प्रांजल धर
जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: कुसुम खेमानी का उपन्यास लावण्यदेवी सिर्फ अपने समय और समाज की परिक्रमा नहीं करता, बल्कि इसमें अपने इतिहासबोध के साथ लेखिका अतीत की गलियों तक जातीं और ब्रिटिशकालीन कलकत्ते से लेकर आज के भूमंडलीकृत विश्व की पूरी पड़ताल करती हैं। उपन्यास की केंद्रीय पात्र लावण्यदेवी है। वह कोई वंचित या दीन-हीन स्त्री नहीं है। उसे फिलहाल कोई संघर्ष नहीं करना है। शुरू-शुरू में ऐसा ही लगता है। क्योंकि वह धनाढ्य मां-बाप की इकलौती संतान है, तेज दिमाग वाली है, सारी दुनिया के वास्तुकार उसकी मुट्ठी में हैं और पति की उम्दा रब्तो-जब्त के साथ-साथ खुला हाथ और अकूत धन उसे उपहार में मिले हैं। लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ने लगता है, उसके असली संघर्ष तब सामने आने लगते हैं।
उपन्यास व्यक्ति का वर्णन करते-करते समांतर रूप से ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करने लगता है। पाठक एक पल को जटिल वैचारिक द्वंद्वों और परिस्थितियों से रूबरू होता है, लेकिन अगले ही पल वह रंगून में आजाद हिंद फौज की गतिविधियों में गोते लगाने लगता है। उपन्यास अपने सारभूत रूप में किसी ऐसे प्रयोग की तरह है, जिसमें समय की यात्रा का आलेखन किया गया हो और जिसमें पाठक खुद समय बन जाता है।
जिस प्रकार मानव जीवन का लक्ष्य जटिल द्वंद्वों में उलझ कर रह जाने के बजाय उन द्वंद्वों का संधान करना है, ठीक उसी प्रकार सब कुछ पाने की लालसा और ऐशो-आराम के बाद लावण्यदेवी के जीवन का भी लक्ष्य कीर्ति और यश आदि के मोह से ऊपर उठ कर धरती के एक कण की तरह धरती में मिल जाना है। ‘फूटा कुंभ, जल जलहिं समाना’ का यह बोध इस उपन्यास को कहीं-कहीं एक आध्यात्मिक और वीतरागी कोण प्रदान करता है। निर्विकार जीवन और शांति की तलाश सदैव से मनुष्य को उतनी ही प्रिय रही है, जितनी टॉमस हॉब्स द्वारा कही गई यह बात कि हर मनुष्य इतना स्वार्थी होता है कि हर वक्त उसकी कोशिश दूसरे पर अधिकार और कब्जा जमाने की ही हुआ करती है।
कॉलेज की गप्पें, राष्ट्रीय आंदोलन के समय के अनेक जीवन मूल्य, एक स्त्री मन की दृढ़ता और लड़खड़ाहट, बांग्लादेश और कलकत्ते के विचारों का साम्य और उनके बारीक अंतर इस उपन्यास में जगह-जगह पंक्तियों के बीच छिप-छिप कर आते रहते हैं। कुसुम खेमानी गद्यकार हैं और गद्यलेखन का उनका यह लंबा अनुभव इस उपन्यास को भाषिक स्तर पर एक उत्कृष्ट रचना सिद्ध करता है। उपन्यास को पढ़ते हुए अनेक स्थलों पर पात्रों और संवादों के जरिए ऐसा लगता है कि इस बात को इतनी सधी हुई भाषा और शैली में भी कहा जा सकता है! असल में देशकाल और वातावरण के साथ-साथ अपनी बात को कहने का लेखिका का यह तरीका भी इस उपन्यास को रोचक बनाता है। पश्चिम और भारत की ‘जीवन-शैली’ के अनेक ऐसे संदर्भ आए हैं, जो लेखिका की विद्वत्ता का आभास देते हैं।
वर्तमान समय में बुद्धि के शासन से परे रहने वाले प्रश्न मनुष्य की श्लथ काया में खुद ही उपज कर खत्म हो जाते हैं। गरीबी और अमीरी निश्चय ही सापेक्ष हुआ करती है और यह कृति सिद्ध करती है कि अंधेरी कुटिया में भी सुशांत दिव्यता व्याप्त हो सकती है। लावण्यदेवी आगे चल कर लावण्य मां हो जाती है और मालविका जैसी उसकी शिष्याएं लावण्य मां के आदेशानुसार यौन-कर्मियों के हित में काम करने लगती हैं। असल में यह समस्या इतनी पुरानी और जटिल है कि इस पर लंबे समय से बहुत कुछ कहा और किया जाता रहा है। लेकिन विडंबना है कि समाज का एक वर्ग इस अनैतिक यौन-कर्म से मुक्ति पाना चाहता है, तो दूसरा वर्ग ऐसा भी है, जो अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए इसे संगठित रूप में जारी रखने का जतन करता है।
उपन्यास बताता है कि हंसने जैसी स्वाभाविक क्रिया पर भी स्त्रियां किस तरह आत्मनियमन का प्रतिबंध लगाती हैं। शायद इसीलिए पश्चिम की नारीवादियों ने जो नारा दिया था कि ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक है’, वह अब पिछले कुछ वर्षों से भारतीय समाज में भी अपनी जगह बनाता दिख रहा है। पर पूर्व और पश्चिम की सामाजिक संरचनाओं में बुनियादी भिन्नता है। इसीलिए पश्चिम के तमाम समाजशास्त्रीय सिद्धांत भारत में लागू नहीं हो पाते। यहां आकर स्त्री संघर्षों की दिशा ही नहीं, बल्कि मायने भी बदल जाते हैं और एक खांटी भारतीय विचारधारा की जरूरत महसूस होने लगती है, जो हमारे देश में चल रहे शोषण से हमें मुक्ति दिला सके। लेखिका की ऐसी खोजबीन कम से कम सैद्धांतिक स्तर पर आश्वस्त करती नजर आती है।
धर्म सामाजिक जीवन का एक ऐसा क्षेत्र है, जहां तमाम जटिलताएं पैदा होती हैं, जबकि इसका दावा जटिलताओं के समाधान का हुआ करता है। असल में, जब धर्म ने व्यापार का रास्ता अख्तियार किया और मनुष्य की अंतरात्मा के बजाय यहां पैसे-रुपए-यशलिप्सा और भोंडे प्रदर्शनों का बोलबाला हुआ, तो धर्म ने राजनीतिक मुद्दे की शक्ल अपनाई। आए दिन हम अखबारों और अन्य संचार माध्यमों में संगठित धार्मिक हिंसा और उस पर शासन-सत्ता की ‘सुविचारित’ प्रतिक्रिया देखते रहते हैं। कुसुम खेमानी जब इस विषय को संबोधित करती हैं, तो यह बात उपन्यास में सर्वसमावेशी रूप में सामने आती है।
उन्होंने हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों की समस्याओं की अलग-अलग जांच-पड़ताल की है और सौहार्द का वातावरण रचा है। चाहे वह उपन्यास की पात्र जाहिदा हो, या फिर कट््टर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के तथाकथित मतभेद, ये सब मिल कर एक ऐसा वितान रचते हैं, जहां बुनियादी लगने वाली जटिलताएं भी समाधान के गर्म द्रव में विलीन होने लगती हैं। प्रेम की सर्वोच्च स्थिति यही होती है कि एक जब किसी वाक्य को शुरू करे तो दूसरा उसे तत्काल पूरा कर दे। उपन्यास में ऐसी तीन जोड़ियां आई हैं, जो एक-दूसरे के साथ लंबे अरसे से काम करते-करते मनसा-वाचा-कर्मणा एकाकार हो गई हैं। पहली जोड़ी है आलो और अजहर आलम की, दूसरी है मंजुलिका और रवींद्र अखिलंदम की और तीसरी है मालविका और शशांक दुबे की।
आज जिस तरह की यौन नैतिकता के सवाल उठाए जा रहे हैं, जिस तरह महानगरीय और कॉरपोरेट जीवन-शैली के अनुसरण में आए दिन विवाह-विच्छेद हो रहे हैं, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि लेखिका ने हमारे समय की एक जटिल समस्या को संबोधित किया और उसके वैकल्पिक समाधान की भी झलक दी है।
उपन्यासकार यशपाल कहते थे कि जटिल संघर्षों, अनुभूतियों और भावों-विचारों को व्यक्त करने के लिए सूत्र वाक्यों की आवश्यकता पड़ती है। इस उपन्यास में ऐसे अनेक सूत्र वाक्य आए हैं। यह कृति किताबी ज्ञान और आनुभविक सत्यों के मध्य संतुलन साधने की एक कोशिश है। उपन्यास तमाम असंतुलनों का जायजा लेता और चीजों को अच्छे और बुरे में बांट कर देखने के बजाय चीजों को और अच्छा बनाने का प्रयास करता है। उपन्यास के कथानक में रवानी है, जो पाठकों को बांध कर रखती है।
हालांकि इस उपन्यास का एक नकारात्मक पक्ष इसकी अनावश्यक लगने वाली प्रवचनात्मकता है, जिससे पाठक कभी-कभी बोझिल महसूस करने लगता है। ‘समृद्ध वातावरण में पले बच्चे अधिकतर अहंकेंद्रित और स्वार्थी होते हैं, जबकि अभावों में पलने वाले भाई-बहन त्याग की भावना से और दूसरों को सुखी रखने की कामना से अधिक प्रेरित होते हैं।’ सामाजिक तथ्यों और विश्लेषणों का महीन प्रेक्षण करने में लेखिका ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि का इस्तेमाल किया है और संरचनाओं के भीतर तक जाकर उपन्यास के धागे बुने हैं।
लावण्यदेवी: कुसुम खेमानी; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 300 रुपए।
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