उषा बंदे

जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: राजेंद्र उपाध्याय के संग्रह पत्तियों की अज्ञात स्वरलिपि में की कविताएं मानवीय प्रतिबद्धता, प्रकृति और संस्कृति के प्रति लगाव और आज के शहरी जीवन की संवेदन-शून्यता को रेखांकित करती हैं। संकलन की पहली रचना ‘एक दिन का मेहमान’ जहां एक शिशु की मृत्यु पर शोक, मनुष्य की असमर्थता, विज्ञान की विफलता को अभिव्यक्त करती है, वहीं आखिरी रचना महानगरीय जीवन की एकरसता और नीरसता के बड़े सहज और मार्मिक ढंग से पेश करती है।
पहली कविता में कवि की मृत शिशु के प्रति गहरी संवेदना उभरती है: ‘माना कि हमारी दुनिया/ बहुत बुरी है/ पर इतनी बुरी भी नहीं/ कि एक दिन से ज्यादा/ तुम यहां नहीं रह सके।’ तो अंतिम रचना ‘दिल्ली’ में जीवन की बदरंगी कुछ इस प्रकार चित्रित है: ‘कहीं नहीं कुछ नया सब वही/ स्वप्न में भी हमारी दुनिया बदलती नहीं/ बस सब्जियों के दाम बढ़ते हैं/ तापमान बढ़ता-घटता है/ और सब वही जस का तस।’ इन्हीं अनुभूतियों के बीच अपनी तमाम रचनाओं में कवि कई गंभीर प्रश्न उठाता है।
दिल्ली के जीवन में रफ्तार, ऊब, ओछापन, गरीबी-अमीरी, दलाली, गंदगी, प्रदूषित यमुना- कुछ भी कवि की दृष्टि से अछूता नहीं है। ‘दिल्ली का नक्शा’ कविता में नई और पुरानी दिल्ली का वर्णन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया गया है। इसमें आधुनिकता और सामाजिक परिवर्तन के दौर में थपेड़े खाती परंपरागत जीवन-शैली को बखूबी उकेरा गया है- ‘पुरानी दिल्ली में नया नक्शा आया है/ नई दिल्ली का/ उसमें पुरानी दिल्ली नहीं है।’
इस दिल्ली से ग़ालिब की हवेली, परांठे वाली गली, कौमी भाईचारा, भाप का इंजन, तांगे की टाप गायब हो गई। पुराने हकीम साब की जगह झोला छाप डॉक्टरों और बहुत सारे अस्पतालों ने ले ली, जहां दवाएं नहीं हैं, दलाल हैं। यमुना में पानी नहीं है, सभ्यता का कचरा है। दिल्ली पर लिखी अन्य रचनाएं हैं- ‘दिल्ली में अवकाश विहार’, ‘दिल्ली में रविवार’, ‘दिल्ली में दलाल’ और ‘दिल्ली’, जिनमें महानगर के विभिन्न पहलुओं पर नजर डाली गई है।
हालांकि बहुत-सी कविताओं में राजेंद्र उपाध्याय आज की नागर सभ्यता और उनमें मूल्य ह्रास से क्षुब्ध नजर आते हैं, पर वे समझते हैं कि परिवर्तन के चक्र को रोका नहीं जा सकता। एक ओर मन गांव की माटी से जुड़ना चाहता है, प्रकृति के स्पंदन और धड़कन से साक्षात्कार करना चाहता है, तो दूसरी ओर वह जानता है कि अपने वर्तमान यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। तभी तो कई रचनाओं में विगत के मोह पर काबू पाने के भाव से कवि दुबारा लौटने का वादा करता है। यह वादा अंडमान के पेड़-पौधों, प्राणियों, समुद्र की लहरों से है या अपने आप से? ‘इस घर में फिर आऊंगा’, ‘एक दिन मैं आऊंगा’, ‘इस बरस मैं तुम्हें’, ‘बरसों बाद फिर खोया प्यार’ आदि कविताओं में कवि पीछे देखता है, भविष्य के प्रति आस्था रखता है।
हालांकि कवि भी जानता है कि एक बार तय किए हुए रास्ते पर दुबारा आना संभव नहीं। अगर आप आ ही गए तो समय के साथ हुआ बदलाव आपके सामने मुंह बाए खड़ा होगा और हाथ आएगी निराशा, जिसे ‘बयालीसवें बरस में आंसू’ कविता में जब कवि बरसों बाद प्रेयसी का पता ढूंढ़ने निकलता है तो पाता है ‘दरवाजे पर बड़ा-सा ताला/ मरा कबूतर/ चीखता अंधियारा।’ तब वह अपने को उलाहना देता है। बयालीस की उम्र में तुम क्या तलाशने आए हो।

पुराने दिनों की खुशबू? पीछे देखना, भूतकाल को वर्तमान में जीना उत्तर-आधुनिकता की विशेषता है। राजेंद्र उपाध्याय का इस दिशा में प्रयास उल्लेखनीय है।
इन कविताओं में ‘अंडमान’ पढ़ते हुए सहज ही एक प्रश्न मन में उठा- कवि जब अंडमान की बात करता है, तो सेल्युलर जेल क्यों भूल गया, जहां इतिहास गढ़ा गया है? इतिहास और हमारे निर्भय स्वतंत्रता सेनानियों के उल्लेख से इस रचना में और गहराई आ जाती।
साहित्यिक और राजनीतिक संदर्भ की एक बहुत सुंदर और प्रवाहमय रचना है- ‘मैं सन 36 की दिल्ली में’, जिसमें साहित्य की गरिमा बनाए रखने की इच्छा बड़े आत्मीय ढंग से व्यक्त की गई है। प्रेमचंद, जैनेंद्र, वात्स्यायन, केदार, नागार्जुन आदि गणमान्य और पूजनीय कवियों के समक्ष आज के चाटुकारी कवि, जो ‘विदूषकों के हाथों पुरस्कृत होते हैं’ नगण्य हैं और उनके साहित्य की कीमत कबाड़ जितनी भी नहीं है।
‘ऐसे समय में जब सब क्रांतिकारी कवि/ विदूषकों के हाथों पुरस्कृत हो रहे हैं/ मैं सन 36 की दिल्ली में जाना चाहता हूं/ जब पहली बार प्रेमचंद जैनेंद्र से मिलने दिल्ली आए थे/ और दरियागंज में एक पुराने मकान में ठहरे थे।’
इन साहित्यिकों की ऊंचाइयों के सामने कुतुबमीनार भी बौनी है। साहित्य, कला, नाटक में आए ओछेपन का नजारा देखिए ‘तरंग प्रेक्षागृह’ में जहां कला-प्रेमियों में अधिक चाटुकार, अंग-प्रदर्शन करती महिलाएं, कॉस्ट्यूम प्रदर्शन करने वाले दिखावे के लिए आते हैं- कोई बॉस को खुश करने, तो कोई अपने बच्चे को रंगमंच पर देखने। कुल मिला कर कवि ने आज की स्थिति पर व्यंग्य-बाण कसे हैं। फिल्मों और सीरियलों में फ्लाप हुए अभिनेता का रंगमंच प्रेम, टीवी वाली लड़कियों के हास्यास्पद प्रश्न, अभिनेता की ‘लेटेस्ट बीवी’ सब कुछ इसमें बखूबी सामने रखा गया है। कविता, साहित्य आदि में आए छिछलेपन, साहित्य के प्रति समाज का रवैया आदि को लेकर यहां कई रचनाएं हैं।
राजेंद्र उपाध्याय जहां एक ओर बेबस नजरों से मूल्यह्रास को देखते हैं, वहां शाश्वत मूल्य और सांस्कृतिक संदर्भ उन्हें संबल देते हैं। ‘गंगा केवल एक नदी का नाम नहीं’ में गंगा को हमारी सांस्कृतिक पहचान बताते हुए कवि विह्वल हो जाता है, क्योंकि हमने इसके अमृत समान जल को जहर बना दिया है। कवि कृत-संकल्प है कि वह इसे गंदगी से, ताजमहल को धुएं से, पेड़ों को काटने से बचाएगा।
प्रकृति के प्रति कवि का रुझान है, पर वह केवल पेड़-पौधे, पहाड़-नदी, चांद-तारे के पहलू से नहीं, बल्कि मानव संवेदनाओं, भावनाओं के माध्यम से देखता है। मसलन, ब्रह्मपुत्र की खोज में गए कवि को गरीबी का चित्र दिखाई देता है। ‘कुण्ड में स्नान’ कविता में बदरीनाथ में सैलानियों में भाईचारा नजर आता है। उपाध्याय की नजरों से केंचुआ भी नहीं छूटा, जिसे वे हल के आविष्कार के पहले से धरती जोतने वाला किसान का मित्र कहते हैं। इसके बाद वे एक गंभीर प्रश्न करते हैं केंचुए से: ‘तुम इस वक्त दिल्ली में क्यों नहीं हो?’ राजनीतिक संकेत यहां स्पष्ट है।
आधुनिक संदर्भ में चल रही हिंसा, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बदले की आग, खून-खराबा आदि से जुड़ी कई रचनाएं इस संग्रह में हैं, जिनमें एक सशक्त रचना है- ‘नए महाभारत का अश्वत्थामा’। यह अश्वत्थामा जगह-जगह खून, करुण रुदन, नाश छोड़ जाता है। यह रचना बहुत सामयिक और सारगर्भित है। राजेंद्र उपाध्याय की कविताओं में सामाजिक और मानवीय चेतना भरपूर है। कई स्थानों पर विरोधाभास से, तो कहीं सांकेतिक शब्दों से वे बहुत कुछ कह जाते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक की लगभग सभी रचनाएं आधुनिक भाव-बोध की अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं को कवि ने बड़ी कुशलता से उकेरा है। राजेंद्र उपाध्याय की काव्य-चेतना सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों से जुड़ी है। कुछ रचनाओं में वे अपनी हार्दिक बेचैनियों को उजागर करते हैं, तो कुछ में प्रकृति, इंसान की नियति, ओछापन, बीते समय को दुबारा जीने की ललक आदि पर टिप्पणी करते हैं। इन रचनाओं में यथार्थ और कल्पना के अनेक रंग हैं, अंतर्मन के प्रेम, आनंद, दुखों, अनुभूतियों को स्पष्ट करने का सामर्थ्य है। कहना न होगा कि कवि के पास दृष्टि और संवेदनाओं का भंडार है।

 

पत्तियों की अज्ञात स्वरलिपि में: राजेंद्र उपाध्याय; विजया बुक्स, 1/ 10753, गली नं.-3, सुभाष पार्क नवीन शाहदरा, दिल्ली; 225 रुपए।

 

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