जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: कुछ वक्त पहले देश के एक बड़े शिक्षा संस्थान की विद्वत परिषद ने कोई एक साल पहले पाठ्यक्रम में की गई बड़ी और महत्त्वाकांक्षी तब्दीली को खारिज करते हुए पुराने पाठ्यक्रम को वापस बहाल करने का फैसला किया। यह वही परिषद थी, जिसने आलोचना को दरकिनार करते हुए पिछला परिवर्तन किया था। उस वक्त इस निर्णय की आलोचना करने वाले अध्यापकों से राजनीतिक और शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने प्रश्न किया था: यह निर्णय अत्यंत शिक्षित, अपने ज्ञान-क्षेत्रों में सुपरिचित विद्वानों ने सुचिंतित ढंग से किया, क्यों किया जब आप इसे अकादेमिक दृष्टि से कमजोर बताते हैं? एक तरह से विश्वविद्यालय के अकादेमिक समुदाय ने स्वेच्छा से यह फैसला किया। लेकिन भिन्न परिस्थिति में इसी निर्णय को इसी परिषद ने फिर उतने ही निर्द्वंद्व भाव से कैसे रद्द कर दिया?
अभी डेढ़ महीने हुए देश के प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस के दिन बच्चों से सीधे बात करने का निर्णय किया। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने स्पष्ट किया कि यह कोई सरकारी फरमान नहीं है, स्वैच्छिक है। लेकिन केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा समिति, केंद्रीय विद्यालय संगठन आदि ने इसे लागू करना अनिवार्य कर दिया। अनेकानेक निजी विद्यालयों ने भी, जो अपने कामकाज में सरकार से आजाद हैं, इसे अपने बच्चों के लिए निर्विकल्प कर दिया।
दो अक्तूबर को प्रधानमंत्री ने फिर बापू-जयंती के दिन, जो पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के बाद देश का एकमात्र राष्ट्रीय अवकाश है, स्वच्छता अभियान चलाने का निर्णय किया। अवकाश रद्द नहीं किया गया था, लेकिन सभी सरकारी और स्वायत्त संस्थाओं ने अपने यहां छुट््टी प्राय: रद्द कर दी। यही नहीं, कुछ जगहों पर उच्च पदाधिकारी झाडुओं की छीना-झपटी करते और गर्वपूर्वक झाडू को ध्वज या तलवार की तरह लहराते हुए घूमते देखे गए।
1960 में इजराइल की खुफिया संस्था मोसाद ने अडोल्फ इचमैन को अर्जेंटीना में गिरफ्तार किया। इचमैन पर पंद्रह आपराधिक मामलों में मुकदमा चलाया गया, जिनमें यहूदियों की हत्या, मानवता के विरुद्ध अपराध शामिल थे। मुकदमे के दौरान उसे यह जान कर बहुत ताज्जुब हुआ कि लोग, खासकर यहूदी उससे नफरत करते हैं, क्योंकि उसका खयाल था कि उसने तो मात्र आदेश का पालन किया था। नाजियों का पीछा करने वाले प्रख्यात साइमन वीजेंथल ने कहा कि इस मुकदमे से साफ हो गया है कि लाखों लोगों की हत्या के लिए दिमागी तौर पर बीमार, सैडिस्ट या खूंखार होना आवश्यक नहीं है। उसके लिए अपना कर्तव्य करने को व्यग्र एक वफादार अनुयायी होना काफी है।
चारों उदाहरणों में एक बात सामान्य है: ये आज्ञाकारिता के परिणाम हैं। पहले तीन में किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचने का कोई खतरा न था, अंतिम उदाहरण एक अतिवादी छोर का है। इसमें लाखों लोगों की जान का सवाल था। प्रश्न है कि ऊपर के तीन प्रसंगों में शामिल लोग अगर इचमैन की स्थिति में होते, तो क्या वे उससे अलग फैसला करते?
इसके बारे में कुछ संकेत एक और घटना से मिलता है। पहले उदाहरण वाले विश्वविद्यालय में ही जब पाठ्यक्रम-परिवर्तन का अकादमिक आधार पर कुछ अध्यापकों और विद्वानों ने विरोध किया तो उनके बयान के अगले दिन ही उन पर तीखा हमला करते हुए पचास से ऊपर प्रोफेसरों और डीन का वक्तव्य प्रकाशित हुआ, जिसमें आलोचक अध्यापकों को आलसी, कुर्सीतोड़, नाकारा, अड़ंगेबाज, आदि कहा गया था। जिनके दस्तखत से यह वक्तव्य छपा था, उनमें से कम से कम दो से जब पूछा गया कि उन्होंने अपने सहकर्मियों पर ऐसा भयानक हमला क्यों किया, तो उन्होंने अपने ओहदे की मजबूरी का हवाला दिया और कहा कि वे तो मात्र अपने अधिकारियों के आदेश का पालन कर रहे थे।
इस उदाहरण से यह नतीजा निकालना बहुत गलत न होगा कि इचमैन की स्थिति कोई अपवाद नहीं है। अपने सहकर्मियों पर, बिना उनके विरुद्ध किसी व्यक्तिगत द्वेष के, शाब्दिक आक्रमण करने वाले पद की बाध्यता के कारण, अधिकारियों का आदेश मिलने पर उन पर शारीरिक आक्रमण करने में कितना हिचक पाते?
यह कैसे होता है कि सैनिक निहत्थे लोगों को घेर कर मार डालते हैं? कश्मीर हो या मणिपुर, फिलस्तीन हो या विएतनाम, रूस हो या चीन, निरस्त्र लोगों की सैन्य बलों की हत्या के उदाहरण अनेक हैं। सभ्य संसार के नेतृत्व का दावा करने वाले अमेरिका ने पिछली सदी के साठ के दशक में जब विएतनाम पर हमला किया तो दक्षिणी विएतनाम के माइ लाइ इलाके में कैप्टन मेदिना के नेतृत्व में अमेरिकी फौज की एक टुकड़ी ने तकरीबन चार सौ विएतनामियों की हत्या की। इस कुख्यात माइ लाइ जन-संहार ने भी मनोवैज्ञानिकों को उतना ही विचलित किया, जितना नाजी जर्मनी में हुए जनसंहार ने किया था।
पचास साल पहले येल यूनिवर्सिटी के अध्यापक स्टेनले मिलग्राम ने एक प्रयोग किया, जिसमें शामिल लोगों को कहा गया कि उन्हें कुछ लोगों को दंडित करने के लिए बिजली के झटके देने हैं। यह प्रयोगशाला की नियंत्रित स्थिति थी और दंड देने वालों को इसकी छूट थी कि वे झटके देना बंद कर सकते हैं। उन्हें झटका देते समय चीखें सुनाई देती थीं, जिनसे मालूम हो कि दंड का भागी कष्ट की किस अवस्था में है। मिलग्राम ने पाया कि अपने शिकार की भयंकर चीखों के बावजूद चालीस में से पचीस ने चार सौ पचास वोल्ट की तीव्रता तक के, जो अधिकतम था, झटके देना तय किया। अमेरिका यह जान कर स्तब्ध हो गया कि तकरीबन दो-तिहाई अमेरिकी आदेश मिलने पर किसी भी निर्दोष व्यक्ति को यातना देने को तत्पर होंगे।
यह प्रयोग बाद में दूसरे ढंग से दुहराया गया। जेरी बर्जर ने अपने प्रयोग में जेंडर का भी ध्यान रखा। नतीजे लगभग समान थे।
आज्ञाकारिता एक ऐसा गुण या अवगुण है, जो संस्कृतियों, जेंडर और शिक्षा के स्तर से परे, मानवीय समाज में आमतौर पर पाया जाता है। कुछ की समझ है कि जापान, चीन या कोरिया, जहां बौद्ध धर्म का प्रभुत्व है या कन्फ्युशियस-मत प्रभावशाली है, अधिक आज्ञाकारी समाज हैं। लेकिन बिलग्राम ने साबित किया कि अमेरिकी इस मामले में भिन्न नहीं हैं। क्या हम भारतीय अलग हैं?
बचपन से ही बड़ों की आज्ञा मानने के लिए शिक्षित किए जाने वाले समाज से बाद में आज्ञा के औचित्य पर विचार की अपेक्षा करना शायद ज्यादती है। आज्ञा कई मर्तबा सीधे दी भी नहीं जाती, ऐसा भ्रम होता है कि यह दरअसल, हमारा अपना निर्णय है। आज्ञाकारिता का अर्थ चुनाव की स्वतंत्रता का अभाव नहीं है। यह प्राय: स्वैच्छिक है। आज्ञा मानने पर पुरस्कार की आशा और न मानने पर नुकसान की आशंका भी सहज ही है।
मनोवैज्ञानिक योसेफ ब्रौडी के अनुसार आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के लिए आज्ञाकारिता अत्यंत उपयोगी और आवश्यक है। इसलिए बाजार एक ऐसा इंसानी दिमाग चाहता है, जो विज्ञापनों की आज्ञा मानता रहे, बावजूद उन चेतावनियों के कि इस जीवन पद्धति का अर्थ है, सामूहिक और अनिवार्य विनाश। यह बिलग्राम के प्रयोग की तरह ही है, जहां चेतावनी के बावजूद लोगों ने बिजली के झटके देना जारी रखा।
जो यह मानते हैं कि सेना का काम आज्ञाकारिता के बिना नहीं चलता, वे ऊपर के उदाहरणों के कारण इस पर विचार करना चाहेंगे कि क्या सामान्य तौर पर समाज या सत्ता का काम आज्ञाकारिता के बिना चलता है?
आज से सौ साल पहले एक व्यक्ति अफ्रीका से भारत लौटा और उसने कहा कि आजाद समाज और आजाद व्यक्ति आज्ञाकारी नहीं होता। स्वतंत्रता का स्रोत है सत्ता के प्रति अवज्ञा। सत्ता की मांगों से अनुकूलित दिमाग नहीं, बल्कि उसकी अवज्ञा करने वाला समाज अधिक परिष्कृत समाज है। अपनी स्वायत्तता को उपलब्ध करने के लिए सविनय अवज्ञा का औजार देने वाले इस व्यक्ति को आज राज्य के एजेंट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
किसी भी समाज के स्वास्थ्य का पता आज्ञाकारी होने की उसकी प्रस्तुति के स्तर से किया जा सकता है। प्रत्येक सत्ता आज्ञाकारिता चाहती है, लेकिन उसकी निरंकुशता के स्तर का पता हम इस बात से लगा सकते हैं कि कब हम आज्ञा के स्वरूप पर विचार करने में खुद को असमर्थ पाने लगते हैं। और सजग समाज वह है जो असमर्थता के अंतिम बिंदु तक लुढ़क न जाए। क्या इसके लिए आज्ञाकारिता-सूचकांक जैसी किसी चीज की कल्पना की जा सकती है?
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