पिछले हफ्ते सोशल मीडिया पर नरेंद्र मोदी का एक वीडियो खूब वायरल हुआ। इस वीडियो को प्रधानमंत्री की मर्जी से बनाया गया होगा, वरना प्रधानमंत्री निवास के बगीचे में किसको घूमने की इजाजत मिलती है और वह भी जब प्रधानमंत्री खुद टहल रहे हों। वीडियो में दिखता है कि मोर टहल रहे हैं प्रधानमंत्री के आसपास और जब मोदी जी अपनी चौखट पर बैठ जाते हैं तो उनके हाथों से मोर दाना खाते दिखते हैं और अंत में मोर के नाचने का अति-सुंदर नजारा दिखता है।

अच्छा वीडियो था, लेकिन समस्या यह है कि कुछ ही घंटों बाद खबर मिली कि भारत की अर्थव्यवस्था जितने बुरे हाल में है आज, कभी पहले नहीं रही है। जीडीपी (सालाना वृद्धि) बढ़ने के बदले 23.9 प्रतिशत कम हो गई है। बेरोजगारी जितनी आज है, पिछले चालीस वर्षों में नहीं रही है और दूर तक अच्छे दिन आने की गुंजाइश नहीं दिख रही है, क्योंकि कोरोना अगले दो वर्षों तक हमारे बीच रहेगा, ऐसा कहना है विश्व स्वास्थ संगठन का।

प्रधानमंत्री मोदी ने मुझे कभी कहा था कि वे राजनीति में न आते तो शायद किसी पहाड़ी गुफा में तपस्या कर रहे होते, क्योंकि उनका स्वभाव आध्यात्मिक किस्म का है। है तो यह बड़ी अच्छी बात, लेकिन इतने बड़े संकट के समय देश को आवश्यकता है मजबूत, निर्णायक नेतृत्व की। बिल्कुल उस किस्म का नेतृत्व, जो मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले महीनों में दिखाया था महत्त्वपूर्ण राजनीतिक फैसले लेकर। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 का कवच कानूनी तरीके से हटा दिया गया। बहुत बड़ी बात थी यह और इसके बाद नागरिकता कानून में संशोधन लाया गया, जिसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुसलिम शरणार्थियों के लिए भारत के दरवाजे बंद होंगे।

अलग बात है कि कश्मीर घाटी में न जिहादी आतंकवाद कम हुआ है और न उसके दो टुकड़े कर देने के बाद विकास आया है। यह भी अलग बात है कि नागरिकता कानून में संशोधन के कारण आम मुसलमान सड़कों पर उतर आए थे हमारे शहरों में विरोध जताने। शायद आज भी विरोध कर रहे होते अगर कोरोना न आता। कम से कम अलोकप्रिय फैसले लेने का साहस दिखाया प्रधानमंत्री ने।

अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी ने सिर्फ एक बार ऐसा कोई निर्णायक नेतृत्व दिखाया है, जब उन्होंने नाटकीय अंदाज में टीवी पर आकर कह दिया कि ‘आज रात बारह बजे के बाद हजार और पांच सौ रुपए के नोट चलन में नहीं होंगे।’ नोटबंदी का महान लक्ष्य- काला धन समाप्त करना- जब हासिल नहीं हुआ तो मोदी भूल गए अपने इस निर्णय को। जिक्र तक नहीं करते हैं नोटबंदी का आजकल, लेकिन देश के बड़े अर्थशास्त्री स्वीकार करते हैं कि नोटबंदी से ही शुरू हुई थी अर्थव्यवस्था में मंदी।

इसलिए, करोना से पहले ही जीडीपी की वृद्धि इतनी थम गई थी कि जानकार कहने लगे थे कि इसकी तुलना उस दशकों पुराने दौर से की जा सकती है, जब हमारी अर्थव्यवस्था बैलगाड़ी की चाल चला करती थी और लोग इस चाल को व्यंग्य में ‘हिंदू वृद्धि रफ्तार’ कहा करते थे। ये दशक थे 1991 वाले आर्थिक सुधारों के पहले के, जब लाइसेंस राज के नियम इतने कठोर थे कि अगर कोई कारखाना अपने कोटा से ज्यादा उत्पादन करता, तो मालिक को दंडित किया जाता था।

ये वे दशक थे, जब चीन के नेताओं ने मार्क्सवादी सोच को कूड़ेदान में फेंक कर विदेशियों को चीन में निवेश करने को आमंत्रित किया था। इस दौर में चीन ने शुरू किया अमेरिका और यूरोप के बच्चों के लिए खिलौने बनाना और इतना कामयाब हुआ कि आज विश्व के नब्बे फीसद खिलौने चीन में बनते हैं।

मोदी जी अब कह रहे हैं कि हमको ‘वोकल फॉर लोकल’ होकर भारत में खिलौने बनाने चाहिए दुनिया के लिए, लेकिन भूल गए हैं कि इसके लिए चाहिए बड़े-बड़े कारखाने। हमारे राजनेताओं ने बहुत पहले तय कर लिया था कि खिलौनों का उत्पादन सिर्फ छोटे उद्योगों के लिए आरक्षित रहेगा। क्या इस नियम को बदलने वाले हैं प्रधानमंत्री?

क्या बड़े-बड़े उद्योग लगाने में अब आसानी होगी? क्या कारखाना लगाना आसान हो जाएगा? क्या हमारे सरकारी अफसर अब कारोबार में अपना हस्तक्षेप कम करेंगे? मोदी के राज में विदेशी पैसा काफी आया है, लेकिन ज्यादातर गया है शेयर बाजार में; नए कारखानों में नहीं, नई परियोजनाओं में नहीं। कारण सिर्फ एक है : कारोबार करना भारत में आज भी आसान नहीं है। लालफीताशाही उतनी ही है, जितनी पहले थी और बड़े साहबों की अड़चनें उतनी ही बड़ी, जितनी पहले थीं।

ऊपर से समस्या यह भी है कि अगर कोई निजी कंपनी सड़क या बांध बनाती है तो भारत सरकार इस काम के पैसे देने से अक्सर इनकार करती है किसी न किसी उलझन में ठेकेदार को फंसा कर। आज तो इतना बुरा हाल है कि मंत्री का आदेश होने के बाद भी अफसर पैसे नहीं देते हैं, क्योंकि उनको डर है कि उनके ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप न कोई लगा डाले बाद में।

वित्तमंत्री जानती हैं कि यह सब हो रहा है और यह भी शायद जानती हैं कि पहली पूर्णबंदी ने कोरोना को रोकने के बदले अर्थव्यवस्था को इतना गहरा नुकसान पहुंचाया है कि लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं और लाखों प्रवासी मजदूर फिर से धकेल दिए गए हैं गरीबी रेखा के नीचे।

मेरे गांव के पास एक कस्बा है, जिसके बाजार में आजकल दिखते हैं बेरोजगार युवकों के झुंड। इनके रोजगार गए हैं उस पहली पूर्णबंदी के कारण। लेकिन अर्थव्यवस्था में कमजोरी आ गई थी कोरोना के आने से बहुत पहले। सो, आज हालत यह है कि वित्तमंत्री स्वीकार तो करती हैं कि बुरा हाल है, लेकिन साथ में यह भी कहती हैं कि इस आपदा में भगवान का हाथ है। यानी अर्थव्यवस्था राम भरोसे।