खास शाही अंदाज में राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते ‘न्याय’ देने का ऐलान किया, एक आमसभा को संबोधित करते हुए। जैसे देश के प्रधानमंत्री अभी से बन गए हों और जनता पर खास मेहरबान होने का जी चाह रहा हो। न्याय (न्यूनतम आय योजना) की घोषणा करते समय उन्होंने कहा कि मोदी के ‘अन्याय’ के बदले में वे ‘न्याय’ देंगे। आगे समझाया कि जैसे मोदी अपने धनवान दोस्तों के बैंक खातों में लाखों करोड़ रुपए डाल सकते हैं, वैसे ही वे देश के सबसे गरीब लोगों को न्यूनतम आय देने का ‘ऐतिहासिक’ फैसला कर रहे हैं। सो, जब (अगर?) उनकी सरकार बनेगी, वे हर गरीब भारतीय के बैंक खाते में हर साल बहत्तर हजार रुपए डालेंगे।

इस भाषण के बाद कांग्रेस प्रवक्ता ‘न्याय’ योजना को समझाने में लग गए। सालाना खर्चा इस नई योजना का 3.6 लाख करोड़ रुपए होगा, जिससे उन बीस फीसद भारतीयों को हर महीने छह हजार रुपए मिलेंगे, जो सबसे गरीब नागरिक हैं भारत के। इन प्रवक्ताओं ने स्पष्ट किया कि इस योजना को तैयार करने में उन्होंने मदद ली है कई जाने-माने विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की। इस बात को जब मैंने सुना तो याद आया कि अक्सर ऐसी योजनाओं के पीछे होते हैं ऐसे लोग, जिन्होंने न कभी गरीबी देखी है अपने जीवन में और न ही किसी गरीब भारतवासी से उनका संपर्क रहा है। रहा होता तो जान गए होते कि ऐसी योजनाएं अक्सर नाकाम रही हैं और नाकाम रहेंगी, क्योंकि गरीबी ऐसा मर्ज है अपने देश में, जिसके लिए एक दवा या योजना से हल ढूंढ़ना बेवकूफी है। ग्रामीण भारत में गरीबी का सबसे बड़ा कारण है जातिवाद। इसको अगर किसी ने समझाया है दर्दभरी आवाज में तो वह हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि, अपनी किताब ‘जूठन’ में। इस किताब में ओमप्रकाश बताते हैं कि अपनी दलित होने की हथकड़ियों से रिहाई पाने के लिए उन्होंने शिक्षा का रास्ता चुना, लेकिन गांव के स्कूल के अध्यापकों ने उनको सवर्ण बच्चों के साथ बैठने से रोकने की पूरी कोशिश की। उनको कक्षा से बाहर रखने के लिए उनको स्कूल की सफाई करने का काम सौंप दिया जाता था। आज भी दलित बच्चों के साथ ऐसा किया जाता है ग्रामीण भारत में, क्योंकि सवर्ण अध्यापक जानते हैं कि गरीबी से मुक्ति पाने का सबसे ताकतवर औजार है शिक्षा।

हमारे शहरों और महानगरों में जाति के आधार पर भेदभाव करना इतना आसान नहीं है। यहां गरीबों को हमेशा गरीबी की जकड़ में रखने के तरीके और हैं। जिस गली में मेरा घर है मुंबई में उस गाली की पटरियों पर रहते हैं दशकों से कई अति गरीब परिवार, जिनमें से कई लड़कियां हैं, जिनको मैं तबसे जानती हूं, जब वे छोटी बच्चियां थीं। इनमें से एक है रूपा, जो विधवा है। मुश्किल से उसको नौकरी मिली है एक शौचालय में, जहां वह रात की ड्यूटी करती है। इस काम के लिए उसको मिलते हैं महीने के आठ हजार रुपए। लेकिन चूंकि रूपा का घर नहीं है, वह अपनी दो छोटी बेटियों को पटरी पर सुलाने को मजबूर है।
बच्चियां सरकारी स्कूल में दाखिल हैं, लेकिन अक्सर जब रूपा सुबह वापस जाती है, तो पाती है कि उसकी बेटियों को नगरपालिका की ‘मैडम’ उठा कर ले गई है। उनको किसी अच्छे बालगृह ले जाया जाता, तो शायद रूपा की चिंताएं कम हो जातीं, लेकिन उनको ले जाया जाता है एक ऐसे बालगृह में, जो पूरी तरह बच्चों की जेल है। उनका बुरा हाल होता है इस जेल के अंदर और उनको छुड़ाने के लिए उनकी मां को अदालत में जाना पड़ता है। रूपा और उसकी बहनों का बचपन से एक ही सपना रहा है कि कभी न कभी उनको छोटा-सा घर मिल जाए, चाहे वह किसी झुग्गी बस्ती में क्यों न हो। इनकी दूसरी समस्या यह है कि इनको नौकरी कोई देना नहीं चाहता, क्योंकि उनका कोई अता-पता नहीं है।

सो, फूल बेच कर या कोई अन्य छोटा-मोटा काम करके गुजारा करती हैं। इनकी मदद करने के लिए मैंने इनके भाइयों और पतियों को ड्राइविंग स्कूल में दाखिला दिलवाया। सीख भी गए ड्राइविंग करना, लेकिन कोई इनको नौकरी देने को तैयार नहीं होता है, क्योंकि उन पर भरोसा करना मुश्किल है। इन गरीबों का सबसे बड़ा दुश्मन है प्रशासन। इनके साथ पुलिस वाले और नगरपालिका के अधिकारी ऐसे पेश आते हैं जैसे वे इंसान ही न हों। इनके लिए ‘न्याय’क्या कर सकेगा? इनके पास आधार कार्ड भी हैं, बैंक खाते भी और सरकारी स्कूल भी हैं, जिनमें वे अपने बच्चों को भेजते हैं, लेकिन गरीबी से कभी छुटकारा नहीं पा सकते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष अक्सर कहते हैं कि मोदी ने सिर्फ अपने ‘पंद्रह धनवान दोस्तों’ की मदद की है, इसलिए भारत के गरीब बेहाल और बेसहारा हैं। यह झूठ है राहुलजी। गरीबी हटाने के लिए ‘न्याय’ जैसी योजनाएं बहुत बनी हैं आपकी दादी, पिता और माताजी के शासनकाल में। नाकाम न रही होतीं वे योजनाएं, तो गरीबी कबकी हट गई होती। हां, यह सच जरूर है कि मोदी ने नई दिशा चुनने के बदले उसी रास्ते पर चलने का प्रयास किया है, जो बनाया था आपके पूर्वजों ने। प्रधानमंत्री बनने के बाद जब मोदी ने मनरेगा के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास किया, लेकिन उनको चुप करा दिया उनके सलाहकारों ने यह कह कर कि ऐसी योजनाएं जब एक बार शुरू हो जाती हैं तो उनको समाप्त करना मुश्किल है, क्योंकि गरीबी हटाने के नाम पर शुरू की गई हैं, कागज पर ही सही। ‘न्याय’ का यही हाल होगा। खूब पैसे लुटाए जाएंगे, इस पर और गरीबी को चोट तक नहीं पहुंचेगी।