इंटरनेट ने एक मुकम्मल बाजार के उभार की पृष्ठभूमि तैयार की है। कई अर्थों में एक व्यापक जनसमूह का इंटरनेट से जुड़ाव इस बाजार के उत्पादों के आकर्षण से ही संभव हुआ है। शुरू में यह जुड़ाव जनसंपर्क तक सीमित था, जिसमें मुख्य रूप से याहू, रेडिफ और गूगल अपने ‘जीमेल’ के साथ इस पूरे परिदृश्य को संचालित करते रहे। मगर आम जनसमूह का इस पर ध्यान नहीं जाता था और वह इनसे मिलने वाले मुफ्त लाभों को पाकर ही संतुष्ट हो जाता था। मसलन, मेल के जरिए संपर्क, फोटो, प्रपत्र संलग्न करने की सुविधा के अलावा आडियो-वीडियो चैट आदि। इस प्रतिस्पर्धा में गूगल अपने विभिन्न माध्यमों के साथ फिलहाल सर्वाधिक प्रभावशाली समूह है।
इसके बाद इंटरनेट ‘आपसी संपर्क’ के साथ-साथ ‘व्यापक जनसंचार’ की आकांक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य पर केंद्रित होता चला गया। गूगल का ही एक माध्यम ‘आॅरकुट’ था, जिसे बाजार के चरित्र के अनुसार फेसबुक के आगे हारना पड़ा। इसके बाद फेसबुक का विस्तार इस भ्रम के साथ होने लगा कि यह लोकतंत्र का संरक्षक है। भारत सहित विश्व के कुछ देशों के छोटे-बड़े आंदोलनों में फेसबुक और ट्वीटर जैसी कुछ सोशल नेटवर्किंग साइटों का अपने प्रसार के लिए उपयोग क्या बढ़ा कि इनके लोकतंत्र का संरक्षक होने का भ्रम यथार्थ में बदलने लगा।
हालांकि यह सही है कि कुछ जनांदोलनों, सार्वजनिक अभियानों, राजनीतिक गतिविधियों में सोशल नेटवर्किंग साइटों की भूमिका थी और आज भी वैकल्पिक गतिविधियों की एक शरणस्थली के रूप में इनको याद किया जा रहा है, पर इस तरह का प्रयोग सोशल नेटवर्किंग साइटों के लिए प्रत्युत्पाद की तरह है, यह उनका मूल उद्देश्य कभी नहीं रहा। यह तो इंटरनेट के उपभोक्ताओं की कुशलता है कि इन साइटों का उपयोग अपने विभिन्न अभियानों के लिए जनसमर्थन जुटाने के लिए कर पा रहे हैं।
हालांकि यहां इंटरनेट आधारित क्रांतियों के स्वरूप के दूसरे पक्ष पर भी विचार किया जाना चाहिए, जहां सत्ता के प्रति जनाक्रोश महज कुछ सुविधाजनक टिप्पणियां पोस्ट करने, पसंद करने और पेज बनाने तक सीमित होकर रह जाता है, वह कंप्यूटर या मोबाइल के की-पैड के दायरे में ही समाप्त हो जाता है। ध्यान रहे कि ऐसे प्रतिरोधों का तेवर सत्ताओं के लिए तुलनात्मक रूप से सुविधाजनक ही होता है, क्योंकि इसमें सड़क पर आमने-सामने होने की स्थिति नहीं होती। वैसे भी लोकतंत्र में किसी व्यावसायिक मीडिया का स्वामी लोकतंत्र का संरक्षक नहीं हो सकता। चूंकि लोकतंत्र में लोक का हितैषी दिखते रहना भी एक बाजार है, इसलिए इन स्वामियों की चिंता लोकतांत्रिक पक्षधरता की प्रतिस्पर्धा में खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास मात्र होता है। इसकी परिणति में कोई मीडिया-प्रमुख यानी पूंजीपति कुछ कम या अधिक लोकतंत्र समर्थक दिख जाता है, जबकि उनकी मूल चिंता व्यापक लोगों तक पहुंचने, उस पर आधारित विज्ञापनी व्यवस्था में अपने हित साधने मात्र की होती है।
ऐसे में फेसबुक के मालिक जुकरबर्ग के ‘फ्री बेसिक्स’ नामक अभियान की शुरुआत और अनेक जनसरोकारी उद्देश्यों को सामने रख कर उसे धार देने की जो कोशिश दिखी है, उसे भारत में लोकतंत्र का हितैषी और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम कहना हास्यास्पद है। यह कितना विरोधाभाषी है कि जो बाजार पूरे समाज को महज उपभोक्ता मानता हो, उसे आज मानवाधिकार की चिंता हो रही है। असल में फेसबुक की यह पूरी पहल संभावित स्मार्टफोन आधारित इंटरनेट के बाजार पर वर्चस्व की नियोजित तैयारी है। इस पर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार का मुलम्मा चढ़ाना, लोकतांत्रिक और जन-हितैषी दिखने का कुचक्र मात्र है।
इंटरनेट एक माध्यम मात्र है। इस पर उपलब्ध कोई ऐप या वेबसाइट समाज के भूख, रोग और अशिक्षा को दूर नहीं कर सकता। मगर जुकरबर्ग के दावे से ऐसा लग रहा है, मानो उन्हें भारत की गरीबी की सबसे अधिक चिंता है। जो फेसबुक भारतीय करों के भुगतान से लगातार बचता रहा हो, वह गरीबों का चिंतक कैसे हो सकता है!
दरअसल, भारत इंटरनेट का बड़ा संभावित बाजार है। 2011 में मैकिनसे द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि विकसित देशों के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ में अंतिम पंद्रह वर्षों में इंटरनेट आधारित बाजार का योगदान दस प्रतिशत था, जबकि अंतिम पांच वर्षों में यह आंकड़ा इक्कीस प्रतिशत हो गया। इसकी पूरी संभावना युवा भारत में इसलिए भी है कि देश की छियासी प्रतिशत से अधिक आबादी के पास मोबाइल फोन है, जो तेजी से स्मार्टफोन में परिवर्तित हो रहा है, जहां इंटरनेट सहज उपलब्ध हो जाएगा और यहीं पर फेसबुक को अपने प्रतिस्पर्धी और अब तक ‘इंटरनेट के द्वारपाल’ गूगल को पीछे छोड़ने की मंशा है।
भारत के अलावा फेसबुक ने इस अभियान के लिए जिन देशों पर ध्यान केंद्रित किया है, वे अधिकतर विकासशील देश हैं और वहां मोबाइल केंद्रित इंटरनेट के बाजार की बड़ी संभावना है। इसके लिए फेसबुक सैकड़ों करोड़ रुपए महज ‘फ्री बेसिक्स’ नामक अभियान के प्रचार पर खर्च कर रहा है, जबकि इसके सर्वर आज तक भारत में नहीं स्थापित हो पाए हैं।
फेसबुक के इस अभियान के लिए भारतीय परिस्थितियां अनुकूल दिख रही हैं, क्योंकि सरकार ने ‘डिजिटल इंडिया’ नामक जिस अभियान की शुरुआत की है, उसकी सफलता की अनिवार्यता के खांचे में फेसबुक खुद को दिखाने का पूरा प्रयास करेगा। पिछले दिनों भारतीय प्रधानमंत्री का अपने मुख्यालय में गर्मजोशी से स्वागत करके फेसबुक ने भारतीय जनता के बीच नैतिक बढ़त हासिल करने का भरपूर प्रयास किया। फेसबुक की मंशा के सफल होने का डर इसलिए भी है कि भारत सरकार कुछ रोजगार पा जाने के लोभ में देश के भीतर इनसे सर्वर स्थापित कराने और उचित कर आदि वसूलने का काम अभी तक नहीं कर पाई है। यहां सरकार की मुख्य चिंता देश की व्यापक जनता होनी चाहिए, जिसे वास्तव में अभी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की आवश्यकता है, न कि महज ‘डिजिटल छलावा’।
इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए कि देश के व्यापक समाज की स्थिति सुधारने के लिए फेसबुक जैसे किसी डिजिटल उत्पाद की कितनी आवश्यकता है? क्या अभी देश में शैक्षिक और मानसिक परिपक्वता के अभाव में इसका दुरुपयोग नहीं हो रहा है? क्या ‘सिटीजन’ और ‘नेटिजन’ के बीच तेजी से बढ़ रही खाई से वंचित तबके में कुंठा नहीं पैदा हो रही है? इन परिस्थितियों में रोटी मांग रही जनता को रोटी देने के लिए गंभीरता से विचार होना चाहिए, न कि रोटी बनाने के तरीके सिखाने वाले किसी ‘ऐप’ की।
समाज का डिजिटलीकरण समय के साथ धीरे-धीरे देश की आंतरिक अवस्थाओं की शर्त पर होना चाहिए। यह काम किसी व्यावसायिक कंपनी के भरोसे कतई नहीं हो सकता। इसके लिए सरकारों को अपने स्तर पर प्रयास करना चाहिए। सरकार ने फेसबुक को यह खुली छूट कैसे दे दी कि वह खुले विज्ञापनों से देश की जनता को बरगला रहा है और वह ‘ट्राई’ पर बढ़त बनाने की जुगत में है? जबकि देश आज अपने जनसांख्यिकीय संसाधन की जिस स्थिति में है, वहां सरकार को ऐसी कंपनियों के विस्तार के लिए लोक-केंद्रित शर्त तैयार करनी चाहिए।
असल में इंटरनेट की स्थिति उस गंगा के समान हो सकती थी, जिसका व्यापक हित में उपयोग हो सकता था, लेकिन फेसबुक और गूगल जैसे कुछ खिलाड़ी इसे अपनी संपत्ति समझ बैठे हैं। फेसबुक का यह प्रयास गंगा पर बांध की तरह होगा, जिसके जरिए वह इंटरनेट को अपनी व्यापक पहुंच के आधार पर नियंत्रित करने का प्रयास करेगा। यह पूरा खेल विकेंद्रित संसाधन के केंद्रीकृत उपयोग का है, जिसमें दोहन अंतत: आमजन का ही होगा।