शंभुनाथ

जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: रोलां बार्थ ने पूंजी-आधारित व्यवस्था के बारे में दशकों पहले कहा था कि यह अपनी सुरक्षा के लिए ‘संकेतों का साम्राज्य’ खड़ा करती है। हालांकि प्राचीन संस्कृति में भी संकेतों का महत्त्व रहा है। अयोध्या का राज चलाने के लिए भरत ने वन जाते हुए राम से उनकी खड़ाऊं ली थी, ताकि प्रजा इसी में राम की आभासी उपस्थिति देखे!

 
आज हर संकेत एक राजनीतिक संदेश है। यह पिरामिडीय होता है, ऊपर सत्ता केंद्रों से आकार लेकर नीचे आम लोगों के बीच छा जाने वाला। आज ऐसे संकेत हर उस जगह बनते हैं, जहां देश का विकास क्षैतिजीय न होकर ऊर्ध्वाधर हो और विषमता बढ़ रही हो। वहां झूठ के कुतुबमीनार खड़े किए जाते हैं और इस निर्माण में बड़ी-बड़ी शख्सियतें राजमिस्त्री का काम करती हैं।

 
स्वच्छ भारत अभियान को लें। अकबर के दरबार की शैली में कुछ जाने-माने व्यक्ति नवरत्न बनाए गए। वे गौरव के साथ बन गए। जो मंत्री और अफसर हमेशा स्त्रियों से ही घर साफ कराते होंगे, वे अचानक झाड़ू चलाने लगे। संकेतित यह हुआ कि बड़े-बड़े व्यक्तित्व झाड़ू लगा रहे हैं- कचरा साफ कर रहे हैं, आम नागरिक भी सफाई पर ध्यान दे। राजा कितने स्वच्छता-पसंद हैं, प्रजा भी सुधरे। क्योंकि गंदगी सिर्फ आम नागरिकों ने फैला रखी है- घरों, घरों के आसपास और सड़कों-गलियों-खड़ंजों पर। गंदगी के लिए गरीबी के समुद्र में समृद्धि के टापू और भ्रष्टाचार कहां जिम्मेदार हैं!

 
स्वच्छ भारत अभियान नेताओं को सुधरने का संदेश देने की जगह जनता को सुधरने का संदेश देता है। यह ताकतवर संकेतक इस सच को ढकता है कि काला धन और भ्रष्टाचार ही मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन करता है- स्वच्छता के मानवाधिकार का भी। स्पष्ट है, प्रशासन और राजनीति में गंदगी रख कर सड़कों और गलियों में स्वच्छता नहीं लाई जा सकती। एक तरफ महाराष्ट्र के मतदाताओं से कहा जाता है, ‘जो लक्ष्मी पहुंचे, रख लो’। दूसरी तरफ, 2019 तक भारत को स्वच्छ बनाने और देश की सत्तर करोड़ आबादी तक शौचालय पहुंचाने का प्रोपेगंडा है। काफी लोगों के घर न हों, पर शौचालय बन जाएंगे। इसके लिए शीर्ष स्तर पर बराक ओबामा और बिल गेट्स का अमेरिकी सहयोग लेना तय हुआ है, बदले में व्यापारिक सुविधाएं देकर! बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनचाहा मुनाफा कमा कर गांव-गांव में शौचालय बनाना शुरू करें। यह बड़े व्यापारिक घरानों के लिए नया मानवीय चेहरा होगा।

 
इसमें संदेह नहीं कि कलह और गंदगी पूरे भारत के लोगों, खासकर हिंदी क्षेत्र के लोगों की आदतों में शामिल हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते थे, ‘दिवाली इसी हेतु है कि इसी बहाने साल भर में एक बार तो सफाई हो जाए। यह तिवहार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है।’ कई घरों में अचानक तब सफाई होने लगती है, जब विदेश से मेहमान आने वाला हो। गंदगियां बाहर के मामले उतने नहीं हैं, जितने ये भीतर मन के मामले हैं, जहां सदियों से स्वप्न कुचले गए हैं और ‘दरिद्दर’ बार-बार खेदने पर भी भाग नहीं पाया है। स्वच्छता बस धार्मिक पूजा-पाठ के समय की एक नाटकीयता बन गई है। इधर विभिन्न संकेतों से सिर्फ यह बताने की चेष्टा की जा रही है कि सरकार स्वच्छता के लिए काफी चिंतित है। यह गांवों में शौचालय और सफाई के लिए सालाना तीस हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी। पश्चिम की व्यापारिक कंपनियां पहले भारत को ‘सभ्य’ बनाने के लिए आई थीं, अब वे ‘स्वच्छ’ बनाने के लिए आएंगी।
नई सत्ता नए संकेत बनाती है। संकेतों में परिवर्तन के बिना सत्ता परिवर्तन अधूरा है। हर सरकार को लोकतंत्र के दबाव में ऊर्ध्वाधर विकास की नव-उदारवादी नीति के साथ कुछ ग्राम-लुभावन नारे चाहिए। इसलिए गांव के संदर्भ में पिछली सरकार की ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सीमित कर दी गई। इसको तरजीह न देकर स्वच्छ भारत अभियान और सांसद आदर्श ग्राम योजना लाई गई। गांधी दोनों जगह ‘टॉपिंग’ की तरह हैं। वह नई सरकार द्वारा मतादर्शगत भिन्नता के बावजूद त्यागे नहीं गए। इसमें कुछ भी विचित्र नहीं है। दरअसल, हजारों करोड़ के खर्च से जिन संकेतों का निर्माण होता है, उनकी ताकत अगस्त्य मुनि जैसी होती है, जो समुद्र पी गए थे।

 
आदर्श ग्राम योजना सांसदों के लिए एक चुनौती है और संकट भी। उनको अपने चुनाव क्षेत्र के सैकड़ों गांवों में से एक गांव को गोद लेना होगा, जिससे बाकी असंतुष्ट होंगे। गांवों के क्षैतिजीय विकास की जगह ऊर्ध्वाधर विकास में एलीट आदर्शवादी मानसिकता प्रतिबिंबित होती है। हालांकि स्वच्छ भारत अभियान में गांवों को ‘संपूर्णता’ में देखने और आदर्श ग्राम योजना के ‘अंश’ में ग्राम आदर्श खड़ा करने के पीछे एक दूरदर्शिता भी हो सकती है। नई बोतल में पुरानी शराब ही हो, ये सब बाजार अर्थव्यवस्था में बुरी तरह फंस चुके भारत में असंतोष-प्रबंधन के मामले हैं।

 
संचार क्रांति के बाद संकेत संसार में क्रांति आ गई है। क्रांति सिकुड़ कर अब संकेत निर्माण में क्रांति है। विज्ञापन की दुनिया से राजनीति तक अब सब कुछ संकेतों पर टिका है, जो नए संदेश देते रहते हैं। इनका काम झूठ को सच बना कर दिखाना है। उदाहरण के तौर पर, कंपनियों के हित को ही जनहित बना कर दिखाना है। योग, अध्यात्म, प्रवचन, भव्य पूजा-यज्ञ, देवी जागरण आदि को ही धर्म बना कर दिखाना है, धार्मिक उच्चादर्शों को लात मार कर। अंगरेजी को ही विकास की राह बना कर दिखाना है। फिल्म, म्यूजिक और अध्यात्म-बाजार के ‘पूंजी के पटाखा व्यक्तित्वों’ को ही सांस्कृतिक प्रेरणा बना कर पेश करना है। जो चापलूसी करें, वे ही अब हर जगह रत्न हैं। बौनों की परछार्इं जब लंबी हो जाए, समझना चाहिए कि यह सूर्यास्त का समय है।

 
शैंपू के विज्ञापन दिखाते हैं कि आपके बाल कितने चमकीले, लहरदार और मजबूत होंगे, जबकि इस्तेमाल करने पर कुछ ज्यादा टूटते हैं। इस तरह धार्मिक राजनीतिक ताकत से भरे संकेत दरअसल, हमारी स्मृतियों का ध्वंस करने वाले और आशाओं को कैद में डालने वाले हैं, भले लुभावने हों।
मलाला यूसुफजई और कैलाश सत्यार्थी की बहादुरी की जितनी सराहना की जाए, कम होगी। नोबेल शांति पुरस्कार देने वालों ने इनको भी संकेत बना दिया। इन्हें भारत-पाकिस्तान की बुरी हालत से जोड़ दिया गया। निश्चय ही झूठ से बने छद्मवेशी संकेतों से भिन्न होते हैं, सच से बने सरल-सीधे संकेत। फिर भी मलाला ने पश्चिम का एजेंडा रख दिया- ‘अनुरोध है, हम दोनों को जब पुरस्कार दिया जाए, दोनों देशों के प्रधान उपस्थित रहें।’ इधर कैलाश सत्यार्थी ने प्रधानमंत्री से सपरिवार मिल कर स्वच्छ भारत अभियान और सांसद आदर्श ग्राम योजना से जुड़ने की इच्छा व्यक्त कर दी। वह संकेत को पूर्ण बनाने के मलाला के अनुरोध पर चुप हो गए। सच से बने संकेतों को जब सत्ताएं निगल लेती हैं, वे अपना सच खोने लगते हैं। कहना होगा कि वे सभी लोग छोटी-छोटी मानवीय आशाओं के व्यापारी हैं, जो कभी झूठ और कभी सच से अपने ताकतवर संकेत गढ़ते हैं।

 
सत्ताएं बड़ी कुशलता से संकेतों का विराट जाल बिछा चुकी हैं। इससे आम नागरिक ऐसे फंसते हैं, जैसे मछुआरे के जाल में मछलियां फंसती हैं। यह राम की खड़ाऊं या गांधी टोपी जैसे चिह्नों का जमाना नहीं है। अब गंगा सफाई, आइपीएल-आइएसएल, स्वच्छ भारत और मलाला-कैलाश सत्यार्थी जैसे भारी पूंजी पर खड़े आधुनिक संकेतों की एक विराट वैश्विक लीला है, जहां आशा और निराशा का धूपछांही खेल और व्यापार साथ चलता है। चीजों का अर्थ जब सिर्फ वे बताने लगें, जिनके हाथ में सत्ता है, सोचना चाहिए, बुद्धिजीवी महज अर्थजीवी हो चुके हैं।

 

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