आखिरकार रिजर्व बैंक ने सरकार, कारोबारी समुदाय और बहुतेरे अर्थशास्त्रियों की अपेक्षाएं पूरी करते हुए रेपो रेट में पचास आधार अंकों की कटौती कर दी। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन एक हीरो की तरह सराहे गए। अगर रिजर्व बैंक ने मात्र पच्चीस आधार अंकों की कटौती की होती, या वह कोई कटौती न करता, तब भी वे इसी तरह सराहे जाते। ऐसे अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं, जो दोनों में से किसी भी फैसले का समर्थन करते। बैंकों के मुखियागण तो, निर्णय कुछ भी हो, उसका समर्थन ही करेंगे; रिजर्व बैंक उनका नियामक जो है!
इसे रिजर्व बैंक के फैसले की आलोचना न समझा जाए। मेरी राय में यह सही फैसला था, और मैंने तुरंत इसका स्वागत किया। मुझे यह भी लगा कि यह काफी पहले होना चाहिए था- कम से कम दो से चार तिमाही पहले- और हो सकता है देरी के चलते वृद्धि दर को थोड़ा नुकसान हुआ हो।
रिजर्व बैंक के सावधानी-भरे कदमों को समझने के लिए डॉ राजन को समझना होगा। वे बौद्धिक ऊर्जा के धनी हैं, शिकागो विश्वविद्यालय के सावधिक प्रोफेसर और कई अभिनव पुस्तकों के लेखक। स्वतंत्रचेता, परिपाटीबद्ध और सतर्क- ये शब्द सबसे उम्दा ढंग से उनकी शख्सियत बयान करते हैं।
राजकोषीय मजबूती की राह:
रघुराम राजन इस बात में यकीन करते हैं कि मौद्रिक नीति का मुख्य उद््देश्य मूल्य स्थिरीकरण है। वे जानते होंगे कि नीतिगत दरों में परिवर्तन से मुद्रास्फीति पर उतना असर नहीं पड़ता, जितना मुद्रास्फीति से जुÞड़ी अपेक्षाओं को संभालने से, बाजार को यह संकेत देकर कि रिजर्व बैंक अपने निश्चित रास्ते पर चलने के लिए कटिबद्ध है। वे यह भी जानते होंगे कि अगर मुद्रास्फीति से जुड़ी अपेक्षाएं स्थिर न हों, तो ब्याज दर में मामूली हेरफेर से मुद्रास्फीति पर कोई असर नहीं पड़ता।
इस पृष्ठभूमि के साथ हम देखें कि पिछले चौबीस महीनों में रिजर्व बैंक ने किस तरह मौद्रिक नीति को संचालित किया:
यह ग्राफ दिखाता है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई और रेपो रेट की सितबंर 2013 से साल-दर-साल क्या दशा रही। इस ग्राफ को पढ़ते हुए कृपया यह याद रखें कि रिजर्व बैंक ने 2014 के मौद्रिक नीति वक्तव्यों में मुद्रास्फीति को जनवरी 2015 तक आठ फीसद और जनवरी 2016 तक छह फीसद पर लाने का लक्ष्य तय किया था।
सरकार को इस बात का श्रेय देना होगा कि 2012 में विजय केलकर समिति की रिपोर्ट आने के बाद घोषित की गई राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की नीति पर वह कायम रही।
राजकोषीय घाटे की हदबंदी इस तरह तय की गई थी- मार्च 2013 : 5.2 फीसद, मार्च 2014 : 4.8 फीसद, मार्च 2015 : 4.2 फीसद, मार्च 2016 : 3.6 फीसद, मार्च 2017 : 3.0 फीसद।
हर साल, मार्च 2015 तक, यूपीए और राजग, दोनों सरकारों के दौरान, हमने इस मोर्चे पर निर्धारित लक्ष्यों से ज्यादा कर दिखाया। और तभी तेल और जिन्सों के मामले में अप्रत्याशित लाभ की स्थिति आ गई। इनकी कीमतों में भारी गिरावट ने सरकार का काम आसान कर दिया। सरकारी व्यय बढ़ाने के साथ-साथ राजकोषीय घाटे की हदबंदी का लक्ष्य भी पूरा किया जा सकता था।
मौद्रिक नीति निर्धारण:
अब ग्राफ पर जरा बारीकी से नजर डालें। नवंबर 2013 में मुद्रास्फीति चरम पर थी। उसके बाद यह प्रभावी ढंग से गिरी। नवंबर 2013 और मई 2014 के दरम्यान (यूपीए का कार्यकाल) उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई 12.2 फीसद से गिर कर 8.3 फीसद पर आ गई। मई 2014 और अगस्त 2015 के दरम्यान (राजग का कार्यकाल) यह आंकड़ा 8.3 फीसद से 3.7 फीसद पर आ गया। इस प्रक्रिया में जनवरी 2015 तक मुद्रास्फीति को आठ फीसद पर लाने का रिजर्व बैंक का लक्ष्य आसानी से पा लिया गया, और मुझे यकीन है कि जनवरी 2016 तक छह फीसद का लक्ष्य भी हासिल हो जाएगा।
लेकिन इस दौरान जो रेपो रेट संबंधी निर्णय हुए उन्हें असंगत ही कहना होगा। जनवरी 2014 तक ब्याज दरों में 25 आधार अंकों की छोटी-छोटी बढ़ोतरी हुई। फिर, 2014 के साल में रेपो रेट को आठ फीसद पर अपरिवर्तित रखा गया, जब मुद्रास्फीति में लगातार गिरावट का रुख रहा। हालांकि डॉ राजन ने 2015 में रेपो रेट में तीन बार कटौती की, जब मुद्रास्फीति की दर कमोबेश स्थिर रही। रिजर्व बैंक के फैसले विरोधाभासी थे। उसका खयाल था कि जून 2015 के बाद महंगाई बढ़ेगी। बाद में जो सामने आया उससे जाहिर है कि महंगाई के बारे में रिजर्व बैंक का अनुमान गलत था।
कोई यह तर्क दे सकता है कि अगर मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान और सटीक रहे होते, तो कटौतियां और पहले तथा थोड़ी अधिक हो सकती थीं। उससे पूंजी प्रवाह बेहतर हुआ होता, मांग बढ़ी होती और निवेशकों का हौसला बढ़ा होता।
मौद्रिक नीति का निर्धारण एक जटिल कवायद है। इसमें सीमित (और अक्सर कच्चे) आंकड़ों पर आधारित मुश्किल फैसले लेने होते हैं। इसमें एक ही शख्स पर बहुत अधिक दारोमदार होता है, भले वह असाधारण योग्यता वाला हो। लिहाजा, मौद्रिक नीति निर्धारण के लिए एक समिति होनी चाहिए। मैं ऐसी समिति के लिए आग्रह कर चुका हूं जिसमें सरकार और रिजर्व बैंक का समान प्रतिनिधित्व हो और रिजर्व बैंक के गवर्नर को निर्णायक वोट का अधिकार हो। इस पर सहमति बन जाने का डॉ राजन संकेत दे चुके हैं, पर सरकार ने अभी तक समिति की बाबत कोई घोषणा नहीं की है। राजग के राज में निर्णय-प्रक्रिया रहस्य में लिपटी एक पहेली की तरह रही है।
आगे के बड़े काम:
रेपो रेट में कटौती से नीति निर्धारण का काम पूरा नहीं हो जाता; यह सरकार को साहसिक फैसले लेने का मौका देता है। अगले कुछ महीनों में बड़े काम सरकार को ही करने हैं: घरेलू निवेशकों को पूंजी लगाने के लिए तैयार करना; विदेशी निवेश के वादों को पूरा कराना; मई 2014 के बाद उठे टैक्स संबंधी नए मसलों को सुलझाना; कोयला, इस्पात, तेल, प्राकृतिक गैस और बिजली का उत्पादन बढ़ाना; सड़क, रेलवे और बंदरगाह जैसे आधारभूत ढांचे के निर्माण की गति में तेजी लाना; और जीएसटी तथा अन्य विधेयकों को विपक्ष का भरोसा अर्जित कर पास कराना। और सबसे अहम बात यह कि उन्मादी तथा गुमराह लोगों को एजेंडा तय करने और अप्रासंगिक मुद््दे उठाने की इजाजत कतई न दी जाए, वरना विकास के रास्ते से हम भटक सकते हैं।
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