खबर है कि राजस्व सचिव ने केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को पत्र लिख कर पूछा है कि संशोधित बजट अनुमानों के बरक्स प्रत्यक्ष करों की वसूली में कमी क्यों आई। राजस्व सचिव ने साल के अंतरिम आंकड़े आने का इंतजार नहीं किया। मेरा खयाल है उन्होंने अपनी हताशा जाहिर की।

प्रत्यक्ष कर वसूली आर्थिक सेहत का एक अहम पैमाना क्यों है?

जाहिर कमजोरियां

बजट में अनुमान लगाया गया था कि 2015-16 में प्रत्यक्ष कर वसूली 7,97,995 करोड़ रुपए होगी। संशोधित अनुमान घट कर 7,52,021 करोड़ रुपए रह गया। असल प्राप्ति और भी कम हो सकती है। इसका अर्थ है कि सरकार बजट में बताई गई पैंतालीस हजार करोड़ से अधिक की राजस्व-राशि वसूल करने में नाकाम रही। लक्ष्य के मुकाबले प्राप्ति में कमी का आंकड़ा और बढ़ सकता है। इस तरह की कमी अर्थव्यवस्था की कई तरह की कमजोरियों की तरफ इशारा करती है:
* पहली यह कि व्यक्तियों की आय में कमी आई है और कॉरपोरेट मुनाफा तेजी से गिरा है;
* दूसरी यह कि व्यक्ति और परिवार की बचत-राशि कम हो रही है;
* तीसरी यह कि फर्म/कॉरपोरेट नए वित्तवर्ष में कम निवेश करेंगे;
* चौथी यह कि संगठित तथा असंगठित दोनों क्षेत्रों में पारिश्रमिक/वेतन में मामूली ही बढ़ोतरी होगी;
* पांचवीं, रोजगार के नए अवसर नगण्य होंगे;
* छठी, उपभोक्ताओं और निवेशकों द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग धीमी पड़ जाएगी।
उपलब्ध आंकड़े ऊपर-लिखित कमजोरियों की गवाही देते हैं। फिर भी प्रधानमंत्री खुश हैं। ‘ब्लूमबर्ग इंडिया फोरम’ को मोदी ही कह सकते हैं कि उनकी सरकार की समझदारी भरी नीतियों के चलते ‘अर्थव्यवस्था की हालत बहुत अच्छी है।’

भोले तर्क
1. दावा: तेल की कीमतों में आई सत्तर फीसद की गिरावट के सकारात्मक असर का महत्त्व कम करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘2008 और 2009 के बीच कच्चे तेल की कीमतें 147 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई से गिर कर पचास डॉलर से भी नीचे आ गर्इं। फिर भी, 2009-10 में भारत का राजकोषीय घाटा, चालू खाते का घाटा और महंगाई दर बहुत चिंताजनक स्तर पर पहुंच गए थे।’’
जवाब: वर्ष 2009-10 से तुलना करना एकदम बेतुका है। यह वह साल था जब वैश्विक वित्तीय संकट (सितंबर 2008) का पूरा असर महसूस किया जा रहा था, और वैश्विक वृद्धि दर गिर कर 0.028 फीसद पर आ गई थी। यह सारी प्रतिकूलता की मूल वजह थी। अर्थशास्त्रियों ने इस संकट को महा मंदी का नाम दिया। वर्ष 2015 में वैश्विक अर्थव्यवस्था ने 3.1 फीसद की वृद्धि दर दर्ज की, और इससे तुलना करें तो तेल के मद में मिले जबर्दस्त फायदे का महत्त्व कम करके बताने का मोदी का प्रयास बचकाना मालूम देगा। खुद सरकार का आर्थिक सर्वे कहता है कि भारत को यह लाभ जीडीपी के लगभग दो फीसद के बराबर हुआ।

2. दावा: पंद्रह महीनों से निर्यात की नकारात्मक दर की बाबत मोदी ने कहा कि ‘हमें वैश्विक व्यापार या वैश्विक वृद्धि से लाभ उठाने का सुयोग प्राप्त नहीं हुआ। दोनों की दर नीची है, लिहाजा निर्यात नहीं बढ़ा सके।’
जवाब: बकौल आर्थिक सर्वे ‘(निर्यात की) गिरावट में आई तेजी वास्तव में बाहरी प्रतिकूल परिस्थितियों के मुकाबले बहुत ज्यादा है।’ यानी मोदी की अपनी ही टीम उनकी दलील को सही नहीं मानती।

3. दावा: मोदी ने राजकोषीय मजबूती को ‘समझदारी, सही नीति और प्रभावकारी प्रबंधन’ के मुख्य उदाहरण के रूप में पेश किया।
जवाब: वर्ष 2015-16 में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की समय-सारिणी को एक साल आगे खिसकाने का सरकार का फैसला बुद्धिमानी-भरा कदम नहीं था। तेल की कीमतों में मिले जबर्दस्त फायदे के चलते सरकार को जीडीपी के एक फीसद के बराबर बचत हुई, जिससे राजकोषीय सुदृढ़ीकरण 2015-16 में बहुत आसान हो गया था। हालांकि राजकोषीय घाटे को साढ़े तीन फीसद तक लाने का लक्ष्य हासिल करना काबिले-तारीफ है, पर इसका गणित उलझन में डालने वाला है (देखिए 13 मार्च 2016 का मेरा स्तंभ)।
दावे और तथ्य

4. दावा: मोदी ने ऋण-वृद्धि और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) जैसे संकेतकों का जिक्र किया।
जवाब: मौजूदा ऋण-वृद्धि दर 11.5 फीसद है, जो कि लंबी अवधि के औसत से कम है। इसके अलावा, औद्योगिक ऋण में केवल 5.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई है और मझले उद्योगों के ऋण में तो वास्तव में 7.15 फीसद की सिकुड़न आई है। एफडीआई वर्ष 2015-16 की तीसरी तिमाही में जीडीपी का 2.04 फीसद था, जो कि औसत है: यह 2007-08 की चौथी तिमाही में कहीं अधिक था (2.53 फीसद), 2008-09 की पहली तिमाही में 2.79 फीसद और 2009-10 की दूसरी तिमाही में 2.43 फीसद।

5. दावा: मोदी ने दावा किया कि सरकारी योजनाओं के चलते किसानों की आय 2022 तक दुगुनी हो जाएगी।
जवाब: मेरे स्तंभ (6 मार्च 2016) समेत अनेक लेखों में इस दावे की धज्जियां उड़ाई गई हैं। यह होना नहीं है, क्योंकि किसानों की आमदनी सालाना बारह फीसद की दर से नहीं बढ़ेगी।

6. दावा: मोदी ने बड़े प्रसन्न भाव से ‘रूपांतरण के लिए सुधार’ (रिफॉर्म टु ट्रांसफॉर्म) के अपने लक्ष्य के बारे में बताया और कई मिसालों का जिक्र किया।
जवाब: मनरेगा की मजदूरी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण, वित्तीय समावेशन योजना के तहत बैंक खाते खोला जाना, खाद्य सुरक्षा कानून आदि काम यूपीए सरकार ने शुरू किए थे। स्पेक्ट्रम की पहली नीलामी यूपीए सरकार के दौरान हुई थी। अलबत्ता कोयला खदानों की पहली बार नीलामी राजग सरकार के दौरान हुई। ‘हेल्प’ और ‘उदय’ वास्तव में ‘हेल्प-द्वितीय’ और ‘उदय-द्वितीय’ हैं, पुरानी नीतियों को सुधारने का एक प्रयास। दूसरी पहलें, फिलहाल महज घोषणाएं हैं।

7. दावा: मोदी ने रोजगार-वृद्धि के लिए अपनी सरकार की पहलों के बारे में बताया।
जवाब: श्रम ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक आठ श्रम-सघन उद्योगों में वर्ष 2015 के पहले नौ महीनों के दरम्यान नए रोजगारों में 1.55 लाख की कमी आई, जो कि 2013 और 2014 की समान अवधि में सृजित हुए नए रोजगारों के पचास फीसद से कम और 2011 की समान अवधि के मुकाबले पच्चीस फीसद से कम है।

मुझे सरकार की मंशा पर शक नहीं है। मुझे जो बात परेशान करती है वह यह कि क्या वर्तमान आर्थिक स्थिति पर सरकार की अचूक पकड़ है। जीडीपी की साढ़े सात फीसद वृद्धि दर की चमक-धमक में इस हकीकत से आंख नहीं चुरानी चाहिए कि कुल मांग कमजोर है, निवेश लड़खड़ा रहा है, निर्यात थमा हुआ है और नए रोजगार की दर लगभग शून्य है। यह खुशफहमी में जीने का वक्त नहीं है।