कृष्णा शर्मा

शमशेर बहादुर सिंह से प्रेरणा लेकर काव्य-लेखन में पदार्पण करने वाली शोभा सिंह की उनचास कविताओं का संग्रह अर्द्ध विधवा जहां नई उम्मीद जगाता है, कविता के बारे में कही-सुनी जाने वाली तमाम धारणाओं को भी खंडित करता है।

इन कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि कविता अब भी किसी घटना, स्थिति और कड़वा सच का शाब्दिक प्रतिकार करने का सबसे सशक्त माध्यम है। शोभा सिंह जब लिखती हैं कि ‘हड़बड़ी में तलाश ले/ अंतरंग गुपचुप/ आइने से संवाद/ मालकिन की हिदायतें/ एक कान से दूसरे कान/ सर्र से गुजर जातीं/ जैसे हवा/ माथे का पसीना पोंछ/ बिंदी तक गया हाथ/ अचानक ठिठक जाता/ यह कैसा दुस्साहस/ मिर्ची की तीखी झौंस रोशनी से छनती/ आवाज/ खबरदार जो/ आईना देखा तो’ तो स्पष्ट हो जाता है कि कविता उनकी जिंदगी का हिस्सा है। कोई ओढ़ा हुआ लबादा भर नहीं, जिसे वे कभी-कभार पहन लेती हैं।

उनकी कविता में मुहावरे बहुतायत में हैं, लेकिन कविता को मुहावरेदार बनाने की जबरदस्ती वहां नहीं है। दरअसल, सपाटबयानी के दौर में कविता और उसकी अहमियत बताने वाले भी कहीं न कहीं ‘वस्तु’ से कहीं अधिक ‘रूप’ के मोह में रहे हैं। सीधे-सीधे कह देना भी जब ‘कला’ बन जाए तो कथ्य का नेपथ्य में खिसक जाना स्वाभाविक है। इसलिए अपनी बात को सीधे-सीधे कह देना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। शोभा सिंह की कविताओं के संदर्भ में इस सच को निस्संदेह स्वीकार किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने मन की बात को ज्यों का त्यों सामने रख दिया है।

शोभा सिंह राजनीतिक-सामाजिक संगठनों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रही हैं। जाहिर है, उनकी कविताओं में यह ‘एक्टिविज्म’ भी भरपूर उतरा है। महिला संगठनों में काम करने के कारण उनका साबका ऐसी स्थितियों-परिस्थितियों से हुआ होगा, जो कहानी, उपन्यास या अखबार की खबरों तक में सिमटी रहती है। कहना न होगा कि इन कविताओं में बार-बार उन नारकीय स्थितियों का खुलासा हुआ है, जिनमें आज भी औरत जीने को विवश है: ‘एक कतार में खड़ी हैं औरतें/ दूसरी कतार मर्दों की है/ लंबी है औरतों की लाइन/ नाउम्मीदी के धागों से जिन्होंने/ होठों को सी लिया है/ उन तमाम वारों को/ वे झेल गई हैं/ जिनके निशान चेहरों/ पर मौजूद हैं/ पत्थर पर मूरत जैसी/ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हैं/… वे तमाम बीमार औरतें/ अपने जैसी बीमार साथिन के साथ/ या अकेली या बच्चों के साथ/ वक्त की मार खाई हुई/ आवारा रूह की मानिंद।’

शोभा की कविताएं ‘स्थितियों’ की कविताएं हैं। जीवन की हर स्थिति यहां मौजूद है। इन टुकड़े-टुकड़े स्थितियों में से ही ‘स्त्री जीवन’ की एक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है- कविताओं में बनती यह तस्वीर दरअसल, उस सच्चाई को बयान करती है, जो किसी एक बड़े उपन्यास का फलक भी हो सकती है। इसलिए ये कविताएं जहां एक ओर कुछ फुटकर स्थितियों भर की कविताएं प्रतीत हो सकती हैं, पर इस संग्रह की कविताओं को समग्रता में पढ़ने पर साफ हो जाता है कि उनका केंद्रीय विषय लगभग एक है। इस अर्थ में ये कविताएं अलग-अलग समय पर फुटकर रूप में लिखी होने पर भी एकसूत्रता का अहसास कराती हैं। ऐसे जैसे एक ही तस्वीर को भिन्न-भिन्न कोणों से देखा-दिखाया जा रहा हो।

इन कविताओं में दर्द है, पीड़ा है तो कई में रूमान और जीवन के कोमल पक्ष भी हैं। इस संदर्भ में संग्रह की कविता ‘प्यार’ की कुछ पंक्तियां- ‘वह प्यार में था/ उसके हाथ की तपिश से/ पास के फूल मुरझा जाते/ पेड़ धूल खाए गमगीन/ हवा भारी हो कहती/ इतनी उपेक्षा/ खतरनाक है/ प्यारे/ प्रेम में!’ इसी तरह छोटी बच्ची ‘खिलखिल’ के लिए लिखी गई कविता ‘सृष्टि-बीज’ भी एक नई उम्मीद, नई आकांक्षा-अपेक्षा की कविता है: ‘तुम धरती का फूल/ उन तमाम चीजों की/ याद दिलाती/ जो बहुत सुंदर हैं/ आदिम ऊर्जा से सिक्त/ पूर्ण और सच्ची/ घनी छायादार शाम के झुरमुट में डोलती/ आत्मीय बाहें फैलाए हुए/ चिड़ियों में सुरक्षित नीड़ सी।’

इन कविताओं को पढ़ते हुए जो बात बार-बार मन में कौंधती है, वह यह कि ये किसी भी तरह से शिल्प के आग्रह वाली कविताएं नहीं हैं। इनमें शिल्प ढूंढ़ना कविता और कवयित्री दोनों के साथ ज्यादती होगी। जिस तरह एक अनपढ़ औरत का जीवन होता है, वैसी ही हैं ये कविताएं। इन कविताओं का जोर ‘कैसे कहना है’ से अधिक ‘क्या कहना है’ पर है। इन्हें इसी भाव से पढ़े जाने पर इनके अर्थ खुलते हैं।

इस संग्रह में एक कविता शमशेर की स्मृति में भी है- ‘लौटेंगी लहरें’। यह सचमुच ऐसी कविता है, जो शमशेर की शख्सियत के हर पहलू को एकदम साकार कर देती है। शोभा जब लिखती हैं कि ‘या यों ही/ समय में ठहर गई/ शहद सी तरल/ नींद की मुस्कान/ बारिश सी निर्मल स्निग्ध चितवन/ मुहब्बत से लबरेज बड़ा सा दिल है।’ शमशेर की निकटता से शोभा को केवल कविता का संस्कार नहीं मिला, उन्होंने उनकी शख्सियत की तमाम खूबियों को भी बहुत करीब से अनुभव किया है। यह कविता शमशेर के व्यक्तित्व की उन खूबियों को बहुत खूबसूरती से पेश करती है।

कुल मिला कर शोभा की कविताओं में संघर्ष और प्रतिरोध का स्वर अधिक मुखर रहा है। ऐसा शायद इसलिए कि वे सिर्फ कवयित्री नहीं, एक्टिविस्ट भी हैं। इस अर्थ में उनकी कविताएं और उनका एक्टिविज्म एक-दूसरे के पूरक नजर आते हैं। वीरेन डंगवाल ने संग्रह की भूमिका में भी यही बात लक्षित की है: ‘मगर शोभा का मन सबसे ज्यादा लगता उन कविताओं में है, जहां वह स्त्री-हृदय के किंचित भिन्न पुरुषवादी नजरिए से विस्तार में निर्बाध विचरण करती हैं। यह एक नाजुक भावलोक है, जिसमें छोटे-छोटे सपने, इच्छाएं, समझौते और रूमानियत के प्रचुर प्रगाढ़ रंग हैं।’

अर्द्ध विधवा: शोभा सिंह; गुलमोहर किताब, 55 सी, पॉकेट 4, मयूर विहार-1, नई दिल्ली; 100 रुपए।

 

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