तकनीकी विकास के इस तेज रफ्तार दौर में, शिक्षा-व्यवस्था और तकनीकी को साथ लेकर चलना एक बड़ी चुनौती तो है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि उच्च शिक्षा का वर्तमान ढांचा जिस तरह के छात्रों के लिए बनाया गया था, वह परिदृश्य और जरूरत बदल गई है! इंटरनेट और मोबाइल के प्रसार से कक्षा में आने वाले छात्रों का संदर्भ और भाषा शिक्षकों की अपनी शब्दावली से भिन्न होती जा रही है। कुछ लोग आज की युवा पीढ़ी को ‘एप्प जनरेशन’ के कहते हैं। आज स्थिति यह है कि जब तक परंपरागत शिक्षक अपने जीवन या पढ़ी किताब से एक उदाहरण देते हैं, तब तक छात्र गूगल करके उस अवधारणा से आगे के विकास और विमर्श से परिचित हो लेता है। शिक्षकों के सामने आज न केवल अपने विषय को लेकर अपने ज्ञान संवर्धन की चुनौती है, बल्कि तकनीकी के साथ भी कदम से कदम मिलाकर चलने की जरूरत है।
आज के छात्र तकनीकी रूप से दक्ष और अपने भविष्य को लेकर अधिक जागरूक हैं। इंटरनेट ने ज्ञान की दुनिया को भी बदला है। अब शिक्षक ज्ञान के एकमात्र स्रोत नहीं रह गए हैं। 1990-2000 के बाद पैदा हुए छात्रों के लिए इंटरनेट की उपलब्धता के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है और इन छात्रों की किसी सूचना को मानसिक प्रक्रिया से गुजारने की गति भी तेज है और उनकी सूचनाओं के संग्रहण की क्षमता भी। ऐसे में क्या परंपरागत ढंग से पढ़ाने वाले शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों में अपेक्षित बदलाव हो रहा है? अगर शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों का तकनीकी संसाधनों के साथ समन्वय नहीं होगा, तो इसका खमियाजा विद्यार्थियों को ही भुगतना पड़ेगा। जान दी काउच और जैसन टोने ने भी अपनी किताब ‘री-वायरिंग एजुकेशन’ में तकनीकी दृष्टिकोण से शिक्षा में बदलाव की जरूरत पर कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं।
अगर तकनीकी दृष्टिकोण से देखें तो कोरोना काल में विकसित देशों के अलावा अन्य देशों में ऐसे संस्थानों का प्रतिशत बहुत कम था, जिनके पास शिक्षण प्रक्रिया को संचालित करने के लिए डिजिटल ढांचा मौजूद था। दूसरा बड़ा समूह उन शिक्षण संस्थानों का था, जिनके पास कुछ बुनियादी डिजिटल ढांचा उपलब्ध था, लेकिन सभी शिक्षकों का प्रशिक्षित और तकनीकी रूप से दक्ष होना एक चुनौती थी। एक छोटा प्रतिशत उन स्कूल-कालेजों का था, जहां आनलाइन शिक्षण का विकल्प अपनाने में शिक्षक-विद्यार्थियों को कोई विशेष असुविधा नहीं हुई!
इस तरह उस समय निश्चित रूप से तकनीक की दखल स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक बढ़ी थी। मगर इस बदलाव में संकट यह था कि प्राय: किताबों की ही विषय-वस्तु को यूट्यूब-वाट्सऐप-टीवी आदि माध्यमों से प्रसारित किया जा रहा था। तकनीकी विकास के इस दौर में सिर्फ नए माध्यमों की नहीं, विषय-वस्तु और माध्यम दोनों के बीच बेहतर समन्वय की जरूरत है।
एक दूसरी चुनौती शिक्षकों की अपनी विशिष्टता को लेकर भी है। तकनीक की बात छोड़ भी दें, तो किसी विषय के अलग-अलग भाग को पढ़ाने के लिए अलग-अलग विशिष्टता के शिक्षक की जरूरत होती है। महाविद्यालयों में शिक्षकों की कमी और रिक्त पदों के अलावा, एक अकादमिक सत्र में शिक्षक कई महीने प्रवेश, परीक्षा और ‘नेशनल एक्रेडिएशन काउन्सिल’ के पैमाने पर खरा उतरने के लिए तैयारी कराते रहते हैं और शिक्षण के लिए उनकी कक्षा में उपलब्धता कम होती जाती है। कुछ ही शिक्षक होते हैं, जिनमें विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को पूरा कराने के साथ बदल रही दुनिया के अनुसार, विद्यार्थियों के लिए नए पाठ्यक्रम बनाने और स्वयं को अद्यतन करने का उत्साह रहता है।
विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में ऐसे कितने ही पाठ्यक्रम होंगे, जिनको ज्ञान और तकनीकी के परिप्रेक्ष्य में अद्यतन करने की जरूरत होगी, क्योंकि जब ये पाठ्यक्रम बनाए गए थे तब की जरूरत और विद्यार्थी अलग थे। क्या विश्वविद्यालयों को अपने दस वर्ष से अधिक पुराने पाठ्यक्रम का मूल्यांकन छात्रों की जरूरत के हिसाब से नहीं करना चाहिए? आमतौर पर ज्यादातर विश्वविद्यालयों में अकादमिक काउन्सिल की बैठकें पाठ्यक्रमों के संदर्भ में रस्मअदायगी तक ही सीमित रहती हैं। विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम बनाने की प्रक्रिया को भी बदलने की जरूरत है, क्योंकि तकनीकी विकास के साथ पाठ्यक्रमों में तीन-चार साल में बदलाव की जरूरत होगी।
प्रकाशन उद्योग में तकनीकी विकास का यह परिणाम भी हुआ है कि अकादमिक प्रोन्नति के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में कुंजी की तरह की पुस्तकें और शोधपत्र छपने लगे हैं, जिनसे आवश्यक मानक पूरे हो सकें। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए पिछले वर्षों में देश के विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध की गुणवत्ता को लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इसमें व्यापक सुधार करने की जरूरत बताई थी। मगर क्या किसी विश्वविद्यालय में शोध की गुणवत्ता बढ़ाना शिक्षकों के स्वयं गुणवत्तापूर्ण हुए बिना संभव है? विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को शोध की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कुछ प्रशासनिक प्रक्रियाओं में भी बदलाव करना चाहिए।
शोध प्रबंध की वर्तमान मूल्यांकन पद्धति को भी बदलने की जरूरत
हर साल देश के विश्वविद्यालयों में पूर्ण हुए शोधप्रबंधों की संग्रहित सूची जारी हो, तो इससे शोध में घिसे-पिटे और काटो चिपकाओ की समस्या का कुछ निदान हो सकता है। शोध प्रबंध की वर्तमान मूल्यांकन पद्धति को भी बदलने की जरूरत है। अक्सर छह माह से लेकर दस माह तक पीएचडी के मूल्यांकन की रिपोर्ट नहीं आती है। ऐसे में विद्यार्थी के पास इंतजार के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। कई विश्वविद्यालयों में पीएचडी का साक्षात्कार लेने जो विद्वान जाते हैं, कथित रूप से उनके आवभगत की पूरी जिम्मेदारी शोधकर्ता पर डाल दी जाती है, इसे कैसे बदला जाए?
कुछ विश्वविद्यालय शोध छात्र को उसके शोध प्रबंध के मूल्यांकन की रिपोर्ट नहीं देते, उसे गोपनीय रखते हैं। एक बार जब शोध छात्र को उपाधि मिल जाए, उसके बाद विश्वविद्यालय को मूल्यांकन रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए, जिससे समाज यह देख सके कि कोई शोध कार्य ज्ञान की दुनिया में क्या योगदान दे रहा है और व्यापक रूप से लोग उससे लाभान्वित हो सकें। इसके साथ ही जिस विद्वान ने उस शोधकार्य का मूल्यांकन किया है उनकी अंतर्दृष्टि भी नए शोधार्थियों को मिले, इसलिए भी जरूरी है कि मूल्यांकन रिपोर्ट को सार्वजानिक किया जाए।
उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले कई शिक्षकों का कहना है कि अकादमिक सत्र में चालीस-पचास प्रतिशत समय वे अलग-अलग समितियों की बैठकों और तरह-तरह के ‘इवेंट’ कराने में बिताते हैं। जब तक प्रतिभावान शिक्षक, तकनीकी और नए शोध का समन्वय पढ़ने-पढ़ाने में नहीं होगा, हमारा दुनिया की ज्ञान अर्थव्यवस्था में अगुआ बनना कठिन होगा, क्योंकि शिक्षा में आज जो हम निवेश करेंगे, उसका परिणाम दो-तीन दशक बाद मिलेगा। इसका उदाहरण हम शिक्षा में कंप्यूटर के आगमन से देख सकते हैं।
1986 की नई शिक्षा नीति में कंप्यूटर पर जोर दिया गया था और उसका परिणाम रहा कि आज भारत के कंप्यूटर विषेशज्ञ पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 तकनीकी और शिक्षा के बीच समन्वय करना और मशीनी शिक्षण, कृत्रिम मेधा आदि का लाभ लेना चाहती है, तो उसके लिए बड़े पैमाने पर उच्च शिक्षण संस्थानों में दक्ष लोगों की जरूरत होगी। जो लोग कालेजों-विश्वविद्यालयों में हैं, उन्हें एक शिक्षक-केंद्रित व्यवस्था में बदलाव के लिए तैयार होना होगा।