अपूर्वानंद
जनसत्ता 5 अक्तूबर, 2014: अर्धेंदु भूषण बर्धन नब्बे वर्ष के हो गए। अब भी उनकी मानसिक त्वरा किसी युवा को लज्जित कर सकती है। उनका हास्य-बोध उन्हें अन्य नेताओं से अलग करता है, जिन्हें बंगाली ‘पोका-मुख’ कहेंगे। पत्रकार मित्र मोनोबिना गुप्ता बताती हैं कि अजय भवन जाकर घंटों बर्धन से बात की जा सकती है। वे उन्हें खुली शख्सियत का मालिक मानती हैं। यही अन्य वाम दलों के शीर्ष नेताओं के बारे में नहीं कहा जा सकता। वे प्रखर वक्ता भी हैं। सार्वजनिक भाषणबाजी में अव्वल रहने वाले आमने-सामने की बातचीत में खासे बोर साबित हो सकते हैं, लेकिन यह शिकायत बर्धन के बारे में नहीं की जा सकती।
बर्धन उनसे भी इत्मीनान से बात कर सकते हैं, जो उनके समर्थक या अनुयायी नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में प्राय: उनका स्वागत नहीं होता, जो एक बार उनके सदस्य रह चुके और किसी वजह से अलग हो गए हैं। लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) इस मामले में अन्य वामपंथी पार्टियों से अलग कही जा सकती है। बर्धन उनसे भी चुटकी लेते हुए ही सही, बात करते हैं, जो संशोधनवादी हो चुके हैं। वे उन्हें ‘रेनिगेड’ कह कर मुंह नहीं मोड़ लेते। वे इसकी भी इजाजत देते हैं कि उनसे बहस की जा सके।
नंदीग्राम में सीपीएम की कू्ररता के बाद सुमित चक्रवर्ती के साथ हम बर्धन से बात करने गए। जानते हुए कि अपनी पार्टी में ही वे सीपीएम समर्थक माने जाते हैं। बंगाल की राज्य और पार्टी हिंसा के विरुद्ध वाम दल खुला स्टैंड लें, ऐसी मांग उठ रही थी। बर्धन ने हम दो लोगों से, जिनमें से एक नाकुछ बंदा ही था, तकरीबन दो घंटे बात की। उस दौरान उन्होंने सुमित की सारी आलोचना से सहमति जाहिर की, लेकिन बंगाल सरकार की राजकीय और पार्टी हिंसा के खिलाफ उस वक्त कोई सार्वजनिक बयान देने में असमर्थता जताई। फिर हंसते हुए सुमित के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘मुझे लगता है आप हमारे दोस्त बने रहेंगे।’’ सुमित अपने क्षोभ को रोक न पाए। फौरन कहा, ‘‘नहीं! नंदीग्राम की घटना के बाद नहीं।’’ बर्धन अप्रतिभ नहीं हुए। बाहर तक हमें छोड़ने आए।
विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद इसकी कोशिश चल रही थी कि कम से कम उस पर सार्वजनिक चर्चा तो शुरू हो। एक सभा करने का निर्णय हुआ। राजनीतिक दलों के नेताओं को बुलाया जाए, तय हुआ। जो भारतीय वाम आंदोलन की पेचीदगी से परिचित नहीं उनके लिए यह समझना टेढ़ी खीर है कि क्यों उस सभा में दूसरे वाम नेताओं का आना उतना स्वाभाविक न था। हम फिर बर्धन के पास गए। उन्हें कहा कि यह मानवाधिकार समूहों की ओर से बुलाई सभा है, आप आएं। बर्धन ने चुटकी ली, ‘‘छत्तीसगढ़ की जेलों में हमारी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता महीनों से बंद हैं, आपने कभी उनके लिए आवाज नहीं उठाई। वे अंगरेजी पढ़े-लिखे डॉक्टर नहीं, इसलिए शायद उनका कोई मानवाधिकार नहीं!’’ लेकिन वे आए और जोरदार तरीके से विनायक की गिरफ्तारी की निंदा की, उनको रिहा करने की मांग की।
कुछ लोग कह सकते हैं कि यह खुलापन बर्धन से ज्यादा सीपीआइ का है। आखिर बिहार और झारखंड में, उस दौर में भी जब मार्क्सवादी-लेनिनवादी और बाद में माओवादी धारा के दलों की ओर से उस पर सिर्फ वैचारिक हमला नहीं हो रहा था, उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या भी की जा रही थी, उसने उन दलों के नेताओं की पुलिस मुठभेड़ में हत्या या गुपचुप गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठाई! अनेक अवसरों पर अपमानजनक शर्तों पर भी वाम एकता के लिए मोर्चा बनाया। बर्धन एक व्यक्ति के तौर पर दिलचस्प हैं और एक जिंदगी के तौर पर दूसरों के लिए प्रासंगिक।
यह टिप्पणी लेकिन उनके बारे में नहीं, उनके एक वक्तव्य से प्रेरित है। ‘हिंदू’ अखबार के संवाददाता ने नब्बे के होने पर जब उनसे बात की तो बर्धन ने कहा कि उनका कोई इरादा आत्मकथा लिखने का नहीं है। उन्होंने कहा, इसलिए नहीं लिखना चाहता कि दूसरों पर दोषारोपण करने की मेरी कोई इच्छा नहीं।
आत्मकथा कहने से दूसरों पर दोषारोपण ही बर्धन को क्यों ध्यान आया, यह विचारणीय है। पिछले दिनों छपी किताबों से शायद यह खयाल उनमें पैदा हुआ। इन्हें आत्मकथा कहना संभव नहीं। उनके प्रकाशन के समय से उनकी संस्मरणात्मकता की ईमानदारी पर भी संदेह होता है। बर्धन का कद और चरित्र इन सबसे भिन्न है। फिर यह टिप्पणी क्यों और लिखने से इनकार क्यों!
लोभ होता है कहने का कि कम्युनिस्ट पार्टी में चूंकि आत्म का लोप हो चुका होता है, इसलिए किसी प्रकार के आत्मबोध के शेष रहने का सवाल नहीं। आत्मचेतना के बिना आत्मकथा कैसे लिखी जा सकती है? लेकिन क्या अन्य दलों में आत्म सुरक्षित है? यहां आत्म कम से कम एक समस्या तो है, बाकी राजनीतिक परिवेश में वह विचार का विषय भी नहीं!
मसला दरअसल आत्मकथा के दायित्व को समझने का है। आत्मकथा पर्दाफाश नहीं है। वह अपना सामना है। शमशेर के शब्दों में, समय के चौराहे पर खड़े अकेले आदमी की तरह। वह इसकी पड़ताल भी है कि क्या जीवन प्रामाणिक तौर पर जिया जा सका है। आत्मकथा अगर आत्मस्तुति नहीं है, तो आत्मभर्त्सना भी नहीं। कम्युनिस्टों में लोकप्रिय शब्द आत्मालोचना शायद अधिक प्रासंगिक है। आत्मकथा लिखने के लिए ऐतिहासिक या काल-चेतना की आवश्यकता है। वह निष्कवच होना मात्र नहीं। आत्मकथा लिखने के लिए बौद्धिक दृढ़ता चाहिए। अल्पपठित या संकुचित दृष्टि वाले व्यक्ति की आत्मकथा को कचरा बनते देर नहीं लगती।
असल मामला लिखने से जुड़ा है और बर्धन को इस पर सोचना पड़ेगा कि न सिर्फ उन्होंने, बल्कि अन्य कम्युनिस्ट नेताओं ने भी इतना कम क्यों लिखा। श्रीपाद अमृत डांगे और इएमएस नंबूदरीपाद के अलावा लेखक-कम्युनिस्ट नेता नगण्य हैं। पैंफलेट उन्होंने लिखे हैं, कई तो उनके नाम से लिखे गए हैं, लेकिन किताब या सुचिंतित निबंध शायद ही किसी ने लिखा हो!
किताब लिखना पर्चा लिखने से अलग है। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के नेताओं ने लगता है श्रम विभाजन कर लिया: आंदोलन करना अपने जिम्मे ले लिया और सोचना और सिद्धांत निरूपण अपने अकादमिक सहकर्मियों के हाथ छोड़ दिया। इसके परिणाम दोनों के लिए शुभ नहीं हुए। सर्जनात्मक दृष्टि के अभाव में आंदोलन बेजान हो गए और अकादमिक चर्चा अत्यंत प्रत्याशित राह पर चली। वही वामपंथी लेखन उत्तेजक बन सका, जो पार्टी से अलग हुए बौद्धिकों ने किया। श्रम और कार्य विभाजन के विरोधी मार्क्स के अनुयायी स्वयं वही कर बैठे!
एक समय के बाद बौद्धिक संघर्ष में भी दिलचस्पी घट गई। ‘पोलेमिकल’ लेखन के लोप ने आमतौर पर लेखन शैली को एकरस कर दिया। क्या इसका कारण व्यावहारिक संसदीय राजनीति का प्रभुत्व था, जिसमें निरंतर नए गठजोड़ की संभावना से कोई प्रतिपक्ष रह ही नहीं गया?
लिखने का अर्थ है अपने लिए और अपने तौर पर जमाने को समझना और उसमें अपनी भूमिका की पहचान करना। प्रदत्त ज्ञान को ज्यों का त्यों स्वीकार करना और उस पर खुद विचार न करना अपनी जिम्मेदारी से विमुख होना है। मार्क्स के कहे को कि असली काम दुनिया की व्याख्या का नहीं, उसे बदलने का है, उनके अनुयायियों ने कुछ ज्यादा ही अक्षरश: समझा। सवाल है कि बदलती दुनिया की गति में उसे मानवीय दिशा में बदलने के तरीके क्या होंगे। क्या ज्ञान निदान, नुस्खा या चिकित्सा है?
मानवीय उत्तदायित्व के निर्वाह में विफलता का अपराधबोध आज भी वाम दलों से अधिक और कहीं नहीं। इसलिए असंतोष भी वहां गहरा है। यह उर्वर असंतोष है, जो नई ज्ञानात्मक सक्रियता का स्रोत हो सकता है। अभी जब ऐसा लग रहा है कि दुनिया बंद गली में फंस गई है, यह असंतोष ऐसा डायनामाइट भी बन सकता है, जो बंद रास्ते को विस्फोट से खोल दे।
यह विस्फोट ज्ञान का ही हो सकता है। और वह लिखने का मामला है। कॉमरेड बर्धन शतायु हों, लेकिन लिखते हुए हों, यह क्या गलत आकांक्षा है?
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