गिरिराज किशोर
जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: नोबेल पुरस्कार पंचायत ने शांति के खाते में पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई और भारत के समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार घोषित किया। शायद मलाला नोबेल पुरस्कार पाने वालों में सबसे कम उम्र की हैं। यह प्रसन्नता की बात है। इस महाद्वीप के दो ऐसे देशों के निवासियों को चुना गया, जो चाह कर भी आपस में मैत्री संबंध नहीं बना सके। पर यह पुरस्कार इन दोनों के बीच आधा बंट गया। दोस्ती के सम्मान में दो कहावतें प्रचलित हैं ‘दांत काटी रोटी’, और ‘गरीबी है तो क्या, आधी तू खा आधी मैं खाऊंगा’। ये कहावतें दो देशों पर तो लागू हो नहीं पा रहीं, पर प्रकारांतर से जाने-अनजाने दो शांति पोषक व्यक्तियों पर हो गर्इं, जो दो अमित्र देशों और ऐसे दो धर्मों से हैं, जो भारत में मिल-जुल कर रहते हैं, पर धर्म के नाम पर बांटने की तदबीर तब से चालू है, जब हिंदुस्तान एक था।
सम्मान देशों को नहीं, व्यक्तियों की उपलब्धियों और काम पर मिलता है। यह बात अलग है कि बहुत से ऐसे लोग रह जाते हैं, जिनका काम बड़ों से भी बड़ा होता है। गांधी उनमें एक हैं। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में उन बंधुआ गिरमिटियों को आजाद कराया, जिनके लिए लोहे की जंजीरों से भी सख्त कानून, वहां की गोरी सरकार ने लागू किए हुए थे। भारत लौट कर देश की आजादी के आंदोलन से जन-जन को जोड़ कर हुक्मरान को बताया कि तुम गोली-बारूद से हमें गुलाम बनाना जानते हो, तो हम गुलामी की तुम्हारी आयातित जंजीरों को शांति और अहिंसा के दम पर तोड़ कर आजाद होना भी जानते हैं। यह ठीक है कि हिंदुस्तान में ऐसे लोग भी हैं, जो बिना गांधी को जाने, पढ़े, गांधी का ही नहीं, उनके साथ जुड़े उस जन सैलाब का अपमान करते रहे हैं, जिन्होंने अपने को खपा दिया था, आज भी वे ऐसा अपनी कट्टरवादिता के कारण करते रहते हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने गांधी के जन्मदिन- दो अक्तूबर को विश्व अहिंसा दिवस घोषित कर दिया। जब प्रधानमंत्री दो अक्तूबर से कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित कर रहे थे तो मैं सोच रहा था कि विश्व में बढ़ रही अहिंसा और आतंकवाद के संदर्भ में विश्व अहिंसा दिवस का उल्लेख करके संसार को अहिंसा के प्रति जाग्रत करेंगे, पर या तो वे भूल गए या जरूरी नहीं समझा। अलबत्ता उसे देश के लिए स्वच्छता दिवस के रूप में बदल दिया। स्वच्छता का भी महत्त्व है, पर लाक्षणिक या प्रचारात्मक नहीं। गांधी के लिए वह उनके आधारभूत संकल्पों में था।
वे दक्षिण अफ्रीका से कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने आए थे। जब उन्होंने देखा कि हजारों लोग हैं और शौचालय भरे पड़े हैं, वालंटियरों से लोग शिकायत करते हैं तो वे टाल जाते हैं। तब उन्होंने मुंह पर ढाटा बांध कर शौचालयों को खुद साफ किया था। वोट के लिए नहीं। इस सफाई के संदर्भ में विलायत में पढ़े कांग्रेस नेतृत्व ने उन देसी तरीकों को तन-मन से अस्वीकृत कर दिया, जो उन्होंने खोजे थे।
कैलाश सत्यार्थी ने बिना कानूनी और सरकारी अनुकंपा के अस्सी हजार बच्चों को बचाया है। जैसे गांधी दक्षिण अफ्रीका में बार-बार पिटते थे और उठ खड़े होते थे, ये स्वयं भी पिटे। उनके दो साथी मारे भी गए। इसी तरह स्वच्छता के लिए तारीख या कैमरे की क्लिक की जरूरत नहीं होगी, न देश के प्रधानमंत्री के संबोधन की। कोई गांधी का अनुयायी और सफाई को पुनर्स्थापित करने के लिए आएगा, जैसे बच्चों की मुक्ति के लिए गांधी के अनुयायी कैलाश सत्यार्थी उठे और लोगों को चौंका दिया। कैलाश सत्यार्थी बाल अधिकारों के लिए गांधी की राह पर चले।
मदर टेरेसा ने सेवा और त्याग का व्रत भारत में आकर लिया। उन्होंने निर्मल हृदय की स्थापना की। गांधी निर्मल हृदय की जीवन भर स्थापना करते रहे। आज राजनीति से जुड़े लोग गांधी को जानते ही नहीं, तो उनके कर्म से क्या जुड़ेंगे! अलबत्ता समारोहों में सम्मिलित होने के लिए वे गांधी को, चुनाव के समय या अपने को विशिष्ट दिखाने के लिए आभूषण की तरह ग्रहण कर लेते हैं। वे नहीं जानते कि आज गांधी का चिंतन और सोच एशिया के अविकसित देशों के लिए उतना ही जरूरी हो गया है, जितना विश्व के विकसित देशों के अस्तित्व के लिए अहिंसा है।
नेलसन मंडेला ने कहा था कि मैं गांधी के सिद्धांतों से सहमत नहीं था, लेकिन मेरे पास देश को आजाद कराने के लिए उनके रास्ते पर चलने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं था। म्यामां की सू की निरंतर उनकी राह पर चल रही हैं। गांधी को कोई सम्मान मिले या न मिले, पर उनकी राह पर चलने वाले नोबेल पुरस्कार आदि प्राप्त करके उनके आलोक को संसार में फैला रहे हैं।
पर्यावरण भी गांधी के कार्यक्रमों में एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग था। खादी प्रकारांतर से पर्यावरण से जुड़ा था। आरके पचौरी, जिनको नोबेल पुरस्कार उनकी संस्था के लिए मिला, वे पर्यावरण से जुड़े हैं। कई बार लगता है कि जिसने मनोयोग से गांधी के कार्यक्रम को छू लिया या कार्यक्रम ने उसे छू दिया उसे राह मिल गई।
कांग्रेस, जो उनके संकल्प से पुनर्स्थापित हुई थी, सत्ता पाने के बाद गांधी का नाम आभूषण की तरह इस्तेमाल करती रही। आज जो गांधी को नजरअंदाज करते या लघु रूप में धारण करके सुर्खरू हो रहे हैं, सब आगे-पीछे जानेंगे कि वे कहां खड़े हैं। गांधी ऐसा मंत्र है, जो इस देश के वातावरण में रसा-बसा है और आलोक की तरह राह दिखाता है। जिन्होंने उन्हें भुलाया, वे भुला दिए गए और जाएंगे।
यहां इरोम शर्मिला का नाम भी उल्लेखनीय है। वे लगभग बारह साल से अनशन पर हैं। जेल में बंद हैं। कुछ दिन पहले उन्हें जमानत पर छोड़ा गया था। सत्याग्रह चालू रखने की घोषणा करने पर उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। वे इस बीच अपनी मां से एक बार मिलीं। वे भी आम आदमी की तरह प्यार करना चाहती हैं। गृहस्थ बनना चाहती हैं। पर उनका प्रण है कि जब तक दमनकारी कानून, जिसके तहत किसी को भी बिना कारण बताए सेना उठा कर दंडित कर सकती है, उसकी कहीं कोई अपील नहीं, निरस्त नहीं किया जाता, वे जीवन में न सुख भोग करेंगी और न अनशन छोड़ेंगी। सरकार उन पर आत्महत्या का आरोप लगा कर नाक से तरल भोजन देती है। क्या देश और जनहित में सत्याग्रह करना आत्महत्या है? उनकी गिरफ्तारी भी उसी दमनकारी कानून का दूसरा पक्ष है।
यह कानून कई सीमांत प्रदेशों में लागू है। इरोम मानवाधिकार संरक्षण की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही हैं। मलाला लड़कियों की शिक्षा के लिए एक ऐसे इलाके में लड़ाई लड़ रही हैं, जो कट््टर और लगभग नाख्वांदा है। लेकिन अभी यह स्पष्ट होना है कि भविष्य के लिए उसकी क्या योजना है। मलाला पर पहले भी तालिबान द्वारा हमला हो चुका है, अब फिर उसने नाराजगी जाहिर की है। उसे लड़कियों की शिक्षा के लिए फिर खतरा उठाना पड़ सकता है। लेकिन इरोम की योजना तो गांधी का संकल्प है- करो या मरो। अनशन और सत्याग्रह।
मलाला के साथ पूरा यूरोप है। इरोम की लड़ाई विश्व भर के उन देशों के खिलाफ लड़ाई है, जो मानव-विरोधी कानून की जंजीरें मनुष्य के गले में डालने का भय पैदा करता है। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ऐसे कानूनों को चुनौती दी थी और उससे मुक्त कराने में लगभग बीस साल लगे थे। उसी तरह इरोम की यह लड़ाई अहिंसक और शांतिपूर्ण विरोध है। लेकिन वह यूरोपीय वर्चस्व के विरुद्ध है।
यह सही है कि नोबेल के योग्य वही माना जाता है जिसे यूरोप चाहता है। भारत सरकार ने आज तक जैसे कैलाश सत्यार्थी को किसी राष्ट्रीय सम्मान के योग्य नहीं समझा उसी तरह इरोम शर्मिला भी उपेक्षा की शिकार हैं। मानवाधिकार वही है, जो सरकारों की सुरक्षा की परिधि में आता है। वैसे गांधी के सिद्धांतों को अमल में लाने वाला व्यक्ति बड़ी मुश्किल से यूरोप या सत्ताधारियों की समझ में आता है, अगर आता है तो तब जब वह जीवन की हर अग्नि-परीक्षा से गुजर चुका होता है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta