महेंद्र राजा जैन

फिल्म निर्माताओं को राहत देते हुए पिछले दिनों फिल्म सेंसर बोर्ड की सात घंटे तक चली बैठक में सदस्यों ने इस बात पर जोर दिया कि बोर्ड के अध्यक्ष द्वारा फिल्म निर्माताओं को अंगरेजी और हिंदी के अट्ठाईस अवांछित शब्दों की सूची बना कर भेजना ही नहीं, बल्कि यह सूची बनाना भी उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात थी। गौरतलब है कि तेरह फरवरी को फिल्म सेंसर बोर्ड के नए अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने अंगरेजी और हिंदी के अट्ठाईस ऐसे अवांछित शब्दों की सूची सभी क्षेत्रीय कार्यालयों को भेजी थी, जिनके प्रयोग पर वे फिल्मों में रोक लगाना चाहते हैं। उनके इस फतवे का सभी सदस्यों ने यह कह कर विरोध किया कि इस संबंध में उनकी राय नहीं ली गई थी और ऐसा करना बोर्ड के अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात है। उनका कहना था कि बोर्ड किसी भी बात की केवल संस्तुति कर सकता है, वैधानिक दृष्टि से केवल कुछ बदलने की संस्तुति करता है और संस्तुति मंत्रालय को भेजी जानी चाहिए।

अपने निर्णय के पक्ष में अध्यक्ष पहलाज निहलानी का अपना तर्क है कि ‘फिल्मों में गाली-गलौज की भाषा के प्रयोग का लाखों-करोड़ों लोगों/दर्शकों, विशेषकर बच्चों, पर विपरीत प्रभाव तो पड़ता ही है, उनके दिन-प्रतिदिन का आचरण भी इससे प्रभावित होता है।’ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे आजकल के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा और सशक्त माध्यम फिल्में ही हैं, पर उन्होंने चुने-चुनाए अट्ठाईस शब्दों की जो सूची बनाई है उसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता। पहली बात तो यही है कि इन दोनों ही भाषाओं में इन तथाकथित अ्ठाईस अवांछित शब्दों (जैसे हरामजादा, हरामी, हराम का पिल्ला, कुतिया, रांड, रंडी, रखैल, साली, मारना, लेना देना, बजाना आदि) के अतिरिक्त ऐसे और भी सैकड़ों शब्द हैं जिनका फिल्मों के साथ ही हमारे दैनिक जीवन में भी धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है। क्या फिल्मों में उनका प्रयोग किया जाता रहेगा? क्या उससे दर्शक, विशेषकर बच्चे, प्रभावित नहीं होंगे?

इस बात की भी क्या गारंटी है कि पहलाज निहलानी की अट्ठाईस शब्दों की इस सूची में बाद में और भी शब्द शामिल नहीं किए जाते रहेंगे। और हो सकता है कभी वह स्थिति भी आए जब इन्हीं शब्दों को लेकर सेंसर बोर्ड की कैंची पिछले सेंसर बोर्ड द्वारा पास की जा चुकी फिल्मों पर भी चल सकती है। और इन फिल्मों में उन फिल्मों को भी रखा जा सकता है जो कुछ महीनों या वर्ष पहले सेंसर बोर्ड से पास की जा चुकी हैं और किसी कारण अभी तक रिलीज नहीं हो पाई हैं। वर्तमान सेंसर बोर्ड इन आपत्तिजनक शब्दों को हटाने के लिए उन्हें वापस मंगा सकता है। सबसे अधिक हास्यास्पद बात तो यह है कि निहलानी के फतवे के अनुसार फिल्मों में ‘बम्बई’ का प्रयोग न कर ‘मुंबई’ का प्रयोग किया जाए।

सेंसर बोर्ड का काम फिल्मों की विषयवस्तु देख कर उन्हें प्रदर्शन का प्रमाणपत्र देना है। अगर वह समझता है कि किसी फिल्म में कुछ आपत्तिजनक शब्द हैं, तो उसके पास यह विकल्प तो है ही कि फिल्म के कथानक और उसके परिप्रेक्ष्य में उन शब्दों के प्रयोग पर विचार करे, यह देखे कि फिल्म का पात्र जिस पृष्ठभूमि का है, क्या वह शब्द उसकी पृष्ठभूमिसे मेल खाता है।

अगर सेंसर बोर्ड मानता है कि फिल्म के कथानक के अनुसार कोई शब्द उपयुक्त है, तो अन्य दृष्टि से आपत्तिजनक होते हुए भी उसके प्रयोग पर रोक नहीं लगाईं जानी चाहिए। हां, वैसी स्थिति में दर्शकों की उम्र के अनुसार फिल्म को अ या व/अ प्रमाणपत्र दिया जा सकता है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कभी-कभी फिल्म निर्माता फिल्म की मार्केट वैल्यू बढ़ाने के लिए फिल्म में कुछ इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हैं, जबकि कथानक की दृष्टि से उन शब्दों का प्रयोग आवश्यक नहीं होता। ऐसी स्थिति में सेंसर बोर्ड फिल्म निर्माता को वे शब्द हटाने के लिए कह सकता है।

ऐसा पहले भी कई बार हुआ है, पर इस बात का कोई औचित्य समझ में नहीं आता कि सेंसर बोर्ड पहले से ही किन्हीं शब्दों की सूची तैयार कर उन्हेंअवांछित करार दे। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष स्वयं फिल्म निर्माता हैं। अत: वे यह बात अच्छी तरह समझते हैं और फिल्म उद्योग में रचनात्मक स्वातंत्र्य का महत्त्व भी जानते हैं। फिर भी उन्होंने क्या सोच कर और सेंसर बोर्ड के सदस्यों की राय लिए बिना तथाकथित अवांछित शब्दों की सूची बना कर सभी फिल्म निर्माताओं के पास तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए भेज दी? इसका उत्तर उन्हें स्वयं देना चाहिए। इस संदर्भ में प्रसिद्ध फिल्म निर्माता महेश भट््ट का कहना है कि हमें यह देख कर आश्चर्य होता है कि कभी-कभी हमारे अपने लोग ही इस प्रकार की वाहियात हरकतें करते हैं। खुशी की बात है कि यह दु:स्वप्न अब समाप्त हो चुका है।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta