प्रमोद मीणा
भारत में राजनीतिक फिल्मों के निर्माण और वैकल्पिक सिनेमा का नाभिनाल संबंध रहा है। इसलिए अगर वर्तमान परिदृश्य में राजनीतिक सिनेमा का अकाल दिखाई देता है, तो इसकी जड़ें वैकल्पिक सिनेमा की संस्थागत कमजोरी में खोजनी चाहिए। क्रांतिकारी राजनीति की जमीन को बंजर बनाने के लिए जारी व्यवस्थित पूंजीवादी राजनीतिक मुहिम को समझना चाहिए। नवउदारवादी दौर में जैसे-जैसे भारत का वैकल्पिक सिनेमा मरता गया, वैकल्पिक राजनीति का प्रतिमान प्रस्तुत करने वाली फिल्में बननी बंद होती गर्इं। जिस देश में भाषाई सिनेमा हर साल हजार से ऊपर व्यावसायिक फीचर फिल्मों का निर्माण-वितरण-प्रदर्शन करता हो, जहां सिनेमाई कौशल और प्रतिभा की भरमार हो, बड़े-बड़े सिनेमा उत्पादन केंद्र और सिने-कला के स्वतंत्र स्कूल फलते-फूलते हों, वहां वैकल्पिक राजनीतिक सिनेमा की अनुपस्थिति किसी सोची-समझी साजिश की ओर इशारा करती है।
अगर भारत में वैकल्पिक सिनेमा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो इसके पतन की शुरुआत अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में हो गई थी। नब्बे के दशक के आरंभ से ही सरकारी संस्थागत सहयोग में गिरावट आने लगी थी। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और सरकारी टेलीविजन दूरदर्शन ने इस प्रकार के सिनेमा को संरक्षण देना बंद कर दिया। सरकारी सिने उत्सवों और राष्ट्रीय पुरस्कारों ने भी इन फिल्मों को प्रोत्साहित करना बंद कर दिया। फिर वैकल्पिक सिनेमा को लगने वाला सबसे गंभीर सदमा था- बौद्धिक वर्ग का आलोचनात्मक साथ छूट जाना।
नवउदारवादी दबदबे के समांतर भारतीय वैकल्पिक सिनेमा का पतन मात्र संयोग नहीं कहा जा सकता। भारतीय राष्ट्र-राज्य पर प्रभुत्व बनाने के लिए नवउदारवादी विचारधारा के लिए यह अनिवार्य था कि वह वैकल्पिक राजनीति की तमाम संभावनाओं को रुद्ध कर दे। इसलिए वैकल्पिक सिनेमा का गला घोंट दिया गया।
इसी नवउदारवाद प्रायोजित सांस्कृतिक सैद्धांतिकी ने अकादमिक जगत में एक नया विमर्श चला दिया, जिसने राष्ट्र-राज्य के प्रति संशयवाद, हर प्रकार की राजनीति के विरोध को जन्म दिया। दरअसल, इस तथाकथित अराजनीति का सीधा आक्रमण वैकल्पिक राजनीति पर था और सांस्कृतिक क्षेत्र में इसके निशाने पर वैकल्पिक सिनेमा रहा, जो वैकल्पिक राजनीति को प्रोत्साहित करता था। इस संशयवादी सांस्कृतिक सैद्धांतिकी ने उस व्यावसायिक सिनेमा को आश्रय दिया, जो राष्ट्र-प्रायोजित विकास के समाजवादी मॉडल पर तो प्रश्नचिह्न लगाता ही है, विकास के जनवादी मॉडल को भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से नकारता आ रहा है।
जिस दौर में मुक्त बाजार के पैरोकार राष्ट्र-राज्य की संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था पर हमला कर रहे थे, उसमें हिंदी सिनेमा से शोषित-उपेक्षित और जातिवादी-पितृसत्तात्मक ग्राम गायब होने लगा। भूमंडलीय अर्थव्यवस्था का प्रतिरोध करती राजनीति की वैकल्पिक धारा सिनेमा के परदे पर अपना अस्तित्व खोने लगी।
इस पूरे परिदृश्य में सबसे ज्यादा क्षुब्ध करने वाली बात है बौद्धिक तबके का बाजार को मूक समर्थन। विचारधारा के अंत की पूंजीवादी आंधी सिनेमायी आलोचकों को भी दिग्भ्रमित करने में सफल रही है। पढ़ा-लिखा उच्च वेतनभोगी बौद्धिक तबका, लोकप्रिय सिनेमा के आभिजात्य सिनेमा में संक्रमण का हेतु बन रहा है, जिसके पास न वैकल्पिक सिनेमा की कला को समझने का शऊर है, न उसकी वैकल्पिक राजनीति को स्वीकार करने की लोकतांत्रिक उदारता। लाखों-करोड़ों में खेलने वाला प्रवासी भारतीय सिने दर्शक एक गरीब अनपढ़ दलित-आदिवासी की नासमझी पर हास्य का लुत्फ तो उठा सकता है, पर उनमें राजनीतिक चेतना जगाने वाली फिल्म को अपना दर्शकीय सहयोग देना उसके वर्गहित के खिलाफ जाता है।
सिनेमाई आलोचना के क्षेत्र में सौंदर्यात्मक और कलात्मक विकल्पों की तलाश करती फिल्मों को मिलने वाला आलोचनात्मक समर्थन भी अब जाता रहा है। वैकल्पिक राजनीतिक सिनेमा के वर्तमान संकट को समझने के लिए राज्य की विशिष्ट विचारधारा और राजकीय संस्थाओं से प्रायोजित सांस्कृतिक उत्पादों के आपसी रिश्तों की पड़ताल करना आवश्यक हो जाता है। एकांगी राष्ट्रवादी विचारधारा में विश्वास करने वाला वर्तमान राष्ट्र-राज्य नवउदारवादी बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की राष्ट्रीय नीति पर तर्क-वितर्क सहन करने को तैयार नहीं है, चाहे यह बहस सिनेमा के परदे पर ही क्यों न हो। आज का भारतीय सिनेमा पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य के विकासवादी तर्कों और राष्ट्र निर्माण की बाजार केंद्रित नीतियों का अंधसमर्थक बन गया है, इस सिनेमा का राष्ट्र-राज्य के प्रति अपना आलोचनात्मक स्वर भी भोथरा हो चुका है।
इस उत्तर-आधुनिक समय में ‘फ्यूजन’ की प्रवृत्ति सिनेमा जगत में खुमार की तरह छाई हुई है। हमारा परंपरागत सिनेमा उस खाई को शैलीगत स्तर पर पाटने में लगा हुआ है, जो मुख्यधारा के सिनेमा और समांतर सिनेमा के बीच विद्यमान रहा करती थी। यह एक सार्वभौमिक सिनेमाई प्रवृत्ति है कि पूंजीवाद के वर्तमान दौर में बाजार की ताकतें वैकल्पिक कला की तकनीकों-शैलियों और मुद्दों को हथियाती जा रही हैं। बाजार केंद्रित सिनेमा वैकल्पिक सिनेमा की विचारधारा को तो नकार रहा है, लेकिन उस सिनेमा की प्रस्तुति-शैली को चुराने में उसे कोई नैतिक परहेज नहीं है।
हालांकि सिनेमाई नकल की इस प्रवृत्ति ने तकनीक और शैली के स्तर पर एकरंगी रहने वाले मुख्यधारा सिनेमा को विविधता संपन्न बनाया है, लेकिन सबसे मौजूं सवाल यह है कि मुख्यधारा और समांतर सिनेमा का विभाजन निश्शेष रहने पर भी क्या लोकप्रिय सिनेमा अपने जन सिनेमा होने के पुराने दावे को फिर दोहरा सकता है? क्या वैकल्पिक राजनीतिक सिनेमा का आलोचनात्मक दायित्व यह सिनेमा निभा सकता है? इन दोनों सवालों का जवाब नकारात्मक हो सकता है।
जब नब्बे के मध्य में सिनेमा बाजार में वित्तीय प्रबंधन का निगमीकरण होने लगा, मल्टीप्लैक्स और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे नए प्रदर्शन माध्यम आने लगे, प्रवासी सिने-बाजार के नए क्षितिज खुलने लगे, तो परंपरागत भाषाई सिनेमा महानगरीय संभ्रांत सिनेमा का रूप अख्तियार करता चला गया। अब हिंदी-तेलुगू-तमिल और मलयाली सिनेमा को ‘पॉपुलर कल्चर’ के ‘पीपुल्स’ की चिंता और परिकल्पना करने की जरूरत ही न रही, क्योंकि अब इस सिनेमा का संबोध्य गांवों-कस्बों में रहने वाली जनता रही ही नहीं। आज व्यावसायिक सिनेमा नवउदारवादी नागरिक सभ्यता का आभिजात्य चेहरा बन गया है। यह सिनेमा वैकल्पिक राजनीतिक सिनेमा के देशज रूप से अपना पीछा छुड़ा कर वैश्विक रंग-रूप-आकार गहने की दौड़ में है। अपने आस-पड़ोस की आम दुनिया से दूर जाता यह सिनेमा भारतीय सिनेमा का ‘हॉलीवुडीकरण’ है।
बात अगर गीत-संगीत प्रधान परंपरागत मेलोड्रामा की होती, तो इसे शुद्ध बाजारू सिनेमा के बट्टे-खाते में भी डाला जा सकता था, लेकिन व्यक्ति केंद्रित पूंजीवादी मानसिकता जिस प्रकार सामाजिक कहे जाने वाले संवेदनशील सिनेमा को भी संक्रमित करने लगी है, वह गंभीर चिंता का विषय है। मेलोड्रामा वाले सिनेमा को दर्शक कभी गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन सामाजिक सिनेमा में अभिव्यक्त कर्तव्यबोध जनमानस की चेतना को गहराई तक झकझोर देता है। सामाजिक विषयों की विश्वसनीयता और संवेदनशीलता को बॉक्स आॅफिस पर दुहने के लिए बाजार-केंद्रित फिल्में जहां कला सिनेमा की शैली की नकल करती हैं, वहीं सामाजिक होने का छद्म भी पेश करती हैं।
मगर प्राय: ये फिल्में किन्हीं व्यक्ति केंद्रित मुद्दों को ही उठा कर दर्शकीय संवेदनशीलता का आह्वान करती और इस उद्वेलित भावुकता को भुनाती हैं। विरलतम रोगों को आधार बना कर सामाजिक जिम्मेदारी का दावा करने वाली फिल्मों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जैसे ‘ब्लैक’, ‘तारे जमीं पर’, ‘माइ नेम इज खान’, ‘पा’ और ‘बर्फी’ आदि। दूसरी श्रेणी में वे फिल्में आती हैं, जो उठाती तो किसी व्यवस्थागत मुद्दे को हैं, लेकिन सिनेमायी प्रस्तुति में पूरे मुद्दे का सरलीकरण करते हुए अंधव्यवस्था विरोध पर उतर आती हैं। इस सरलीकरण का नतीजा होता है व्यक्तिगत विद्रोह, जो अराजकता और फासीवाद की अंधी सुरंग में ले जाता है, न कि कोई बेहतर विकल्प का राजनीतिक दर्शन हमारे सामने रखता है। ‘नायक’, ‘रंग दे बसंती’ और ‘नो वन किल्ड जेसिका’ इसी प्रकार की फिल्में हैं। वैसे ऐसी फिल्मों का चलन हिंदी सिनेमा में नया नहीं है। किसी व्यापक सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे को उठा कर उसका व्यक्तिवादी विद्रोहात्मक हल ‘एंग्री यंग मैन’ वाली फिल्मों में साफ देखा जा सकता था।
इन दोनों श्रेणियों के सिनेमा में एक समान तथ्य है- बड़े परदे पर राजनीतिक चेतना का विलोपन। यह प्रवृत्ति उत्तर-औपनिवेशिक सत्ता मीमांसा के अनुकूल बैठती है। परस्पर भिन्न वर्गहित वाले दर्शकों में सामंजस्य की घुट््टी पिलाने वाला है यह सिनेमा। इसमें कुछ ऐसे विषयों को इस तरह संबोधित किया जाता है, जिन पर दर्शक समुदाय की सर्वसहमति हो, जिनकी प्रासंगिकता और संवेदनशीलता पर कोई प्रश्नचिह्न न लगाया जा सके। भ्रष्टाचार और गंदगी का विरोध आज कौन नहीं करेगा। इसी प्रकार ऐसा निष्ठुर व्यक्ति कौन होगा, जो बीमार और विकलांग व्यक्ति को दी जाने वाली मानवीय संवेदना-सुविधा का विरोध करेगा। भ्रष्टाचार जनित समस्याओं से आज हर नागरिक पीड़ित है। इसलिए भ्रष्टाचार व्यावसायिक सिनेमा का आज सबसे लोकप्रिय विषय है। लेकिन यथास्थितिवादी सिनेमा भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ने वाली राजनीतिक व्यवस्था की संभावना का स्वप्न नहीं दिखाता।
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