मतभेद के बिना लोकतंत्र को कायम रखना असंभव है। मतभेद ही वह चीज है, जो लोकतंत्र को सुरक्षित रखती है। इस बात को कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन पिछले कुछ महीनों से ऐसा माहौल बन गया है देश में कि जब पिछले हफ्ते न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड ने यह बात कही तो ऐसा लगा जैसे याद दिलाना चाहते थे जज साहब हमको कि लोकतंत्र का प्राथमिक सिद्धांत मतभेद ही है। जज साहब ने पहले अपनी बात रखी गुजरात में एक भाषण देकर और उसके बाद टाइम्स आॅफ इंडिया अखबार में इसी बात को विस्तार से कहा एक लेख में। इस लेख में उन्होंने याद इस बात की भी दिलाई कि भारत में हमेशा विविधता रही है और यह विविधता ही हमारी ताकत है।
विविधता भारत की पहचान रही है सदियों से, लेकिन हाल में इस विविधता को खतरा दिखने लगा है उस अति उग्र राष्ट्रवाद से, जो कुछ सिरफिरे हिंदुत्ववादियों ने फैलाना शुरू किया है राष्ट्रवाद के नाम पर। शुरुआत इस किस्म के ‘राष्ट्रवाद’ की हुई थी नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में गोरक्षा के बहाने। पहल महाराष्ट्र सरकार ने की थी गोमांस पर प्रतिबंध लगा कर। याद है मुझे कि कैसे अचानक मुंबई के रेस्तरां और पांच सितारा होटेलों से गोमांस गायब हो गया था और फिर कैसे किसी जैन त्योहार के बहाने मांस की दुकानों को बंद करवा दिया गया था, बिना इसका ध्यान दिए कि इस कदम का सीधा वार था मुसलमानों की रोजी-रोटी पर। महाराष्ट्र की नकल करके उन तमाम राज्यों में गोमांस को लेकर हंगामा होने लगा, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें थीं।
इस मुहिम ने हिंसक रूप तब ले लिया जब दादरी के बीसाहड़ा गांव में मोहम्मद अखलाक को पीट-पीट कर मारा गया सिर्फ इसलिए कि मारने वाली हिंसक भीड़ को शक था कि उसके घर के फ्रिज में गाय का गोश्त रखा हुआ था। देखते-देखते यह हाल हो गया कि मुसलमानों ने पशुपालन ही छोड़ दिया डर के मारे। और दलितों ने भी गाय और गोश्त से जुड़े काम छोड़ दिए। खाने-पीने की विविधता पर शुरू हुआ यह आक्रमण बढ़ कर अगले पड़ाव तक जा पहुंचा, जब लिबास के कारण जुनैद नाम का सत्रह बरस का लड़का दिल्ली की एक ट्रेन में मारा गया, सिर्फ इसलिए कि उसने ‘मुसलिम’ लिबास पहना हुआ था। ईद अगले दिन थी और यह युवक दिल्ली आ रहा था त्योहार के लिए खरीदारी करने।
मोदी के पहले दौर के आखिरी दिनों में तबरेज अंसारी को एक भीड़ ने पीट-पीट कर मारा, उससे ‘जय श्रीराम’ बुलवाते हुए। फिर आई ‘भारत माता की जय’ कहलाने की बारी। मकसद था यह साबित करना कि जो नहीं कहते हैं वे देश के गद्दार हैं। चलते-चलते यहां तक आ गए हैं हम, जहां आम मुसलमान को महसूस होने लगा है कि उसकी पहचान, उसकी अलग सभ्यता को खतरा है। हजारों की तादाद में अगर सड़कों पर उतर आए हैं मुसलिम तो इसीलिए। सो, जब नागरिकता कानून में संशोधन ऐसा लाया गया, जिसका आधार था मजहब, तो उनको विश्वास हो गया कि इस कानून से उनकी नागरिकता को खतरा है। बहुत बार कह चुके हैं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कि इस संशोधन से किसी भी भारतीय मुसलमान से उसकी नागरिकता नहीं छीनी जाएगी, लेकिन मुसलमानों के लिए सरकार पर विश्वास करना मुश्किल हो गया है।
सो, धरने पर बैठी रही हैं मुसलिम महिलाएं शाहीन बाग में दो महीनों से और देश के कई शहरों में शाहीन बाग बन गए हैं। नतीजा यह कि प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि कोई संयोग नहीं है कि ऐसा हो रहा है, इसमें उनको प्रयोग दिखता है। इस इशारे को समझ कर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रोज टीवी पर कहते हैं कि इस विरोध प्रदर्शन के पीछे दिखता है पाकिस्तान का हाथ। सच तो यह है कि जो लोग विरोध कर रहे हैं इस कानून का, उनको खतरा दिखने लगा है भारत की विविधता को। उनको चिंता होने लगी है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र बनने जा रहा है, जिसमें सिर्फ वे मुसलमान रह पाएंगे, जो स्वीकार करने को तैयार हैं कि वे दूसरे दर्जे के नागरिक होंगे।
माहौल इतना बिगड़ गया है कि राजनीतिक पंडितों को भी चिंता होने लगी है भारत के भविष्य को लेकर। इस चिंता के बारे में जब विदेशी पत्रकार अपने अखबारों में लिखते हैं, तो भारत सरकार को सख्त आपत्ति होती है। कश्मीर के हालात के बारे में जब न्यू यॉर्कर पत्रिका में डेक्स्टर फिल्किंज नाम के पत्रकार ने लेख लिखा, तो उसको दुबारा वीजा नहीं मिला भारत आने के लिए। ऐसा ही पिछले हफ्ते ब्रिटेन की एक सांसद के साथ हुआ। दिल्ली एयपोर्ट से ही उसे वापस दुबई भेज दिया गया, सिर्फ इसलिए कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर उसने सवाल किए थे।
ऐसे माहौल में जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश से हम सुनते हैं कि मतभेद के बिना लोकतंत्र को कायम नहीं रखा जा सकता, तो खतरे की घंटी सुनाई देनी चाहिए हमारे शासकों के कानों में। जब जज साहब आगे कहते हैं कि भारत की ताकत है उसका बहुलतावाद, तो और भी ध्यान से सुनना चाहिए हम सबको। इस बहुलतावाद पर हमको गर्व होना चाहिए, क्योंकि यह सदियों से हमारी पहचान रहा है। शायद यही कारण है कि हमारी एकता, अखंडता और प्राचीन संस्कृति को कोई मिटा नहीं सका है आज तक। अल्लामा इकबाल के शब्दों में : कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा। यूनान, मिस्र, रूमा अब मिट गए जहां से, अब भी मगर है बाकी नामो-निशां हमारा।