रवींद्र त्रिपाठी
जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’, सिद्धार्थ आनंद की ‘बैंग बैंग’ के साथ ही रिलीज हुई। व्यवसाय के नजरिए से ‘बैंग बैंग’ बॉक्स आॅफिस पर अधिक सफल रही है। लेकिन फिल्मप्रेमियों और समीक्षकों के बीच बैंग बैंग ‘हैदर’ का हो रहा है। इस फिल्म पर जितनी बहसें हो रही हैं, उतनी हाल की किसी हिंदी फिल्म पर नहीं हुर्इं। इससे समझा जा सकता है कि ‘हैदर’ ने लोकचित्त को किस तरह प्रभावित किया है।
लेकिन समांतर रूप से यह भी सच है कि ‘हैदर’ के बारे में ऐसी बातें भी कही जा रही हैं, जिसको मोटे तौर पर आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल करना कह सकते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में ऐसा बहुत कुछ आ रहा है, जिसमें विशाल भारद्वाज और उनकी फिल्म को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। ‘जनसत्ता’ में (12 अक्तूबर) पुण्य प्रसून वाजपेयी और अपूर्वानंद के जो दो लेख छपे, उनमें एक में आरोप ही आरोप हैं। वाजपेयी ने हैदर को सराहा है, लेकिन अपूर्वानंद ने अपने आरोपों की लंबी फेहरिश्त पेश कर दी है। हालांकि अपूर्वानंद अकेले नहीं हैं। कई हैं, जो अपने-अपने झंडे और पोस्टर के साथ ‘हैदर’ के खिलाफ वैचारिक रूप से लामबंद हो रहे हैं।
जो ‘हैदर’ के खिलाफ लिख-बोल रहे हैं, उनमें से अधिकतर की आपत्ति है कि इस फिल्म में कश्मीर का यथार्थ नहीं है। इस बात को भूला जा रहा है कि यह कश्मीर समस्या पर बनी फिल्म नहीं है। यह शेक्सपियर के नाटक ‘हैमलेट’ का हिंदी में फिल्मी रूपांतरण है। उसी तरह जैसे भारद्वाज की ‘मकबूल’ मुंबई के अंडरवर्ल्ड के प्रसंग में शेक्सपियर के ‘मैकबैथ’ का रूपांतरण थी और ‘ओंकारा’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबलियों के प्रसंग में शेक्सपियर के एक अन्य नाटक ‘ओथेलो’ का। लेकिन ‘हैदर’ पर कश्मीर छा गया है।
यह शायद इसलिए भी है कि कश्मीर ऐसी रणभूमि है, जिसमें प्रवेश करते ही आप किसी न किसी पक्ष से युद्धरत मान लिए जाते हैं। भले आप वहां सिर्फ घूमने-फिरने गए हों। शायद विशाल भारद्वाज की मंशा रही हो कि कश्मीर की पृष्ठभूमि में अगर ‘हैमलेट’ का रूपांतरण किया जाए, तो फिल्म ज्यादा चर्चा में रहेगी। यही हो भी रहा है। फिर भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि ‘हैदर’ को ‘हैमलेट’ से अलग करके देखना उसे परिप्रेक्ष्य से काट कर समझना है। अगर ऐसा किया जाता है तो उसमें एकांगीपन होगा ही। और एकांगीपन हमेशा असहिष्णुता की तरफ ले जाता है।
साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ‘हैदर’ पर आरोपपत्र पेश करने वाले ज्यादातर समीक्षक सामाजिक यथार्थवाद, जिसकी भारत में परिणति स्तालिनवाद में हुई है, के दृष्टिकोण से प्रभावित हैं। वैसे सामाजिक यथार्थवादी आलोचना पद्धति वैश्विक स्तर पर पहले ही धूल-धूसरित हो चुकी है, लेकिन भारत में वह अब भी ताकतवर है और इसके दृष्टांत आए दिन साहित्य की आलोचना पद्धति में दिखते हैं। कई ऐसे समीक्षक, जो वैचारिक रूप से मार्क्सवादी नहीं हैं, बल्कि कहा जाए कि जो दक्षिणपंथी हैं, वे भी इसी पद्धति से कलाकृतियों का मूल्यांकन करते हैं। उनके मूल्यांकन का तरीका कुछ इस तरह से शुरू होता है- ‘इस रचना में समाज का यथार्थ नहीं है।…’। ‘हैदर’ पर आरोपपत्र पेश करने वालों का भी मूल आरोप कुछ इस तरह का है- ‘इसमें कश्मीर का यथार्थ कहां है?’
अरे भाई, किसने कहा कि कश्मीर का यथार्थ दिखाने के लिए इसे बनाया गया है? निर्देशक भारद्वाज ने तो साफ-साफ घोषित किया है कि यह शेक्सपियर के नाटक पर आधारित है। फिर आप क्यों इसमें कश्मीर में हो रही दैनिक घटनाओं को तलाश रहे हैं? वैसे भी, अगर सामाजिक यथार्थवादी नजरिए से देखें तो भी दो घंटे की फिल्म में किसी समाज का पूरा यथार्थ नहीं दिख सकता। आपको उसके किसी छोटे से पहलू की झलक दिखती है। यह किसी दस्तावेजी फिल्म (डाक्यूमेंट्री) के लिए संभव नहीं है कि अपने विषय के सारे पहलुओं को दिखा दे।
किसी कलाकृति की तरह ‘हैदर’ को समझने और उसके मूल्यांकन का वस्तुगत तरीका यह होना चाहिए कि बतौर फिल्म वह कैसी है, उसमें कलात्मक सोच कैसा है, अभिनय, फिल्मांकन, पटकथा, सिनेमेटोग्राफी आदि उसमें किस स्तर के हैं। और यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि इस कसौटी पर ‘हैदर’ एक बेहतर फिल्म है। क्या शाहिद कपूर ने हैदर (यानी हैमलेट) की दुविधा को बखूबी नहीं निभाया है? क्या इरफान खान ने रूहदार के चरित्र को जिस तरह निभाया, वह उम्दा अभिनय की मिसाल नहीं है? क्या विशाल भारद्वाज ने हैदर की मां गजाला (जिसे तब्बू ने निभाया है और जो मूल ‘हैमलेट’ में गरट्रूड की है) की जिस तरह व्याख्या की है, उसमें नई कल्पनाशीलता नहीं है?
अपूर्वानंद को आपत्ति है कि गजाला, जिसका शौहर मारा गया है, इतनी जल्दी अपने देवर से शादी कैसे कर सकती है? इस तरह यह औरत-विरोधी फिल्म हो गई। लेकिन अब विशाल भारद्वाज क्या करें, अगर ‘हैमलेट’ की गरट्रूड यही करती है? इसी कारण तो हैमलेट को सदमा लगता है और ‘होने और न होने’ की दुविधा का शिकार हो जाता है। इसी कारण वह इंतकाम की आग में जलने लगता है। स्वाभाविक है कि हैदर में प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रहती है। उसकी जिंदगी के केंद्र में यही सवाल आ जाता है कि अपने पिता के खिलाफ षड्यंत्र करने वाले अपने चाचा को मारे या न मारे?
हां, भारद्वाज ने इतना जरूर किया है कि रूपांतरण में अपनी तरह से छूटें ली हैं और इसके लिए शेक्सपियर के पवित्रतावादी प्रशंसक उनसे नाराज हो सकते हैं। पर कोई सुधी कला-प्रेमी इस बात से शायद ही असहमत हो कि ‘हैमलेट’ का इतना अच्छा रूपांतरण पहली बार भारतीय रजतपट पर हुआ है।
यह भी याद दिलाना जरूरी है कि कश्मीर की अर्ध-विधवाओं या आधी बेवाओं का जिक्र हिंदी फिल्मों में पहले भी हो चुका है। कुछ साल पहले संतोष सिवन की ‘तहान’ आई थी, जो अपने में बहुत खूबसूरत फिल्म थी। इसमें सारिका ने आधी बेवा की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म चली नहीं, यह दीगर बात है, पर आधी बेवाओं की परिघटना को उसमें शिद्दत से रेखांकित किया गया था।
यह ठीक है कि मनुष्य, भले वह बुद्धिजीवी भी क्यों न हो, अपनी मनोगत भूमि से ज्यादा दूर नहीं जा पाता और किसी फिल्म या रचना का मूल्यांकन करते समय उसके अपने आग्रह हावी रहते हैं। आखिर जब ‘मैरीकॉम’ फिल्म रिलीज हुई, तो पूर्वोत्तर के एक्टिविस्टों की शिकायत थी कि इसकी नायिका (जिसे प्रियंका चोपड़ा ने निभाया है) स्थानीय यानी मणिपुर की क्यों नहीं है? इन सारी मनोगत शिकायतों के भीतर निहित मनोविज्ञान को समझा जाना चाहिए। उसी तरह जिनको ‘हैदर’ से शिकायतें हैं उनका अपना मनोविज्ञान है। कश्मीर के बारे में उनके विचार हैं और ‘हैदर’ पर चर्चा के क्रम में वे कश्मीर पर अपनी धारणाओं को प्रकट कर रहे हैं। फिल्म तो उनके लिए एक बहाना है, अपनी बात कहने का। उनकी मूल शिकायतें विशाल भारद्वाज से नहीं, बल्कि भारतीय राज्य से हैं। ‘हैदर’ से उनकी नाराजगी बस अपने भीतर निहित आग्रहों को प्रकट करने का अवसर है।
मगर इसी सिलसिले में दूसरी बात यह भी है, और ज्यादा अहमियत रखती है कि अपने किसी खास वैचारिक आग्रह के कारण किसी कलाकृति का अवमूल्यन भी एक सांस्कृतिक अपराध है। जिनके अपने आग्रह हैं, वे भारतीय राज्य को अपने मांगपत्र दें, एक फिल्म पर आरोपपत्र क्यों पेश कर रहे हैं?
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