सय्यद मुबीन जेहारा

यह सवाल अक्सर खुद से ही पूछती हूं। हमारे अंदर इतनी नफरत कौन भर देता है। जब मैं चारों ओर अचानक माहौल में तनाव देखती हूं। एक साथ उठने-बैठने वालों को धर्म और जाति, क्षेत्र या भाषा के आधार पर विभाजित होता देखती हूं तो मुझे आश्चर्य होता है। एक जैसे हाड़-मांस के मानव को एक दूसरे की जान का दुश्मन कौन बनाता है। क्या इसके पीछे सिर्फ राजनीति है, या फिर हमारा समाज ही जानवर बनने को बेताब रहता है। यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि यह बंटने की आदत हम में से निकल नहीं पाती है। अगर हम सब एक ही तरह के हो भी जाते हैं तब भी एक दूसरे विभाजन और नफरत की कोई और राह निकाल ही लेते हैं।

बहुत आसान होता है अपनी कमियों के लिए नेताओं पर आरोप मढ़ देना। लेकिन कभी हम अपने गिरेबान में झांक कर सोचें कि हम स्वयं कैसे हैं। पिछले दिनों हरियाणा में जो कुछ हुआ उसने न जाने कितने लोगों की हिंसा से जुड़ी पुरानी यादें जिंदा कर दी होंगी। कैसे साथ उठने-बैठने वाले ही आपके अरमानों को आग के हवाले करने को तैयार हो जाते हैं। आज यह हरियाणा में हुआ है तो कल कहीं और भी हो सकता है। क्या इससे पहले नहीं हुआ है कहीं और? किसी भी मांग को लेकर या किसी और बहाने से। यह भीड़ का न्याय है, जिसके सामने कानून-व्यवस्था की सारी शक्ति बौनी हो जाती है। केवल हरियाणा को लेकर चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं होगा, जबकि समाज को विभाजित करने की प्रवृत्ति तो हर जगह मौजूद है।

पिछले हफ्ते सरकार ने संसद में बताया कि गए साल सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में सबसे अधिक, बाईस लोगों की मौत उत्तर प्रदेश में हुई। इसके बाद बिहार और महाराष्ट्र का नंबर है, जहां ऐसी घटनाओं में क्रमश: बीस और चौदह लोगों की मौत हुई। गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने टीएन सीमा के एक सवाल के जवाब में राज्यसभा को यह जानकारी दी। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2015 में सांप्रदायिक हिंसा की सबसे अधिक, एक सौ पचपन घटनाएं उत्तर प्रदेश में हुर्इं, जिन में बाईस लोगों की मौत हो गई और 419 घायल हो गए। बिहार में ऐसी इकहत्तर घटनाओं में बीस लोगों की मौत हुई। महाराष्ट्र में ऐसी एक सौ पांच घटनाओं में चौदह लोग मारे गए। आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में नौ लोगों की और गुजरात व कर्नाटक में आठ-आठ लोगों की मौत हुई।

सवाल इस बात का नहीं है कि कहां कम और कहां अधिक मौतें हुर्इं, या कहां सांप्रदायिक हिंसा की कम और अधिक घटनाएं हुर्इं। एक भी घटना अगर कहीं हो रही है तो निश्चित रूप से किसी न किसी का जीवन अवश्य नष्ट हो रहा है। वह है तो अपने ही जैसा इंसान, अपने जैसे हाथ-पांव, अपने जैसे आंख-कान, अपने जैसा सिर और अपने जैसा ही एहसास और संवेदनाएं। अपने बच्चों को वह भी प्यार करता होगा। अपने परिवार के लिए भी तड़प वही होगी जो हम में है। फिर मैं उसके खिलाफ या वह मेरे खिलाफ क्यों खड़ा हो जाता है। जब उसे जानती भी नहीं हूं तो उसे मेरा दुश्मन किसने बनाया है? मैं तो समाज को ही दोष दूंगी, जिसकी नफरत बढ़ाने की गति देखने लायक है, पर आपसी प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा देने में इसकी गति सुस्त हो जाती है।

यह सच हो सकता है कि अक्सर सरकारों से भी अमन-चैन बिगाड़ने के प्रयासों को नाकाम करने में चूक हो जाती है, मगर शांतिभंग की कोशिश करने वाले भी तो समाज के ही कुछ लोग होते हैं। यह क्या केवल एकतरफा होता है? क्यों हम न्याय नहीं कर पाते हैं जब न्याय करने की आवश्यकता होती है? क्यों हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के उस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में अपनाने में चूक जाते हैं जो हमारे देश की आत्मा है। जहां पूरी दुनिया ही एक परिवार हो वहां फिर विभाजन किस बात का?

यह विभाजन केवल धर्म, जाति या भाषा या क्षेत्र का नहीं है। इस विभाजन के अंदर भी कई विभाजन हैं। फिर अंत में एक और विभाजन है, महिला और पुरुष का। यहां तो सभी एक नजर आते हैं। स्त्री को कमजोर साबित करने और घर में ही कैद रखने के लिए कहा जाता है कि माहौल खराब है। यह माहौल खराब औरत ने तो नहीं किया है। यह तो उन्होंने किया है जो खुद को शक्तिशाली मानते हैं। तभी तो औरत को अबला कहते हैं। पर हम देखते हैं कि स्त्री-विरोधी हिंसा में कोई कमी नहीं आ रही है। वैसे भी समाज में होने वाली हर हिंसा का हर हाल में शिकार महिलाएं ही होती हैं। उन्हें सहन करना पड़ता है।

स्त्री-विरोधी हिंसा से निपटने में मानक प्रक्रियाओं का अभाव हमेशा दिखा है। 2014 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के तीन लाख बाईस हजार मामले दर्ज हुए, जिनमें से सैंतीस हजार बलात्कार के थे। अधिकतर राज्यों में अब भी स्त्री-विरोधी हिंसा से निपटने के लिए पुलिस के पास मानक प्रक्रियाओं का अभाव है। लेकिन देश में अच्छी बात यह है कि महिला अधिकारों के उल्लंघन का विरोध हो रहा है। धार्मिक असहिष्णुता की घटनाओं को लेकर फैला रोष, इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ दमनकारी कानून को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से रद््द किया जाना, भूमि अधिग्रहण कानून के असंगत प्रावधानों का विरोध, इन सब से यह उम्मीद जगती है कि 2016 भारत में मानव अधिकारों का एक बेहतर साल हो सकता है।

लेकिन इससे अलग एक प्रश्न हिंसा को लेकर है कि हम हिंसा के विरुद्ध एक होकर क्यों नहीं सोचते। हम क्यों नहीं न्याय का साथ देते। हर मामले में हम न्याय से काम क्यों नहीं लेते। यह केवल अपने देश की बात नहीं है। पड़ोस में चले जाइए या फिर दुनिया में कहीं भी जाकर देख लीजिए, कुछ ऐसे लोग ‘स्वतंत्र’ हैं बोलने के लिए और मरने-मारने के लिए जिनका काम ही समाज में विभाजन को हवा देना है। समाज में विभाजन, किसी भी आधार पर। वह चाहे आईएस हो या और कोई आतंकवादी संगठन। इन सब का जैसे एक ही लक्ष्य नजर आता है। लोगों को बांटो और अपना उल्लू सीधा करो।

कहीं पढ़ रही थी कि हरियाणा में जाट आंदोलन में लगभग तीस हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इस देश में जहां अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी रहे हों, जिस देश ने अहिंसा के सहारे अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया हो, वहां जब हिंसा होती होगी तो दुनिया क्या सोचती होगी। हरियाणा की ही एक बेटी शतरंज की पूर्व राष्ट्रीय चैंपियन अनुराधा बेनीवाल ने हरियाणवी शैली में सोशल मीडिया पर एक वीडियो डाला है, जो बड़े महत्त्वपूर्ण सवाल पूछ रहा है। यह केवल हरियाणा के लिए ही नहीं हैं, ये सवाल हम सभी के लिए हैं। उन्होंने कहा कि हिंसा का यह दृश्य देख कर देश में निवेश और रोजगार में कमी आ सकती है, जिससे नुकसान हमारा ही होगा। मगर इस प्रकार हममें से कितने लोग सोचते हैं। कम से कम वे हवाई कंपनियां तो बिल्कुल ही नहीं सोचती हैं जिन्होंने लोगों की मजबूरियों का फायदा उठाते हुए बीस-तीस गुना किराया वसूला।

जब बाजार सोच पर हावी हो जाए और सिर्फ मैं ही मैं होने लगे तो विभाजन और हिंसा से कैसे बचा जा सकता है। आज मेरा है तो कल यकीनन किसी और का नंबर आएगा। जब हिंसा और लूटपाट करके युवा घर लौटते होंगे तो घर का कोई न कोई बड़ा शाबाशी देता होगा? जब हम दूसरों के खिलाफ कुछ गलत करते हैं तो उसे गलत नहीं मानते, मगर दूसरा कुछ ऐसा हमारे साथ करता है तो हम उस पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। इसलिए दुनिया को हिंसा से मुक्त बनाने के लिए हमें अगर-मगर के बिना न्याय की आदत हर मामले में अपनानी होगी। तभी हम दुनिया को हिंसा से मुक्त बना सकते हैं।