अर्पण कुमार
श्रीप्रकाश शुक्ल तमाम समकालीन समस्याओं से दो चार होते हुए उन्हें कविता की संवेदनात्मक सघनता में बुनते हैं। उनका नया संग्रह है- ओरहन और अन्य कविताएं। ‘देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का खत’ कविता में प्रधानमंत्री के बनारस आने को कवि एक आम आदमी की निगाह से देखता है। अपने रचाव और कहन में यह कविता जितनी मौलिक और राजनीतिक है, उतनी ही मार्मिक भी। श्रीप्रकाश शुक्ल एक तरफ प्रधानमंत्री को खुला खत लिखते हैं, तो दूसरी तरफ उनकी नजर घर छोड़ती स्त्री पर टिकती है। एक तरफ उनकी कविता में राजनीतिक व्यंग्य है, तो दूसरी तरफ सघन घरेलू आत्मीयता। ये दो धुर विरोधी छोर नहीं, बल्कि हमारे समय के ही दो चित्र हैं, जो एक साथ कविता में घटित हो रहे हैं।
ठेठ शब्दों और अनछुए बिंबों से न सिर्फ उनकी कविता की एक विशिष्ट पहचान बनती है, बल्कि छोटे-छोटे विषयों को पूरी रागात्मकता से प्रस्तुत करना उनकी विशेषता और जन-पक्षधरता है। लोगों के मोबाइल नंबर बदले जाने की प्रवृत्ति, छठ करती महिलाओं, कनफुंकवों, भैंस आदि के बारे में वे अपने अंदाज में कविताएं लिखते हैं और समकालीन कविताओं के रचाव-परिदृश्य को अपने तर्इं एक बड़ा आयाम और अर्थ-बहुलता प्रदान करते हैं।
वैश्विकता के बरक्स स्थानीयता के इस संघर्ष में कवि लोक-राग-रंग के साथ खड़ा नजर आता है। उसकी कविता के विषय भी वहीं से उठते हैं और एक हद तक उन्हीं को केंद्र में रखते हुए वह अपने कवि-कर्म की निष्ठा को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। बाजार, भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद के सम्मिलित आतंक के बीच गिरफ्त में आते हमारे समाज को कवि न सिर्फ समझता, बल्कि इन संकटों को अपने आसपास पलते देखने की हमारी निष्क्रियता पर समुचित टिप्पणी भी करता है। चीजें नष्ट हो रही हैं, चाहे वह मनुष्य की मनुष्यता हो या फिर प्रकृति की हरितिमा। ‘खरा आदमी’ कविता में वे लिखते हैं: ‘यहां आजकल हरा जंगल/ चरा मिलता है/ …/ खरा आदमी/ जरा मिलता है।’
व्यक्ति की निजता को सुरक्षित रखते हुए और एक की विशिष्टता को दूसरे से अलग होने/ रखने की स्वीकारोक्ति ‘बहुवचन’ कविता में देखने को मिलती है। हिंदी व्याकरण में एक वचन और बहुवचन के माध्यम से कवि कई बड़ी बातें कह जाता और धार्मिक हिंसा और तनाव के पीछे की असली वजह को पकड़ने की कोशिश करता है: ‘ईश्वर एकवचन है/ जिस दिन यह बहुवचन होता है/ अपने ही सृजन को कुतरने लगता है।’
युवा भारत के आत्मश्लाघा नारों के बीच ‘किसान’ जैसी कविता भारत के कृषकों की दारुण कथा बयान करती है। श्रीप्रकाश इस ओर हमारा ध्यान दिलाते हुए कहते हैं: ‘हत्या उसका बचपन है/ आत्महत्या उसकी जवानी’।
श्रीप्रकाश ने बनारस पर या उसके बहाने कई कविताएं लिखी हैं। इन कविताओं में एक ठेठ बनारसी की आंखों से देखा गया बनारस है, जहां उसके कई रूप-रंग हमें सहज ही देखने को मिलते हैं। ‘पक्का महाल’, ‘बीएचयू परिसर में एक शाम’, ‘अड़ीबाज’ जैसी ऐसी ही कविताएं हैं। वे मुंबई में ‘हाजी अली’ की मजार पर जाते हैं तो काशी के ‘कबीर’ उन्हें सहसा याद हो आते हैं। यह उनके अंदर रचे-बसे बनारस का ही प्रभाव है कि वे बनारस के बाहर भी बनारस को ढ़ूंढ़ते हैं। ऐसी कविताएं, देश के विविधतामयी सामाजिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक स्वरूपों के बीच की आवाजाही को पुनराख्यायित करती हैं।
श्रीप्रकाश की अधिसंख्य कविताओं में हमें उम्मीद और उत्तरजीविता की कोई न कोई किरण अवश्य प्राप्त होती है। मुंबई बम विस्फोट की एक आतंकपरक और विध्वंसक तबाही के बाद कुछ बचे रह जाने की जिद और जीवटता को कवि तमाम विरूपताओं और करुणा के बीच भी प्रस्तुत करने से नहीं चूकता। यहां तक कि खुद विध्वंसक, जो लाशों के बीच खड़ा है, तमाम तरह के नुकसान पहुंचाने के बावजूद सब कुछ नष्ट नहीं कर सकता। निर्माण या कहें रचे जाने की जिद के आगे विनाश या मिटा देने का पागलपन अंतत: बौना ही साबित होता है। इसे कवि इन शब्दों में व्यक्त करता है: ‘गनीमत थी लाशों के बीच भी एक आततायी/ आंखों से कुछ देख पा रहा था/ सब कुछ को नष्ट होता हुआ नहीं/ बहुत कुछ को बचा हुआ।’
उम्मीद, गंध, धरती आदि श्रीप्रकाश के प्रिय शब्द हैं। प्रकृति और परिवेश पर वे बारीक नजर रखते हैं। अपने लेखन में किसी शहर, विचार या व्यक्ति को लेकर उसके मान्य पक्ष के बरक्स किसी अन्य पक्ष या उसके विरोधाभास को रखना एक आवश्यक लेखकीय कर्म है। ‘अंधेरे में काशी’ कविता उनकी इसी प्रतिबद्धता को सिद्ध करती है। श्मशान के आसपास पनपती वेश्यावृत्ति को केंद्र में रख कर लिखी गई यह कविता सिर्फ काशी की कविता नहीं, बल्कि अंधेरे में कई शहरों में ये दृश्य सहज ही देखे जा सकते हैं। उजाले के परे शहर का जो चेहरा है, उसे इस कविता में देखा जा सकता है।
श्रीप्रकाश शुक्ल जनतंत्र के हिमायती होते हुए और बहुमत की राय का सम्मान करते हुए भी कई बार निजता की जरूरत और उसके हस्तक्षेप को सही मानते हैं। ‘सब कुछ बहुवचन में नहीं सोचा जा सकता’ जैसी कविता इस बहुलतावादी, प्रजातांत्रिक और बहुमत के कोलाहलयुक्त समय में कहीं न कहीं वैयक्तिक मतों को सम्मान और महत्त्व देने की कोशिश है।
आज जब चारों ओर सफलता के लिए सारे शार्टकट सही ठहराए जा रहे हैं, उसके पीछे लोग बदहवास दौड़े चले जा रहे हैं, ऐसे में कितना जरूरी है कि अपने से दूर चले गए लोगों और छूट गई चीजों में भी जीवन को खोजा जाए। किसी हार-जीत; उपलब्धि-अनुपलब्धि से परे जीवन को उसकी समग्रता में देखने की जरूरत है। जीवन का यही समुचित उपयोग और हासिल है। कितनी महत्त्वपूर्ण पंक्तियां हैं: ‘जीवन उपलब्धियों में ही नहीं/ जो छूट गया हमारी पकड़ से/ वहां भी है जीवन।’
‘तनी हुई विफलता’ एक महत्त्वपूर्ण कविता है, जो किसी की चापलूसी और उसके महानता-गान के बरक्स अपनी विफलता पर संतोष करती है। यह संतोष कितना राहतकारी है कि सफलता में चरण-वंदना में झुके लिजलिजे व्यक्तित्व की जगह अकड़ी और तनी हुई मुट्ठी एक सशक्त दृश्य-बिंब रचती है। कवि कहता है: ‘अपनी लघुता में पड़ी रह कर/ मुट्ठी जो तनी रहती है/ ज्यादा भरोसे की होती है/ उन खुली हथेलियों से/ जो चिपचिपा जाती हैं/ दूसरे की महानता को ढोते-ढोते…।’
यह महज संयोग नहीं कि उनके यहां पराजय पर कई कविताएं देखने को मिलती हैं और वहां पराजयबोध हमें किसी अवसाद में नहीं ले जाता, बल्कि उन कविताओं में वह पराजयबोध अंतत: विजय राग में बदल जाता है।
चलताऊ स्थितियों में या अक्सरहा कविता की जहां संभावना नहीं होती, वहां भी कविता जैसा कुछ ढ़ूंढ़ लेना और छोटी-छोटी बातों में कविता के लिए कोई प्रस्थान-बिंदु प्राप्त कर लेना श्रीप्रकाश की सफलता है। ‘उसने फिर नंबर बदल दिया’ ऐसी ही कविता है। श्रीप्रकाश अपनी कविताओं में न सिर्फ लोक-शब्दों को बचाने की कोशिश में लय और ताल से युक्त उसके मुहावरे को संभालते, बल्कि उनसे कविता संभव करने की अपनी जिद को भी संभव करते हैं। विभिन्न स्थानों, प्रसंगों और चरित्रों के बारे में लिखते हुए वे उन संदर्भों से आगे जाकर उन्हें गहरे कालबोध और व्यंजना से संपृक्त करते हैं। ‘गंगू मेहतर’ संग्रह की एक उल्लेखनीय कविता है।
ओरहन और अन्य कविताएं: श्रीप्रकाश शुक्ल; राधाकृष्ण प्रकाशन प्रालि, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 300 रुपए।
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