कुलदीप कुमार
जनसत्ता 5 अक्तूबर, 2014: पिछले कुछ समय से बलात्कार की घटनाओं में भारी बढ़ोतरी हुई है और इसके अपराधियों के लिए अनेक तरह के दंड सुझाए गए हैं। दो हजार वर्ष से भी अधिक समय पहले कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में बलात्कारियों के लिए विस्तृत दंडविधान का वर्णन है। सबसे कड़ा दंड उस व्यक्ति के लिए निर्धारित किया गया है, जिसने अपने कुल की किसी स्त्री पर बलात्कार किया हो। जाहिर है इस श्रेणी में पत्नी के साथ बलात्कार और घरेलू बलात्कार भी शामिल हैं। ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार ऐसे व्यक्ति का लिंगच्छेद करके उसे मौत की सजा दी जानी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति निचली जाति की किसी स्त्री पर बलात्कार करता है, तो उसके माथे पर एक विशेष प्रकार का स्थायी दाग लगा कर छोड़ दिया जाना चाहिए, ताकि उसे हमेशा बलात्कारी के रूप में पहचाना जाए। यह सजा वयस्कों और अवयस्कों, सभी के लिए निर्धारित की गई थी।
यह जानकारी मुझे प्राचीन भारत की अन्यतम इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थापर के निबंधों और भाषणों के कुछ माह पूर्व प्रकाशित संकलन ‘पास्ट ऐज प्रेजेंट’ (वर्तमान के रूप में अतीत) से मिली। रोमिला थापर के बौद्धिक सरोकार केवल प्राचीन इतिहास के अध्ययन तक सीमित नहीं हैं। वर्तमान हमेशा उनकी बौद्धिक चिंता के केंद्र में रहा है। अतीत और वर्तमान किस तरह एक-दूसरे को प्रभावित करते और बदलते हैं, इस प्रक्रिया को समझना और समझाना उनके बौद्धिक कर्म को परिभाषित करता है। विभिन्न किस्म की समकालीन अस्मिताओं के निर्माण में इतिहास को किस तरह इस्तेमाल किया जाता है, यह समझना हो तो उनकी लिखी पुस्तकें पढ़ना अनिवार्य है।
आज जब हम रोज पुरस्कारों की मांग किए जाने का तमाशा देखते हैं, तब यह याद करना जरूरी हो जाता है कि रोमिला थापर ने दो बार- 1992 और 2005 में- पद्मभूषण सम्मान ठुकराया है। उन्होंने केवल अकादमिक सम्मान स्वीकार किए हैं, सरकार द्वारा प्रदत्त पुरस्कार नहीं। मसलन, वे लेडी मार्गरेट हॉल, ऑक्सफर्ड की मानद फेलो हैं और प्रतिष्ठित क्लूगे पुरस्कार से सम्मानित हैं। यह पुरस्कार अमेरिकी लाइब्रेरी आॅफ कांग्रेस ने उन विषयों के लिए स्थापित किया है, जो नोबेल पुरस्कार में शामिल नहीं हैं।
इस संग्रह में एक निबंध ‘हिंसा के चक्र के भीतर बलात्कार’ भी शामिल है, जिसमें रोमिला थापर ने प्रश्न उठाया है कि पितृसत्तात्मक समाज ने क्यों सीता को आदर्श नारी के रूप में देवी के आसान पर बैठाया, लेकिन ‘महाभारत’ के नारी चरित्रों- गांधारी, कुंती, द्रौपदी- की उपेक्षा की। वे यह दिलचस्प कल्पना करती हैं कि अगर कभी सीता, कुंती, गांधारी और द्रौपदी इकट्ठी होकर बतियाएं, तो उनके बीच कैसी गपशप होगी? वे यह सवाल भी उठाती हैं कि वैदिक काल के समाज में स्त्रियों को आदर-सम्मान दिए जाने की बात की जाती है और इस सिलसिले में गार्गी और मैत्रेयी जैसी महिला दार्शनिकों का उदाहरण दिया जाता है, लेकिन कभी यह चर्चा नहीं की जाती कि उस समाज में दासी की क्या स्थिति थी? दासी की गणना मवेशियों के साथ की गई है और वह स्वामी की संपत्ति मानी जाती थी। लेकिन यह भी सही है कि वह घर का कामकाज करने के अलावा अन्य किस्म की भूमिका भी निभाती थी, वरना वैदिक वांग्मय में दासीपुत्र ब्राह्मणों का उल्लेख न आता।
‘हममें से कौन आर्य है?’ एक अत्यंत विचारोत्तेजक निबंध है, जिसमें निर्णायक ढंग से आर्यों के एक नस्ल होने की इस धारणा का खंडन किया और बताया गया है कि आर्य समूह की भाषा बोलने वाले लोग आर्य कहलाते थे और भारत पर आर्यों द्वारा हमले की यूरोपीय विद्वानों द्वारा की गई कल्पना निराधार है। वैदिक साहित्य में आर्य शब्द को श्रेष्ठ के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है। हिंदी के पाठक भगवान सिंह द्वारा लिखित पुस्तकों में प्रतिपादित इस अविश्वसनीय निष्कर्ष से परिचित हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता और वैदिक सभ्यता एक ही थी और उनके बीच अटूट नैरंतर्य था।
रोमिला थापर का कहना है कि पुरातात्त्विक साक्ष्य और वैदिक साहित्य में पाए जाने वाले साक्ष्यों के बीच कोई समानता नहीं है। सिंधु सभ्यता का विस्तार पामीर से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र तक और बलूचिस्तान से लेकर दोआब तक था। यहां तक कि इस सभ्यता की बस्तियां ओमान तक में पाई जाती हैं। यह ताम्र-कांस्य तकनीकी पर आधारित विकसित नागर सभ्यता थी और इसके विस्तृत व्यापारिक संपर्क न केवल ऊपरी अक्षु क्षेत्र और सीमावर्ती प्रदेश के साथ, बल्कि सुदूर खाड़ी क्षेत्र और मेसोपोटामिया तक के साथ थे। अश्व से यह सभ्यता परिचित नहीं थी, जबकि वैदिक साहित्य और संस्कृति में अश्व और रथ को काफी अधिक महत्त्व दिया गया है।
वैदिक समाज नागर नहीं था और उसमें पहले तांबे और बाद में लोहे पर आधारित तकनीकी का प्रयोग किया जाता था। यही नहीं, वैदिक साहित्य में- यहां तक कि प्राचीनतम ऋग्वेद में भी- आर्येतर भाषाओं के शब्द पाए जाते हैं और परवर्ती वैदिक साहित्य में इनकी संख्या बढ़ती जाती है। जैसे-जैसे संस्कृत का प्रचार बढ़ा और उसे गैर-संस्कृत भाषी भी बरतने लगे, वैसे-वैसे उसका स्वरूप भी बदला। इसी कारण पाणिनी को अपनी ‘अष्टाध्यायी’ में- जिसका काल आमतौर पर चौथी शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है- वैदिक और लौकिक संस्कृत के बीच भेद करना पड़ा।
अभी तक हड़प्पा की भाषा को समझने के जितने भी प्रयास हुए हैं, उनसे इतना तो स्पष्ट है कि यह भारतीय-आर्य भाषा परिवार की नहीं थी। प्राकृत को अक्सर संस्कृत से उद्भूत माना जाता है, लेकिन रोमिला थापर का विचार है कि विभिन्न भाषाएं बोलने वालों के बीच संवाद की प्रक्रिया के दौरान ही इसका विकास हुआ होगा, वरना अशोक और प्रथम सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अन्य अभिलेखों में प्राकृत का प्रयोग न हुआ होता, और न ही जैन और बौद्ध ग्रंथों में पालि और प्राकृत प्रयुक्त होती।
इस पुस्तक में संग्रहीत निबंधों में अंतर्धारा की तरह प्रवाहित यह विश्वास है कि पिछली चौथाई सदी की घटनाओं और उनके कारण उदारवादी मूल्यों में हुए क्षरण के बावजूद वह समाज अवश्य बनेगा, जिसे बनाने का सपना भारत को स्वाधीन बनाने के संघर्ष में सक्रिय लोगों ने देखा था। ये निबंध अलग-अलग समय पर लिखे गए और अक्सर ये उस समय चल रहे सार्वजनिक विमर्श में हस्तक्षेप के रूप में लिखे गए थे। कुछ ने बाद में स्वतंत्र पुस्तक का रूप भी लिया, मसलन सोमनाथ पर लिखे निबंध ने। धर्म और इतिहास के जटिल संबंधों की भी इन निबंधों में पड़ताल की गई है और इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को लिखने के अनुभव के बारे में एक संस्मरण भी इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है।
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्यों का काल निर्धारण कितना कठिन और पेचीदा काम है, इसका अंदाजा ‘डेटिंग दि एपिक्स’ नामक निबंध को पढ़ कर चलता है। इन सभी निबंधों को एक सूत्र में बांधने वाली धारणा है, भारतीय इतिहास और धार्मिक तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपराओं का बहुलतावादी और विविधवर्णी होना। भारतीय समाज और उसके इतिहास को किसी एक पूर्वनिर्धारित खांचे में फिट नहीं किया जा सकता।
चलते-चलते हिंदी प्रकाशन जगत के बारे में भी कुछ कह दूं। एक ओर इस बात का रोना रोया जाता है कि हिंदी में अच्छी किताबें नहीं हैं और हिंदी पाठक अधिकतर अधुनातन ज्ञान से वंचित रहता है। दूसरी ओर स्थिति यह है कि प्रकाशक अच्छी पुस्तकें छापने से डर रहे हैं। ‘पास्ट ऐज प्रेजेंट’ को मलयालम, तेलुगू, मराठी और बांग्ला आदि आठ भाषाओं में अनुवाद करके छापने के लिए अनुबंध हो चुके हैं और जल्दी ही इन भाषाओं में यह पुस्तक उपलब्ध हो जाएगी। लेकिन हिंदी के सबसे बड़े समझे जाने वाले प्रकाशक ने पुस्तक पर विचार करके इसका अनुवाद छापने से इंकार कर दिया है। हिंदी की वर्तमान स्थिति पर अपने-आप में यह एक मार्मिक टिप्पणी है।
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