हमारे समाज और समय में अनेक धर्म सक्रिय हैं: एक ही धर्म में कई रूप प्रचलित और लोकप्रिय हैं, जैसे कि हिंदू धर्म में। प्राय: हर धर्म में कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर आग्रह के अलावा काफी बहुलता भी रही है। सिद्धांत और व्यवहार का द्वैत भी सभी में है: धर्म जो कहता है धर्मावलंबी उससे अलग कुछ करते हैं, जो कई बार दिलचस्प अंतर्विरोध की तरह देखा जा सकता है। धर्म विजड़ित भी नहीं हो-रह सकते: सब कुछ धर्म के रूप में प्राचीन काल में सोचा और रूढ़ कर दिया गया है, ऐसी धारणा धर्म की सर्जनात्मकता और विकास का अस्वीकार ही होगी। जैसे मनुष्य, समाज और समय, व्यवस्थाएं बदलती हैं वैसे धर्म भी।

यह अलग बात है कि ऐसी बुद्धि हमेशा रहती है, जो हर परिवर्तन या विकास को विचलन, विपथगामिता या ह्रास के रूप में देखती है। फिर भी, चिंतन और व्यवहार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होना अनिवार्य ही है। जब लोकतंत्र लगभग विश्वव्यापी व्यवस्था बन गया है तब यह जरूरी नहीं है कि उसमें धर्म की भूमिका और स्वरूप वही रहे आएं, जो पहले की राजव्यवस्थाओं में थे। स्वतंत्रता, समता और न्याय वैसे तो अपने मूल में आध्यात्मिक मूल्य ही हैं, पर उन्हें स्पष्ट रूप से धर्म के अंतर्गत वैसी जगह या केंद्रीयता मिलना बाकी है जैसे कि लोकतंत्र में अपेक्षा की जाती है।

अनेक धर्मों में, दुर्भाग्य से, स्त्री-पुरुष की समानता को मान्यता नहीं है, जबकि वह लोकतंत्र की एक बुनियादी अवधारणा है। दिल्ली में हुए निर्भया-कांड के समय हमने लिखा था कि अगर धर्मों में इस समानता को लेकर कोई विरोध है, तो उसे तुरंत दूर करना चाहिए और सभी धर्मों के नेताओं और चिंतकों को इस समानता का मुखर और स्पष्ट समर्थन करना चाहिए। लगता नहीं कि इस बारे में धर्मों में कोई उद्वेलन या चिंतन हुआ है।

बहुत सारे धर्म अपना आरंभिक मौन और शांति का व्यवहार तज कर बहुत बातूनी और शोरगुल मचाने वाले हो गए हैं। इस शोरशराबे को देखें तो यह नहीं लगता कि इनमें गंभीर चिंतन का कोई अवकाश बाकी रह गया है- कर्मकांड पर जरूरत से ज्यादा बल दिया जा रहा है, संस्कार पर कम। कम से कम हिंदू धर्म में जो लीला भाव था उसका तो लगभग लोप हो गया है: हिंदू परंपरागत रूप से अवधारणाओं, विचारों, देवताओं आदि से विनोद करने वाले लोग रहे हैं। हमारे यहां शृंगार की एक बड़ी समृद्ध और सुंदर परंपरा भी रही है। जो हिंदू भावना इन दिनों पेश-पेश है उसमें न तो विनोद बचा है, न लीला, न शृंगार।

धर्मों और सामाजिक सुधार के बीच सदियों से गहरा संबंध और संवाद रहा है। हमारे समय में वह निश्चय ही शिथिल हुआ है। विशेषत: हिंदुओं की बहुसंख्या वाले हिंदी अंचल में ऐसे सुधार बहुत विरल हो गए हैं। ‘चिपको’ आंदोलन, ‘नर्मदा बचाओ’ आंदोलन, सेवा आंदोलन आदि ऐसे कुछ क्षण उपस्थित करते हैं, जब पवित्रता की नई अवधारणाएं विकसित की जा सकती थीं। यह विडंबना ही है कि गंगा को स्वच्छ करने के लंबे अभियान में कोताही, भ्रष्टाचार, आलस्य और लापरवाही सब हिंदुओं ने ही की है, जबकि गंगा की पवित्रता उनके लिए स्वयंसिद्ध रही है!

गांधी की ओर:

गांधी को याद करना और उनसे अलग, कई बार विरोध में काम करना हमारा लगभग राष्ट्रीय कर्मकांड ही बन गया है। लेकिन जब हममें से कई ऊहापोह या संभ्रम में पड़ते-फंसते हैं, तो अक्सर गांधी की ओर से कुछ आलोक मिलता है। उन्होंने कहा था: ‘कटु अनुभव ने मुझे सिखाया है कि सभी मंदिर ईश्वर का घर नहीं होते। वे शैतान की जगहें भी हो सकते हैं। इन पूजास्थलों का कोई मूल्य जब तक कि उनकी देखभाल करने वाला धर्मगुरु भला आदमी न हो। मंदिर, मस्जिदें, गिरजाघर वही होते हैं, जो हम उन्हें बनाते हैं।’ यह फिर याद करने का मन होता है कि सेवाग्राम के आश्रम में कोई मंदिर नहीं था और बिना किसी मूर्ति या कर्मकांड के हर दिन दो बार प्रार्थनासभा होती थी, जिसमें सब धर्मों से पाठ होता था। आज भी होती है। संसार में ऐसी सभा शायद ही कहीं और होती हो।

गांधी ने एक अन्य प्रसंग में यह भी इसरार किया था कि ‘यह एक ट्रेजेडी है कि धर्म हमारे लिए आज खानपान पर प्रतिबंध और श्रेष्ठता-निम्नता के बोध से अधिक कुछ नहीं रह गया है। इससे अधिक भोंथरा ज्ञान नहीं हो सकता।’ इस समय का माहौल प्रतिबंधों का उपक्रम बना जा रहा है। धर्म के नाम पर यह अनाचार है, उसके बुनियादी अध्यात्म से पलायन और हमारे धर्मनेता, इस पलायन और दुर्व्याख्या में, बहुत उत्साह से शामिल होते रहते हैं। राजनीति में इसे प्रश्रय मिल रहा है सो अलग।

गांधी के धर्मचिंतन का भारतीय दृश्य में पुनर्वास होना चाहिए, क्योंकि वे बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े और आस्थावान हिंदू थे। उनका मत था कि ‘वह धर्म धर्म नहीं जो व्यावहारिक मामलों को हिसाब में न लेता हो और उनके हल में मदद न करता हो।’ उन्होंने जोर देकर बताया था कि ‘यह जरूरी नहीं सहिष्णुता के लिए कि मैं जिसके प्रति सहिष्णु होऊं उसका अनुमोदन भी करूं। मैं बहुत शिद्दत से शराब पीने, मांस खाने और धूम्रपान को नापसंद करता हूं। मैं इन्हें हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों में बरदाश्त करता हूं, साथ ही यह उम्मीद भी करता हूं वे भी मेरे इन चीजों से परहेज को बरदाश्त करेंगे, हालांकि उन्हें वह नापसंद हो।’

गांधीजी सारी पृथ्वी पर एक ही धर्म हो या हो सकता है, इस विश्वास में यकीन नहीं करते थे: वे उनके बीच साझा तत्त्व की खोज में थे ताकि परस्पर सहिष्णुता बढ़ सके। उन्होंने स्पष्ट कहा था: ‘मेरा विश्वास है कि सभी महान धर्म कमोबेश सच्चे हैं। मैं कमोबेश कहता हूं, क्योंकि मुझे यकीन है कि हर वह चीज जिसे मानवीय हाथ छूते हैं अपूर्ण होती है, क्योंकि मनुष्य अपूर्ण होते हैं।’ यह प्रकारांतर से यह स्वीकार करना था और है कि सभी धर्म एक-दूसरे की अपूर्णता से सीख सकते हैं और उनके बीच द्वंद्व के बजाय सहज संवाद संभव होना चाहिए। उन्होंने बार-बार कहा कि उनका धर्म जेलखाना नहीं है- उसमें ईश्वर की अकिंचन रचनाओं के लिए भी जगह है। लेकिन वह जाति-धर्म-रंग के दंभ और धृष्टता के लिए नहीं है।

मित्रों की खोजखबर:

बाहर जाने का एक लाभ यह है कि आप अपने कई मित्रों से मिल पाते हैं: उनके साथ बैठकी और गपशप हो पाती है। कई बार पुरानी बातें और घटनाएं याद करने का अवसर होता है और कई बार अपने बीच हो गई गलतफहमियों को दूर करने का भी। आपको यह भी जान कर कुछ संतोष होता है कि शत्रुओं के अलावा आपके मित्र की भी आपके किए-धरे पर नजर रहती है, जो जानना हमेशा उत्साहित करता है।

पिछले दिनों कई मित्रों से मिलना हुआ। रायपुर में विनोद कुमार शुक्ल और राजेंद्र मिश्र से। विनोदजी थोड़ा शिथिल और चिंतित दीखे, पर उनका कविकर्म सक्रिय है। मिश्रजी कविता को ध्यान से पढ़ने के उद्यम में दैनिक रूप से लगे हुए हैं। उज्जैन में चंद्रकांत देवताले के घर गया, जहां वे व्याधिग्रस्त होते हुए भी चौकन्ने हैं। वे सुदीप बनर्जी को याद कर रहे थे, जो उनके छात्र भी रहे थे। अजमेर में बख्शीश सिंह और चंद्रप्रकाश देवल के साथ शामें गुजरीं: दोनों वहां नए साहित्य के प्रति उत्साही हैं।

लगातार ब्रेकिंग न्‍यूज, अपडेट्स, एनालिसिस, ब्‍लॉग पढ़ने के लिए आप हमारा फेसबुक पेज लाइक करेंगूगल प्लस पर हमसे जुड़ें  और ट्विटर पर भी हमें फॉलो करें