कहा जाता है कि शब्द कितने भी कठोर हों, किसी को क्षति नहीं पहुंचा सकते। अलबत्ता वे लौट कर बोलने वाले को आक्रांत किए रहते हैं। एक ऐसे नेता के प्रति मैं काफी उदारता बरतने को तैयार हूं जो कभी केंद्र सरकार में मंत्री नहीं रहा, जो खुद अपनी स्वीकारोक्ति के मुताबिक, जहां तक दिल्ली या केंद्र सरकार का सवाल है, उस समय तक एक बाहरी व्यक्ति ही रहा। इसके बावजूद मैं मानता हूं कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रचार अभियान की अगुआई करते हुए नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के प्रति जैसी भाषा का इस्तेमाल करते रहे वह बेहद आक्रामक थी। इससे एक ऐसे शख्स की छवि उभरती थी जिसने अपने शब्दों के चयन और इसके नतीजे पर सोचा-विचारा न हो।

कठिन स्थिति का सामना

प्रधानमंत्री मोदी अब एक असुविधाजनक स्थिति का सामना कर रहे हैं। एक जनमत सर्वेक्षण के मुताबिक, ‘जनता’ भारी बहुमत से चाहती है कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अधिक से अधिक फौजी ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए। मीडिया के एक हिस्से ने, ‘चीयरलीडर्स’ ने बड़ी ढिठाई से घोषित कर दिया कि ‘भारत प्रतिशोध चाहता है’ और ‘भारत दंड देना चाहता है’। भाजपा के एक महासचिव (जो आरएसएस से पार्टी में उधार के तौर पर गए हैं) ने ‘एक दांत के बदले पूरा जबड़ा’ का सिद्धांत घोषित किया। मोदी सरकार ने, पठानकोट और उड़ी हमलों के संदर्भ में, हालात का जिस तरह से सामना किया, सर्वे के मुताबिक अधिकतर भारतीयों ने उसे सही नहीं ठहराया।

प्रधानमंत्री ने कहा कि उड़ी हमले के दोषी ‘बख्शे नहीं जाएंगे’। इसके साथ, 2014 के चुनावों के दरम्यान दिए मोदी के भाषणों को रख कर देखें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि तब उनके बयानों से यही ध्वनि निकलती थी कि पाकिस्तान पर पलटवार के वास्ते भारत सैन्यशक्ति का इस्तेमाल करेगा।यह स्तंभ मैं उड़ी हमले के पांच दिन बाद लिख रहा हूं; अब तक कोई सैन्य कार्रवाई नहीं हुई है। एक अपुष्ट दावा यह जरूर है कि सेना ने कुछ घुसपैठियों को मार गिराया है (और अपने एक जवान को खोया है)। तैश में आया विदेश मंत्रालय शाब्दिक कार्रवाइयों में मुब्तिला है: कड़े बयान, पाकिस्तान के उच्चायुक्त को लानत-मलामत और संयुक्त राष्ट्र में जोरदार प्रतिवाद।यह नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है। हमने ऐसी कवायद पहले भी देखी है। कोई आतंकी हमला होता है, सबूत हमले के स्रोत पाकिस्तान में होने की तरफ इशारा करते हैं, जनाक्रोश के बीच दंडित करने की कार्रवाई की मांग होती है, समझदार लोग संतुलित कदम उठाने की सलाह देते हैं, मन मसोस कर भारत की क्षमता की सीमा मान ली जाती है, और अंत में भारत कूटनीतिक आक्रमण का निश्चय करता है।

पाकिस्तान आज

सीमापार आतंकवाद को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि हमारे पास पाकिस्तान के प्रति एक निरंतर और सुसंगत नीति हो, जिसके मुख्य तत्त्व वस्तुस्थिति की निम्नलिखित स्वीकृति पर आधारित होने चाहिए-

1. पाकिस्तान एक सरकार के अधीन कोई स्थायित्वपूर्ण देश नहीं है; पाकिस्तान के भीतर कई ढांचे हैं जो राजकीय शक्ति से लैस हैं, इनमें सबसे उल्लेखनीय हैं सेना और आइएसआइ। फिर, राज्यतंत्र से इतर भी कई खिलाड़ी हैं जो बेलगाम हैं और जिन पर राजकीय शक्तियों का वरदहस्त है।

2. पाकिस्तान में आंतरिक सुरक्षा की हालत बहुत खराब है। अनेक प्रांतों में जन-असंतोष है।

3. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था डांवांडोल है और दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गई है। जनता के बीच केंद्रीय सरकार की लोकप्रियता बहुत कम है और वह फिरकापरस्ती के जरिए अपने समर्थन का आधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है।

4. पाकिस्तान पर मुट्ठी भर अभिजात लोगों की हुकूमत है जिन्होंने नौकरशाही तथा सेना में उच्च पदों पर कब्जा कर रखा है। राजनीतिकों के पास- वे भी इसी छोटे-से तबके से आते हैं- नौकरशाहों और फौजी अफसरों से हाथ मिलाने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।

5. पाकिस्तान में इस्लामवादी शक्तियां, भले वह खुद आइएस न हो, पिछले दशक में मजबूत हुई हैं।
पाकिस्तान के प्रति यूपीए सरकार की नीति इन तत्त्वों को जानने-पहचानने का प्रयास करते हुए भारत की सरहदों की सुरक्षा करना, देश को आतंकी हमलों से बचाना और पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में कहर मचाने से रोकना था। यह कोई आदर्श या एकदम बेदाग नीति नहीं थी, इसमें कुछ गलतियां भी हुर्इं, पर कुल मिलाकर हमने अपने मुकाम हासिल किए।
भारत और पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ; पिछला युद्ध करगिल के मुद््दे पर 1999 में लड़ा गया था। आपसी रिश्ते जड़ीभूत नहीं हो गए थे; भारत और पाकिस्तान के बीच विभिन्न स्तरों पर संवाद निरंतर जारी था, पर न तो अतिरंजित भंगिमाएं थीं(जैसे, लाहौर जाकर ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ कहना) न उद्धत ढंग से लिये जाने वाले फैसले (जैसे, विदेश सचिव स्तरीय वार्ता को निर्धारित तारीख से एक रोज पहले रद््द घोषित कर देना)।

मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद, 2008 से 2014 के बीच कोई आतंकी हमला नहीं था जिसके स्रोत पाकिस्तान की तरफ ले जाते हों। जनवरी 2010 और मार्च 2013 के बीच कोई फिदायीन हमला नहीं हुआ। संक्षेप में, पाकिस्तान के व्यवहार में सुधार दिखा। कश्मीर घाटी की स्थिति में 2010 के बाद नाटकीय सुधार आया, और सैलानियों का आना काफी बढ़ गया। वर्ष 2010 से 2014 के बीच नागरिकों और फौजियों के हताहत होने की घटनाएं सबसे कम हुर्इं।

रक्षात्मक-आक्रामक

बुद्धिमानी इसी में है कि पाकिस्तान के प्रति हम एक नीति बनाएं, जो कठोर विश्लेषण, संजीदा तर्कों, व्यावहारिकता और अपने हितों पर आधारित हो। हमें अतीत से सबक सीखने की जरूरत है: करगिल, आगरा, शर्म अल-शेख, मुंबई, लाहौर/पठानकोट और उड़ी। परिस्थितियों के मद््देनजर, एक रक्षात्मक-आक्रामक नीति सबसे अच्छी नीति मालूम पड़ती है।
इसका अर्थ है कि हमें सबसे पहले अपनी सीमा सुरक्षा और सदृढ़ करने, घुसपैठ रोकने, खुफिया क्षमता बढ़ाने और जहां भी संभव हो एहतियाती कदम उठाने की जरूरत है।इसका अर्थ है कि हम पाकिस्तान से विभिन्न स्तरों पर संवाद करें, पर एक सोची-समझी और सतर्क दूरी बनाए रखें।इसका अर्थ है कि हम स्वीकार करें कि जम्मू-कश्मीर में एक अनसुलझा राजनीतिक मसला है और जम्मू-कश्मीर में सभी संबद्ध पक्षों से संवाद के जरिए एक सम्मानजनक तथा संवैधानिक समाधान तलाशने के लिए साहसिक तथा लीक से थोड़ा हट कर पहल करें। और शह तथा मात के इस खेल में हम न तो दंभ के शिकार हों (जब हम कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करें) न विषाद के (जब हमें फौरी तौर पर नाकामी हाथ लगे)।