हमारे समय की विडंबना है कि साधारण असाधारण हो जाता है। एक संसदीय लोकतंत्र में जज और वकील, सांसद और विधायक, और मंत्री तथा नौकरशाह जानते हैं कि वास्तविक शक्ति किसमें निहित है। यह निहित है निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में, जो अपने बीच से, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनते हैं। राज्यपाल या उपराज्यपाल के पद की चाहे जितनी प्रतिष्ठा हो, पर वे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से काम करने को बाध्य हैं। ‘सहायता और सलाह’- यह पद प्रतिनिधिमूलक सरकार की आधारशिला है। जहां कहीं भी ऐसा होता है, वहां इसमें दो राय नहीं कि जो व्यक्ति सहायता और सलाह दे रहा है वास्तविक सत्ता उसी के हाथ में है, और जो सहायता व सलाह ले रहा है वह नाममात्र का प्रमुख है। यह सिद्धांत इतना मान्य है कि जो कोई इससे एकदम विपरीत नजरिया रखता है वह वास्तव में बहाने कर रहा है।
कोई अस्पष्टता नहीं
भारत के संविधान का अनुच्छेद 239 एए (4), (जो कि दिल्ली के संबंध में एक विशेष प्रावधान है) एकदम स्पष्ट रूप से यह व्यवस्था देता है कि ‘‘एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसके मुखिया मुख्यमंत्री होंगे, वह मंत्रिपरिषद उपराज्यपाल को सहायता और सलाह देगी कि अपने कार्यों का निष्पादन कैसे करें…’’ नजीब जंग और अनिल बैजल नौसिखिया नहीं थे। वे आइएएस और अनुभवी प्रशासक थे। इसके अलावा, जंग कई साल तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कुलपति रह चुके थे। अनिल बैजल अपने कैरियर में केंद्रीय गृह सचिव समेत कई महत्त्वपूर्ण पद संभाल चुके थे और दिल्ली सरकार से उनका साबका रहा था। दोनों खूब अच्छी तरह जानते थे कि वे दिल्ली के उपराज्यपाल के तौर पर क्या कर रहे हैं; अगर वे एक खास ढंग से कार्रवाई कर रहे थे, तो इसके पीछे उनका अज्ञान नहीं था, बल्कि इसकी वजह उनकी अधीनता थी। उन्होंने ब्रिटिश राज के वाइसराय की तरह व्यवहार किया, और इस प्रक्रिया में, प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को चोट पहुंचाई।
हर दलील खारिज
केंद्र सरकार और भाजपा के प्रवक्तागण अब कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने किसी नए कानून को स्थापित नहीं किया है बल्कि पुरानी कानूनी स्थिति को दोहराया भर है। अगर यह बात सही है, तो तार्कि क निष्कर्ष यह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया) गलत और कानूनी दृष्टि से बेतुका था। फिर केंद्र सरकार से पूछिए कि वह सुप्रीम कोर्ट के सामने एक गलत फैसले का पुरजोर बचाव क्यों करती रही? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि प्रवक्तागण और ब्लाग लिखने वाले इस सवाल का जवाब देने की कृपा नहीं करेंगे! सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि दिल्ली सरकार को तीन विषयों- जमीन, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था- को छोड़ बाकी सब मामलों में विधायी और प्रशासनिक शक्तियां हासिल हैं। केंद्र सरकार की एक भी मुख्य दलील अदालत ने मंजूर नहीं की, सारी दलीलें खारिज कर दी गर्इं:
सरकार का यह दावा कि ‘‘दिल्ली के संबंध में प्रशासन का अंतिम अधिकार अपने प्रशासक के जरिए राष्ट्रपति के पास है’’- खारिज हो गया।
सरकार का यह दावा कि ‘‘हालांकि अनुच्छेद 239 एए दिल्ली विधानसभा को सातवीं अनुसूची की दूसरी और तीसरी सूची में दिए गए विषयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार देता है, फिर भी उक्त अधिकार उसी अनुच्छेद के द्वारा सीमित है’’- खारिज हो गया।
सरकार का यह दावा कि ‘‘केंद्रशासित प्रदेश के शासन के लिए उपराज्यपाल उत्तरदायी हैं, न कि मंत्रिपरिषद’’- खारिज हो गया।
सरकार का दावा कि ‘‘यह सिद्धांत कि…जहां कहीं विधायी शक्ति मौजूद है, प्रशासनिक अधिकार उससे संबद्ध है, केवल केंद्र और राज्यों पर लागू होता है, यह केंद्रशासित क्षेत्रों पर लागू नहीं होता’’- खारिज हो गया।
सरकार का यह दावा कि ‘‘मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह उपराज्यपाल के लिए बाध्यकारी नहीं है’’- खारिज हो गया।
सरकार का यह दावा कि ‘‘अनुच्छेद 239 एए (4) में जहां ‘कोई भी विषय’ पद का इस्तेमाल किया गया है उसका अर्थ हरेक मामले से करना होगा’’- खारिज हो गया।
नेपथ्य से नियंत्रण
अधिकारों की खींचतान में हार जाने के बाद, अविवेकी केंद्र सरकार घुमाव-फिराव के ढंग से जीतने की कोशिश कर रही है। उसका कहना है कि ‘सेवाएं’ (यानी अफसरों की नियुक्तियां, तबादले और तैनातियां) उपराज्यपाल के ही नियंत्रण में रहेंगी। दिल्ली सरकार से एक और भिड़ंत के लिए केंद्र सरकार उपराज्यपाल को सिर चढ़ा रही है, और अनिल बैजल ने फैसले के बाद पहला वार किया, जब उन्होंने तीन वरिष्ठ अधिकारियों के तबादले और तैनाती के आदेश जारी किए। मेरे खयाल से, अनिल बैजल गलत थे और उनकी गलत कार्रवाई यह साबित करती है कि वे भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार के कहने पर चल रहे हैं। हाल के ब्लागों से यह खुलासा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार की दलीलों के पीछे कई और लोगों के साथ ही अरुण जेटली की प्रेरणा थी। संविधान पीठ के सर्वसम्मत फैसले को दरकिनार करते हुए जेटली ने एक और कानूनी लड़ाई ‘सेवाओं’ पर नियंत्रण के मुद्दे पर छेड़ दी है। अपने ब्लाग में उन्होंने लिखा ‘‘यह धारणा कि केंद्रशासित क्षेत्र का सेवा विभाग दिल्ली सरकार के हाथ में दे दिया गया है, पूरी तरह भ्रांतिपूर्ण है।’’ क्या जेटली यह कहना चाहते हैं कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार प्रशासनिक अधिकारों का इस्तेमाल कर सकती है, लेकिन जिन अधिकारियों को उत्तरदायित्वों का पालन करना है उन पर उसका कोई अधिकार नहीं होगा?यह दलील शायद ही किसी के गले उतरे। पर किसी दिन कोई और फैसला भी आ सकता है।