एक से एक विशेषज्ञ समझाए जाते हैं कि भीड़ से बचना है। चश्मा पहने रहना है। नाक कान कुछ न छुएं। घर में आएं तो बीस सेकेंड तक हाथ धोते रहें। हाथों में डॉक्टरों वाले दस्ताने पहनें। खाली हाथ किसी सार्वजनिक जगह को न छुएं, जैसे रेलिंग, दरवाजों के हैंडिल, टोंटी, चाबी, मोबाइल। सबको सेनिटाइज करें। पैकेट और सब्जियां धोएं, लेकिन ‘डरना’ नहीं है! कमाल की बात करते हो विशेषज्ञ जी! पहले देर तक डराते हो और फिर कहते हो ‘डरना नहीं है!’
चैनलों में कोरोना-प्रतियोगिता है : एक चैनल कहता है कि कोरोना का ‘कर्व’ सपाट हो रहा है, तो दूसरा कहता है कि कहीं हम ‘सामुदायिक संक्रमण’ में तो नहीं जा रहे हैं?एक चैनल चहकता है कि इजरायल ने टीका बना लिया है, तो दूसरा डब्ल्यूएचओ के अधिकारी से कहलवाता है कि अभी कोई टीका नहीं बना। एक चैनल में स्वयं ट्रंप जी, इबोला के काम न आ सकी दवा ‘रेडिसिविर’ को कोरोना से बचने के लिए बेचने लगते हैं और जापान तुरंत खरीदने लगता है।
इन दिनों डर सबसे बड़ा कारोबार है! एक बड़ा डॉक्टर एक चैनल पर आकर डराने लगता है कि संक्रमण जून-जुलाई में ‘चरम’ पर आएगा! इन्हीं दिनों कुल संक्रमितों की संख्या छप्पन हजार हो चुकी है। कुछ चैनल बेघर हुए दिहाड़ी मजदूरों की दुर्दशा दिखाते हैं, ताकि सरकारें ध्यान दें! जब कुछ सरकारों ने ऐसे मजदूरों को ले जाने के लिए ट्रेनें चलाने की बात की, तो एक चैनल ही श्रेय लूटने आ जुटा कि देखा, हमने कहा तो ऐसा हुआ!
कांगे्रस ने तुरंत आरोप लगाया कि मजदूरों से किराया लिया जा रहा है, जिस पर केंद्र सरकार को जवाब देना पड़ा- किराए का पचासी फीसद हिस्सा केंद्र देगा और पंद्रह फीसद राज्य देंगे।
लेकिन मजदूरों के कष्टों का कोई अंत नहीं। कुछ ट्रेनें कुछ को लेकर गर्इं। एक राज्य ने जितनी कही उससे कम चलार्इं। दूसरा राज्य कहने लगा कि जिनके पास ‘संक्रमणमुक्त’ का प्रमाणपत्र है वही आ सकते हैं। इन गरीबों की लाचारी का कोई अंत नहीं!
और मौत की खबरें, वे तो मानो बरसती हैं : एक दिन विशाखापट्टनम के एक पॉलीमर कारखाने से जहरीली गैस स्टाइन के रिसने से ग्यारह लोग तुरंत मर जाते हैं और हजारों का दम घुटने लगता है।… लोग सड़क पर चलते-चलते अचानक गिरते दिखते हैं। शाम को चैनल चर्चाएं भोपाल गैस त्रासदी से होती हुई इसी निराशा में खत्म होती हैं कि हमने भोपाल से कुछ नहीं सीखा और न सीखेंगे।
और, उन सोलह मजूदरों की विडंबना को क्या कहें, जो पैदल अपने गांव जाने को निकले, जब बुरी तरह थक गए, तो अनजाने औरंगाबाद में रेल की पटरी पर ही सो गए और रात वाली ट्रेन के नीचे आ गए। चैनलों के कैमरे ट्रैक पर बिखरी रोटियों और कपड़ों को ज्यों ज्यों दिखाते हैं, कलेजा मुंह को आता है। ‘तालाबंदी’ के कारण बेघर और बेरोजगार हुए गरीबों को सरकारों द्वारा घर ले जाने के दावों पर यह घटना सबसे बड़ा धब्बा है!
एक दिन एक चैनल सोशल मीडिया के हवाले से मुंबई के सियन अस्पताल में, संक्रमितों के वार्ड में प्लास्टिक में लिपटी रखी कुछ लाशों की रिपोर्ट देता है और राज्य सरकार की सारी धज उतर जाती है।
इतने पर भी कई मुख्यमंत्री कई चैनलों पर लंबे-लंबे प्रायोजित फीचर देते रहते हैं कि उन्होंने कोरोना को हराने के लिए अपने राज्य में क्या क्या कमाल किए हैं! इस संकट में भी ये महानुभाव अपने ‘कर्तव्य’ को ‘अहसान’ की तरह दिखाते हैं, लेकिन सड़कों पर बेहाल चलते गरीब लोग ऐसे फीचर की सारी पोल खोलते रहते हैं!
अब इसे विडंबना न कहें तो क्या कहें कि एक ओर एक दिन अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीजों की देखभाल करने वाले डॉक्टरों, नर्सों और अन्य परिचारकों के ऊपर पुष्पवर्षा करते दिखते हैं, वहीं दूसरी ओर उसी दिन हंदवाड़ा में कुछ आतंकवादियों से लड़ते कुछ सैनिक अफसर शहीद हो जाते हैं।
इसके आगे के सीन ‘दारूकुट्टों’ के रहे। दिल्ली सरकार ने दारू की दुकानें खोलने का ज्यों ही ऐलान किया त्यों ही दारूकुट्टों ने सिद्ध कर दिया कि उनके लिए कोई कोरोना-वोरोना नहीं है। दुकानों के आगे तीन तीन किलोमीटर लंबी लाइनें लगती दिखीं और सारी ‘सोशल डिस्टेसिंग’ की ऐसी की तैसी होती दिखी।
एक एंकर ने अवश्य इन दिनों की बिडंबना को पकड़ा और शीर्षक दिया- ‘मदिरा बनाम माइगें्रट्स’ और ‘दारू पर दंगल’ को जम के दिखाया, लेकिन सारी बहस के बाद नतीजा यही निकला कि मदिरा की दुकान खोलना जरूरी है, क्योंकि मदिरा बिकेगी तो राज्य की आमदनी बढ़ेगी, तभी तो प्रवासियों की मदद हो सकेगी।
और भैये! अगले रोज सत्तर फीसद एक्साइज बढ़ाया, तो भी लाइनें कम न हुर्इं! वाह रे हमारे मध्यवर्ग की हमदर्दियां कि दारू ही कोरोना की दवा हो गई।
लगता है, ‘तालाबंदी’ करना आसान था, उठाना मुश्किल है! ‘तालाबंदी’ उठाएं तो किस तरह कि संक्रमण काबू में रहे और काम-धंधा भी चले! सलाहकार अपने-अपने पैकेज के साथ हाजिर हैं!
अपने राहुल भैया भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पैकेज देते दिखे कि मैं आलोचना करने नहीं आया, सुझाव देने आया हूं कि ‘तालाबंदी’ हटाने से पहले पीएम लोगों के दिलों से ‘तालाबंदी’ का डर दूर करें, क्योंकि लोगों में डर बैठ गया है, जबकि सच्चाई यह है कि सिर्फ एक-दो फीसद को ही संक्रमण खतरनाक है, बाकी को नहीं।
यानी, जो डर गया वो मर गया!
