कौमुदिनी मकवाड़ा
युवा कवयित्री रेनू शुक्ला का कविता संकलन चुरइल कथा अनेक स्त्री-प्रश्नों से टकराने का मौका देता है। कहा जाता है कि स्त्री के शरीर पर उस संस्कृति का दास्तान लिखा होता है, जिसमें वह जन्म लेती, पलती-बढ़ती, प्रौढ़ होती, व्यवहार करती और अवसान प्राप्त करती है। उस संस्कृति में वह मिथक योद्धा की तरह होती है, जिसके गात पर उसके अभिभावक एक पतली धार की छुरी से वे अक्षर लिखते हैं, जिनका रोना वह जीवन भर रोती है। यानी उसका सारा लेखन आत्मकथात्मक होता है। वह खुद एक पाठ बन जाती है और उसके लेखन का स्वरूप स्वीकारोक्तियों से बनता है। इस मानदंड पर रेनू शुक्ला की कविताएं खरी उतरती हैं।
पहली ही कविता की स्थापना है: ‘अभी मैं जन्मी कहां?/ अभी तो जन्मना बाकी है।’ यह जन्मना उसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता का जन्मना है, जिसके ऊपर बंदिशें जन्म से ही लगा दी जाती हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसके भाई को उससे अलग कर और बेहतर स्थिति में रख कर पाला जाता है: ‘भइया को नंगा/ मुझे कच्छी पहना कर घुमाया गया/ मुझसे मेरी जड़ ही काट दी गई/ छूट गया आशियाना/ भइया को सौंपा गया घर-बार।’ स्त्री इससे संतुष्ट नहीं है, वह पूछती है: ‘आखिर कब तक’? इसके जवाब के लिए वह परमुखापेक्षी नहीं है। अपनी राह खुद बनाने निकलती है। रास्ते की बाधाओं से वाकिफ है। वह जानती है कि उसके भी पास वही हथियार हैं, जो पुरुषों के पास हैं, पर वह जीत नहीं पाती क्योंकि वह उनका इस्तेमाल नहीं करती। इस्तेमाल न करने के संस्कार बचपन से ही डाल दिए जाते हैं।
स्त्री और पुरुष का अधिकार क्षेत्र ही नहीं, कर्तव्य क्षेत्र तक बांट दिया जाता है और अगर वह उसका अतिक्रमण करती है तो पुरुष वर्ग अपना आपसी संघर्ष छोड़ कर उससे लड़ने के लिए एक हो जाता है। पिता ही नहीं, पति और प्रेमी भी जानते हैं कि उस पर अत्याचार हो रहा है, पर उसका साथ देने कोई नहीं आता। सभी को स्त्री की स्वतंत्रता, स्वाधीनता, स्वायत्तता से डर लगता है। और तो और, उसका साथ स्त्री भी नहीं देती, सिर्फ संस्कारों के कारण नहीं, गोचर स्थितियों के कारण। उसे पता है कि जो थोड़ी-बहुत छूट कुछ स्त्रियों को अपने घर-परिवार वालों से मिली है, वह स्वाधीन करने के लिए नहीं, और अधिक शोषण करने के लिए है सिर्फ आर्थिक नहीं, सामाजिक और राजनीतिक शोषण के लिए भी। उसे आधुनिक बनाना पुरुष की कामना और वासना को तृप्त करने के लिए ही है।
पर कवयित्री इस स्थिति से निराश नहीं है। कविताओं में कई ऐसे स्थल हैं, जो इस घोर निराशा में भी आशा की किरण खोज लेते हैं: ‘असंभव को/ संभव बनाने का विचार है/ इंतजार है।’ ‘औकात’, ‘गनीमत’, ‘नाव’, ‘विलुप्त आदमी’, ‘कुंवारी’, ‘औरत का कथन’, ‘दुख भारी है’, ‘मुक्ति की परिभाषा’ आदि ऐसी ही कविताएं हैं। ‘स्त्री गीता’ एक अद्भुत कविता है।
रेनू शुक्ला का रचना संसार निम्न और मध्यवर्गीय पुरुष प्रधान एकपक्षीय जीवन के वितान में स्त्री के लिए अपनी जगह बनाने की अदम्य इच्छा का द्योतक है। उस प्रधानता का प्रतिरोध और निवारण उसकी अनिवार्य प्रक्रिया है। लिहाजा वह नई विषय-वस्तुओं, मुद्दों, रूपकों और बयान की तकनीकों का पूर्वाभास कराती है। वे स्त्री जीवन के उन मुद्दों पर बात करती हैं, जिन पर स्त्रियां अक्सर चुप हो जाती हैं, कभी लोक-लाज के चलते, कभी बड़बोलेपन के खतरे से, कभी अकेले पड़ जाने के भय से, या फिर जिन पर दूसरों द्वारा चुप रह जाने के लिए बाध्य कर दिया जाता है।
इनकी कविता चरित्रहीनता, निर्लज्जता, विज्ञापन के लिए देह और परिवार के टूटन का दर्शन नहीं गढ़ती, जैसा कि खाती-पीती-अघाई बुर्जुआ स्त्रीवादी कवयित्रयां करती हैं। उन्होंने तो नारी मुक्ति की ऊष्मा ही छीन ली है। यह कविता श्रम और संघर्ष के बृहत्तर और उच्च मूल्य में स्त्री की भागीदारी रेखांकित करती है। बलिदानी भावना, औदात्य, जीवन के विभिन्न रूपों और पक्षों के प्रति ममत्वपूर्ण आत्मीयता रेनू शुक्ला की कविता की स्थायी सामग्री बन कर उभरती है। घर-गृहस्थी, चूल्हा-चौका भले भारतीय स्त्री का अब तक स्थाई चित्र रहा हो, आज वह उद्दाम जिजीविषा लेकर आगे बढ़ रही है। उनके कवि स्वर में जो ऊष्मा और लय है, उसे अलग से लक्ष्य किया जा सकता है।
रेनू शुक्ला अपनी कविताएं विडंबना और विरोधाभास से बनाती हैं। यह विडंबना और विरोधाभास वे बिंबों से नहीं, बयान से रचती हैं। एक कविता है ‘मां के लिए’। उसमें मां के तमाम पुरुषोचित कलापों का बयान है। पर वह मां भी अंत में डरी हुई मिलती है, जिसकी जड़ में है पुत्र मोह, और वह पुत्र मोह बेटी को उसके पांव पर खड़ी कर देने के बावजूद है। ‘है और चाहिए’, ‘मैं पहुना की बेटी’, ‘खटिये पर इज्जत’, ‘जो लाद दिया गया’ आदि कविताओं में यह थीम बार-बार उभरती है। पुरुषों द्वारा, एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे नारी मुक्ति आंदोलन पर वे करारा व्यंग्य करती हैं।
स्त्री विमर्श से जुड़ी कविताओं से इतर भी कई कविताएं हैं, जो उनके वृहत्तर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सरोकारों, कहें पूरी सांस्कृतिक समग्रता की द्योतक हैं। ‘आत्मीयता’, ‘सौंदर्य’, ‘पुरुष’, ‘चिड़िया’, ‘कहो कारगिल’ आदि ऐसी ही कविताएं हैं जो छोटी-छोटी अनुभूतियों से बड़ा कैनवास रचती हैं। एक कविता है ‘कोल का बच्चा’, जो अपने हाथों से लकड़ी का खिलौना बनाता है- ट्रैक्टर और ट्राली। पर उसकी कोई पूछ नहीं है, क्योंकि वह आभिजात्य वर्ग का नहीं है। होता तो उसे एक छोटा वैज्ञानिक, कलाकार आदि जाने क्या-क्या कह कर बहुप्रचारित किया जाता। एक कविता माओवादी देवनाथ कोल की शहादत पर है, जो अनजाना ही रह गया, हालांकि वह चंद्रशेखर आजाद की तरह कभी दुश्मन के हाथों में नहीं पड़ा। कई कविताएं उन्होंने शृंखलाओं में लिखी हैं- समय, आग, चाहत, तुम और मैं वगैरह। ये सब उनकी अनुभूति और सरोकारों के विस्तृत फलक की द्योतक हैं।
चुरइल कथा: रेनू शुक्ला; यश पब्लिकेशन, 1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली; 290 रुपए।
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