आज के दौर में क्या हम विद्यार्थियों को केवल सूचना उपलब्ध करवा रहे हैं? अगर ऐसा है तो हम उनकी विश्लेषण करने की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। संभवत: यही कारण है कि आज के अधिकांश विद्यार्थियों के पास सूचनाओं का तो भंडार है, लेकिन वे उसके आधार पर विश्लेषण करने या विषय की समझ विकसित करने में खुद को असमर्थ महसूस करते हैं। फ्रांसीसी लेखक अनातोले फ्रांस का कहना है कि शिक्षा का ये मतलब नहीं है कि आपने कितना कुछ याद किया है या आप कितना जानते हैं, अपितु इसका मतलब है कि आप जो जानते हैं और जो नहीं जानते हैं, उसमें अंतर कर पाते हैं या नहीं।

पिछले कुछ समय से सुर्खियों में रहने वाली घटनाएं कुछ और ही कहानी कहती हैं। कुछ समय पहले आई एक खबर के मुताबिक, महाराष्ट्र के सांगली जिले में बारहवीं की एक छात्रा की मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) में कम अंक आने के बाद शिक्षक पिता ने उसकी पिटाई कर दी, जिससे उसकी मौत हो गई। परीक्षा में कम अंक आने पर आत्महत्या की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं।

क्या प्रतियोगी परीक्षा में विफल होना बच्चों के अस्तित्व को चुनौती देने लगा है?

यहां सवाल यह उठता है कि क्या प्रतियोगी परीक्षा में विफल होना बच्चों के अस्तित्व को चुनौती देने लगा है? क्या उच्च अंक पाना जीवन का और विफलता या कम अंक पाना मौत का पर्याय माना जाने लगा है? शिक्षा कभी समस्या या तनाव उत्पन्न नहीं करती, अपितु समस्या का समाधान और तनाव से मुक्त करती है। फिर क्यों इस तरह की घटनाएं समाज में बढ़ती जा रही हैं?

शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को दासता, शोषण व असमानता से मुक्ति दिलाना है, उनमें आलोचनात्मक चेतना और तार्किक क्षमता को विकसित करना है। प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता के कारण विद्यार्थियों के आत्महत्या कर लेने की बढ़ती घटनाओं को देखकर लगता है कि शिक्षा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल नहीं हुई। शिक्षक व दार्शनिक पाउलो फ्रेरे कहते हैं कि अपनी शिक्षा में वयस्कों को सक्रिय हिस्सा लेना चाहिए और शिक्षा उनके परिवेश में समस्याओं से पूरी तरह जुड़ी होनी चाहिए।

विद्यालयी शिक्षा में बच्चों को कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए

ऐसा तभी हो सकता है, जब बच्चों को हर बात को प्रश्न पूछ कर अपने आप समझने की शिक्षा दी जाए। विद्यालयी शिक्षा में बच्चों को कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, बल्कि सभी विषय प्रश्न-उत्तर के माध्यम से बच्चे स्वयं पढ़ें व समझें। वयस्क शिक्षा का उद्देश्य लिखना-पढ़ना व सीखने के साथ-साथ समाज का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है, जिसमें गरीब व शोषित व्यक्तियों को अपने समाज, परिवेश, परिस्थितियों और उनके कारणों को जानने की समझ मिले, ताकि वे अपने और समाज के पिछड़ेपन व गरीबी के कारण समझे और उन कारणों से लड़ने के लिए सशक्त हों।

इसके लिए जरूरी है कि शिक्षक को किसी भी समुदाय में पढ़ाने से पहले वहां अनुसंधान करना चाहिए और समझना चाहिए कि वहां के लोग किन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी क्या चिंताएं हैं, वे क्या सोचते हैं। इसके बाद शिक्षक को कोशिश करनी चाहिए कि वे उस समुदाय में उसी प्रकार की शिक्षा दें, जो उनकी भाषा में हो और उन्हीं के परिवेश व चिंताओं से जुड़ी हुई हो। तभी बच्चे अपनी शिक्षा में सक्रिय सहभागिता कर पाने में सक्षम हो सकेंगे।

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हम यहां दो तरह की शिक्षण पद्धति की बात कर सकते हैं। पहला, आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र अर्थात जिसमें समाज और उससे जुड़े मुद्दे हम कक्षाओं में पढ़ाते और चर्चा करते हैं और फिर पाठ्यक्रम की अंतर्वस्तु की व्याख्या करते हैं। यह समझ का खुला प्रारूप है, जिसमें शिक्षण, शोध, विस्तार पर बल दिया जाता है ताकि स्वाभाविक शिक्षण, कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता बच्चों में विकसित हो सके। दूसरा, परंपरागत या रूढ़िवादी शिक्षाशास्त्र अर्थात समाज और उससे जुड़े मुद्दे कक्षाओं का हिस्सा नहीं बनते, केवल पाठ्यक्रम तक ही कक्षाओं की चर्चा सीमित रहती है।

यह समझ का बंद प्रारूप है, जिसमें केवल शिक्षण पर बल दिया जाता है। संभवत: इसलिए इसमें सृजनशीलता और कल्पनाशीलता की संभावनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। परिणामस्वरूप बच्चों में ‘बंधक मस्तिष्क’ (कैप्टिव माइंड) का विकास होता है। आज के डिजिटल युग की शिक्षा संभवत: बच्चों को बनी बनाई सामग्री परोस रही है, जिस कारण वे इससे बाहर सोचने का प्रयास ही नहीं करते।

सवाल यह है कि क्या मेडिकल-इंजीनियरिंग की परीक्षा में सफलता ही खुशहाल जीवन की सीढ़ी है। स्कूल खाली पड़े हैं और दूसरी तरफ प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग कक्षाओं की भरमार है, जहां विद्यार्थी एक उपभोक्ता है, शिक्षा एक उत्पाद, शिक्षक एक सेवा प्रदाता और कोचिंग संस्थान लाभ का बाजार। ऐसे समाज में शिक्षा के स्तर की कल्पना की जा सकती है।

शिक्षा के बाजार ने ज्ञान-केंद्रित दृष्टिकोण को सफलता-केंद्रित दृष्टिकोण में बदल दिया है। अब, ज्ञान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि सफलता शिक्षा प्रणाली का प्रमुख कारक है। इसलिए बाजार शिक्षा या ज्ञान से अधिक कौशल केंद्रित शिक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, जहां ज्ञान महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि एक डिजिटल मानव बनना आवश्यक है, ताकि वे विचारहीन पीढ़ी बन सकें, जिसका काम सोचना, समझना या आलोचना करना नहीं, केवल अनुकरण करना है।

आज के दौर में शैक्षणिक असफलता का भय व्यापक हो रहा है। क्या बच्चों के माध्यम से परिवार अपनी अतृप्त इच्छाओं या सपनों को पूरा करना चाहते हैं? आज समाज पर उपभोक्तावाद इतना हावी है कि समृद्धि की चाहत में भावनाएं, रिश्ते, प्रेम सब कुछ हाशिये पर कर दिया गया है। ऐसे में जरूरी है कि परिवार और समाज में उभरी संवादहीनता की स्थिति को समाप्त करने का प्रयास किया जाए। बच्चों को हार और जीत दोनों का सामना करना सिखाया जाए, आत्महत्या किसी समस्या का विकल्प नहीं है, इस सोच को उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनाया जाए।

बच्चों की जिस विषय के प्रति स्वाभाविक रुचि है उस क्षेत्र में ही उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए, न कि उन पर अपनी इच्छा थोपी जाए। किसी परीक्षा में असफल होना जीवन में असफल होना नहीं है, यह तर्क उनकी चेतना का हिस्सा होना चाहिए। संभवत: तब हम युवा पीढ़ी को चुनौतियों और संघर्ष का सामना करना सिखा पाएंगे। इसको लेकर सभी संस्थानो में (निजी हों या सार्वजनिक दोनों में) एक सघन अभियान चलाने की जरूरत है।