‘मैं कौन हूं?’ यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका संतोषजनक उत्तर कोई नहीं दे सकता। जैसे एक व्यक्ति अपनी अस्मिता के प्रश्न का उत्तर चाहता है, उसी तरह एक समुदाय जो वासस्थान, भाषा, धर्म, संस्कृति, इतिहास, वेदना आदि कई पहचानों से जुड़ा होता है, जानना चाहता है कि वे कौन हैं और उनका उत्स कहां है। बहुत-से लोग पाते हैं कि उनकी पहचान इतिहास और परिस्थितियों ने निर्धारित कर दी है जिन पर उनका कोई बस नहीं था।

दो सौ साल के अंगरेजी शासन, स्वाधीनता संग्राम, विभाजन, आजादी, विलय, विशेष दर्जा, युद्ध, नियंत्रण रेखा, संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक बल और भारत का संविधान, अनुच्छेद 370 जिसका अंग है, इन सब ने 1947 से जम्मू व कश्मीर के इतिहास को आकार दिया है।

अस्मिता का संघर्ष

जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का एक राज्य है। जम्मू की जनता भारत से अपना नाता लगभग पूरी तरह स्वीकार कर चुकी है। लगता है लद््दाख के लोग भी यह मान चुके हैं, हालांकि वे कहीं अधिक स्वायत्तता चाहते हैं। अलबत्ता जो लोग कश्मीर घाटी में रहते हैं वे अपनी अस्मिता के संघर्ष में मुब्तिला हैं।

संघर्ष कश्मीरी के मन में घर कर गया है। इसका लावा समय-समय पर सड़कों पर फूट पड़ता है और हिंसा होती है। राज्यतंत्र हिंसा को सैन्यबल से कुचल देता है, पर हिंसा या सैन्यबल के इस्तेमाल से कोई हल नहीं निकला है।

कश्मीर के लोग अपने संघर्ष को धर्म, संस्कृति और इतिहास के चश्मे से देखते हैं। बाकी भारत के लोग उनके संघर्ष को विलय के ऐतिहासिक तथ्य और भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।

हमें यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि जिस भारत के लिए हम समर्पित हैं उसकी अवधारणा राज्यों के संघ की रही है। संघीय भारत के निर्माण की धारणा दरअसल समावेशिता की धारणा है। इस देश की विशालता और इसकी विविधता को देखते हुए यह कभी भी आसान काम नहीं था। भारत के कई हिस्से ऐसे हैं जहां रहने वाले लोग खुद को बेगाना और खौफजदा महसूस करते हैं। गरीबी बेगानेपन की एक मुख्य वजह है। दूसरी वजहें हैं उनका अलग-थलग पड़ जाना, संपर्क तथा संचार के साधनों का न होना और उनके धर्म या संस्कृति या भाषा या रीति-रिवाज पर हमले का भय।

समावेशिता की कला

अगर राष्ट्र-निर्माण के सत्तर साल के उद्यम का कोई सबक है तो वह यह है: एकरूपता, समावेशिता का विलोम है। हम उचित ही उस सब पर गर्व कर सकते हैं जिसे हमने समावेशिता की कला के जरिए हासिल किया है। जनता के विभिन्न आंदोलनरत समूहों, खासकर सिखों, असमिया लोगों, मिजो तथा नगा समुदायों से भारत सरकार ने शांति समझौते किए। इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, विशेषकर आदिवासी बसाहट वाले इलाकों में।

जम्मू-कश्मीर भी ऐसे उदार व्यवहार का हकदार है। गृहमंत्री के तौर पर मैं इस बात का कायल था कि फौजी (या कानूनवादी) दृष्टिकोण से कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो सकता; इसके विपरीत यह केवल टकराव को और तीव्र बनाएगा। इसीलिए मैंने इस बात की तरफदारी की थी कि वहां सेना की सघन मौजूदगी में कमी की जाए, और अगर सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को रद्द न किया जा सके, तो उसमें संशोधन जरूर किया जाए।

दो पहल ऐसी हुर्इं जिन्होंने धारणा बदलने में काफी मदद की। एक, सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल का कश्मीर दौरा और तमाम समूहों तथा व्यक्तियों से विस्तार से बातचीत। दो, तीन वार्ताकारों की नियुक्ति, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर की सिविल सोसायटी से इस ढंग से संवाद का संबंध कायम किया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इन दो पहलों के पहले और बाद में जो कदम उठाए गए वे हिंसा में कमी लाने में खासे मददगार साबित हुए- हिंसा जो राज्य के हाल के इतिहास की पहचान बन गई थी। इसे निम्नलिखित आंकड़ों से देखा जा सकता है:
 वर्ष        घटनाएं    मारे गए नागरिक    मारे गए सुरक्षाकर्मी
2001    4522          919                             536
2014    212              28                                47

सही और गलत जवाब

कश्मीर घाटी के युवाओं का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपने को पीड़ित और बेगाना महसूस करता है। क्रिकेट मैच में भारतीय टीम के खिलाफ पाकिस्तानी टीम का पक्ष लेना या अलगाववादी नारे लगाना या आजादी की मांग करना यह सब वहां पहले भी बहुत सामान्य बात थी और अब भी है। सवाल यह नहीं है कि इस तरह का रुख रखने वाले सही हैं या गलत। हकीकत यह है कि वे वैसा रुख रखते हैं। सही प्रत्युत्तर है, जैसा हमने सीखा है, उनसे संपर्क, संवाद और विकास।

गलत प्रत्युत्तर है हरेक के गले में अति राष्ट्रवाद को जबरन ठूंसना या हरेक पर जबर्दस्ती एक सामाजिक आचार संहिता थोपना। राजस्थान में चार कश्मीरी विद्यार्थियों की पिटाई की गई, इस अफवाह की बिना पर कि वे बीफ पका रहे थे। पुलिस ने पीटने वालों के बजाय उन चार विद्यार्थियों को क्यों गिरफ्तार किया? पुलिस को श्रीनगर के राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान (एनआईटी) में घुसने और वहां नारे लगा रहे छात्रों पर लाठियां बरसाने की क्या जरूरत थी?

यह हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए कि पहले दादरी और फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगाई गई लपटें एक हो गई हैं और श्रीनगर पहुंच गई हैं। उग्र राष्ट्रवादी इन लपटों को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यह रास्ता निश्चय ही और अधिक हिंसा की तरफ ले जाएगा।

राज्यों के संघ के निर्माण की धारणा अपनी परिणति पर तभी पहुंचेगी जब जम्मू-कश्मीर के तीनों क्षेत्रों के लोग महसूस करेंगे कि सचमुच वे भारत के अंग हैं। यह एक दीर्घावधि योजना है जो कि समायोजन से ही पूरी की जा सकती है, न कि जोर-जबर्दस्ती से, अवसरों में सहभागिता से, न कि अति-राष्ट्रवाद से, नवाचारी संघात्मक समाधानों से, न कि हठधर्मिता भरे एकांगी नुस्खों से।