिंसा भड़काने का आरोप लगाया गया था। इनमें पांच वकील, एक अंग्रेजी की प्रोफेसर, एक कवि और प्रकाशक और दो मानवाधिकार कार्यकर्ता थे। ये सब अभी भी जेल में हैं। इनकी जमानत अर्जी बार-बार खारिज की जाती रही है। (28 अगस्त 2018 को पांच और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था।)
वकील सुरेंद्र गाडलिंग ने साइबर कानून और मानवाधिकार का अध्ययन करने की इजाजत मांगी थी। उनके अनुरोध को खारिज कर दिया गया। अंग्रेजी की प्रोफेसर शोमा सेन को शिकायत के साल भर बाद कोठरी में कुर्सी मुहैया करवाई गई। गठिया के बावजूद उन्हें जमीन पर पतले गद्दे पर सोने को मजबूर किया गया। शुरुआती महीनों में उन्हें अपराधियों के साथ रखा गया। आंतों के अल्सर से पीड़ित मानवाधिकार कार्यकर्ता महेश राउत को उनके परिवार द्वारा लाई गई आयुर्वेदिक दवाइयां नहीं देने दी गईं। कवि और प्रकाशक सुधीर धवाले को उनके सहयोगियों और साथियों से इसलिए नहीं मिलने दिया गया था, क्योंकि वे उनके खून के रिश्ते वाले परिजन नहीं थे।
दो जनवरी, 2021 को एक पत्रकार प्रतीक गोयल ने अपने लेख में भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों के खिलाफ चल रही आपराधिक सुनवाई में कानून के सोलह उल्लंघनों का जिक्र किया था। इसमें बेहद अमानवीय ज्यादतियां देखने को मिलीं। जैसे- बिना वारंट तलाशी और जब्ती, बिना ट्रांजिट रिमांड के कैदी को उठा लेना, कैदी को उसकी पसंद का वकील मुहैया करवाने से इंकार देना, कैदी के अस्पताल का खर्च राज्य द्वारा वहन कर देने से मना कर देना, कैदी को मेडिकल रिपोर्ट देने से इंकार कर देना, गठिया से पीड़ित मरीज को सहूलियत वाला शौचालय मुहैया करवाने से इंकार करना, पूरी आस्तीन के स्वेटर देने से मना कर देना, स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें मुहैया करवाने से इंकार देना, महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बदलने के दो दिन के भीतर ही मनमर्जी से महाराष्ट्र पुलिस से मामले लेकर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (जो केंद्र सरकार के अंतर्गत है और जिसका काम आतंकी गतिविधियों और अपराधों की जांच करना है) के हवाले कर देना, कैदी को अपनी मां के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने के लिए पैरोल देने से मना कर देना, आदि।
सुनवाई से पहले सजा
अन्य बातों के साथ-साथ मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के प्रासंगिक अनुच्छेद यह कहते हैं-
अनुच्छेद 5 : किसी भी व्यक्ति को यातना या कू्रर, अमानवीय या गरिमा को कम करने वाला व्यवहार या सजा नहीं दी जाएगी।
अनुच्छेद 9 : किसी को भी मनमर्जी से गिरफ्तार या हिरासत में नहीं लिया जाएगा, या निर्वासित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 10 : किसी भी व्यक्ति को अपने पर लगाए गए आरोपों के संबंध में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष पंचाट में निष्पक्ष और सार्वजनिक सुनवाई का पूर्ण समानता का अधिकार है।
अनुच्छेद 11 : दंडनीय अपराध से आरोपित व्यक्ति को यह अधिकार दिया जाता है कि जब तक वह सार्वजनिक सुनवाई में कानून के अनुसार दोषी साबित न हो जाए, तब तक उसे निर्दोष माना जाए…
जहां तक मेरी जानकारी है, पिछले तीन सालों में प्रधानमंत्री ने भीमा कोरेगांव के कैदियों के मानवाधिकारों के बारे में एक शब्द नहीं बोला है, न ही अपने मातहत आने वाली एनआइए द्वारा आरोपपत्र पेश करने में की जा रही देरी के बारे में। यह कहने की जरूरत नहीं कि सुनवाई अभी तक शुरू नहीं हुई है। मैं प्रधानमंत्री से पूरी तरह सहमत हूं, जब वे यह कहते हैं कि इस तरह की मानसिकता मानवाधिकार को भारी नुकसान पहुंचाती है।