नई सामान्य स्थिति की दुनिया में आएं। नई सामान्य स्थिति यह है कि चुनाव सत्तारूढ़ दल के (गुजरात के मामले में बाईस साल के) कामकाज पर नहीं, बल्कि एक अशालीन टिप्पणी पर लड़े जाएंगे, जिसे तोड़-मरोड़ कर और अनुपात से बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाएगा।
नई सामान्य स्थिति
नई सामान्य स्थिति यह है कि भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व सेना प्रमुख, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्तों और कई पूर्व नौकरशाहों के खिलाफ बेहद निर्मम आरोप लगाए जाएंगे, और पूर्व प्रधानमंत्री माफी मांगने की मांग करेंगे।
नई सामान्य स्थिति यह है कि सरकार का रुख ही ‘राष्ट्रीय’ रुख होगा, हरेक के लिए यह निषिद्ध होगा कि वह इस ‘राष्ट्रीय’ रुख से भिन्न नजरिया रखे! (इसलिए, मान लें कि नोटबंदी अच्छी थी, जीएसटी का स्वरूप और क्रियान्वयन एकदम ठीक रहा, ‘पहली बार हुई सर्जिकल स्ट्राइक’ ने पाकिस्तान का भुरता बना दिया और डोकलाम गतिरोध का अंत चीन पर भारत की निर्णायक जीत के रूप में हुआ)।
नई सामान्य स्थिति यह है कि चुनाव को प्रभावित करने के लिए हरेक नियम को तोड़ा-मरोड़ा जाएगा- चाहे वह प्रचार के आखिरी दिन साबरमती के नगरीय तट से सरदार सरोवर तक सीप्लेन की सवारी हो या मतदान के दिन नई पनडुब्बी का अवतरण।
2014 के संसदीय चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने स्वयं को मध्यमार्गी राजनेता के रूप में पेश किया था, जिसकी दिलचस्पी सबसे ज्यादा भारत के, और वास्तव में, भारत के सब लोगों के आर्थिक विकास में थी। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके ब्रांड शासन के कई विवादास्पद पहलू बड़ी होशियारी से और बड़ी कल्पनाशीलता से तैयार किए गए चुनाव अभियान के नीचे दफना दिए गए। चुनाव परिणाम ने व्यक्ति को भी सही ठहराया और उस चुनाव प्रचार को भी।
वह मॉडल गुजरात विधानसभा के चुनाव में एकदम नए रूप में उपस्थित था। ऐसे राज्य में, जहां भाजपा ने बाईस साल शासन किया, पार्टी अपने कामकाज पर चुनाव नहीं लड़ रही थी। भाजपा का प्रचार अभियान एक अध्ययन का विषय हो सकता है कि कैसे एक खूब ऊर्जावान चुनावी मशीनरी, नैतिक तकाजों को ताक पर रख कर और असीमित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए सच्चाई और अतिरेकी प्रचार के बीच के फर्क को धुंधला सकती है।
चेतावनी के संकेत समझें
इस बीच अर्थव्यवस्था के गोता लगाने का क्रम जारी है। सरकार जीडीपी वृद्धि दर में तनिक इजाफे (2017-18 की पहली तिमाही में 5.7 फीसद से बढ़ कर दूसरी तिमाही में 6.3 फीसद) का जश्न मना रही है। लेकिन औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) पर नजर डालें। आइआइपी में, अक्टूबर 2017 में, पिछले साल के इसी महीने के बरक्स, बस 2.2 फीसद की मामूली बढ़ोतरी हुई। मैन्युफैक्चरिंग में 2.5 फीसद वृद्धि हुई। महंगाई बढ़ने का क्रम जारी है: खुदरा महंगाई जो कि अक्टूबर में 3.6 फीसद थी, बढ़ कर नवंबर में 4.9 फीसद हो गई, और महंगाई में यह बढ़ोतरी रोजमर्रा की जरूरी चीजों के दाम बढ़ने से हुई है। मसलन, सब्जियों की कीमतों में पिछले महीने के 7.5 फीसद के मुकाबले 22.5 फीसद की बढ़ोतरी हुई। कृषि क्षेत्र ने 2017-18 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में 1.7 फीसद की निराशाजनक वृद्धि दर्ज की है।
निकट भविष्य में इन आंकड़ों के कोई खास बेहतर होने की संभावना नहीं है। जुलाई-सितंबर 2017 के दौरान, निजी क्षेत्र की केवल 246 परियोजनाएं घोषित हुर्इं, जिनसे कुल 43,492 करोड़ रु. का निवेश होगा। यह दस साल से भी ज्यादा अरसेमें सबसे कम है। कॉरपोरेट जगत में न तो निवेश की इच्छा दिखती है न नए निवेश के लिए पैसा है। कॉरपोरेट मुनाफे में चालू वित्तवर्ष की पहली तिमाही में 21 फीसद और दूसरी तिमाही में 8.6 फीसद की सिकुड़न आई, 2016-17 की समान तिमाहियों की तुलना में।
मुझे नहीं मालूम सरकार अर्थव्यवस्था से संबंधित असल- और चिंताजनक- मुद््दों का सामना कब करेगी। प्रधानमंत्री ने 14 दिसंबर को फिक्की की सालाना बैठक के अवसर पर एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। उनकी जिस बात को लेकर सुर्खियां बनीं, वह यह थी कि पिछली सरकार के समय बैंकिंग सिस्टम की संगठित लूट हुई! यह हैरानी का विषय नहीं है कि सम्मोहित भाले-भाले लोगों ने इसे चुपचाप सुन लिया, और कुछ ने तो तालियां भी बजार्इं!
एनपीए की सच्चाई बनाम कुप्रचार
क्या एनपीए समस्या संगठित लूट का मामला है? तथ्य खुद बोलते हैं (देखें तालिका)
मार्च 2014 के अंत में 2,16,739 करोड़ रु. के ऋण फंसे हुए (नॉन-परफार्मिंग) थे। इसका अर्थ है कि बाकी ऋण अपना काम कर रहे थे और ब्याज तथा मूलधन की किस्तें चुकाई जा रही थीं। फिर क्यों काम कर रहे ऋण, फंसे हुए कर्ज (नॉन परफार्मिंग) की श्रेणी में आ गए। क्यों निजी क्षेत्र के बैंकों का भी एनपीए बढ़ कर करीब चार गुना हो गया- 19,986 करोड़ रु. से 73,842 करोड़ रु.? जबाव है, घरेलू अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती और बाहरी वातावरण का बदतर होना, जिससे निर्यात प्रभावित हुआ। बेशक, कुछ लेनदारों की बेईमानी भी एनपीए बढ़ने की एक वजह रही।
इसके अलावा, एक और सवाल है जिसका जवाब देने से सरकार ने कन्नी काट रखी है। मार्च 2017 के अंत में जितना एनपीए था, उसका कितना हिस्सा मई 2014 में राजग के सत्ता में आने के बाद कर्ज के तौर पर दिया गया? फिर, अगर संगठित लूट का आरोप सही है, तो क्यों बैंकों ने और सरकार ने 2014-15 से 2016-17 के बीच, न चुकाने वालों के कुल 1,88,287 करोड़ रु. के कर्ज रफा-दफा कर दिए।
मैं आशा करता हूं कि गुजरात के ओछे चुनाव प्रचार के तमाशे के बाद हम अर्थव्यवस्था पर बहस की तरफ लौट सकते हैं। लेकिन बहस एक झूठे बयान और अपुष्ट आरोप पर शुरू नहीं हो सकती।