अशोक वाजपेयी

कई महीनों से हमारे मित्र चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का, अजमेर में ख्वाजा मोइउद्दीन चिश्ती की विश्वप्रसिद्ध दरगाह में जाना, उनकी तबीयत के कारण टलता रहा था। वे गहरी आध्यात्मिक आस्था के व्यक्ति हैं और दिल्ली में प्राय: हर सप्ताह एक बार चर्च, मंदिर और मस्जिद जाते हैं। वैसे कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं है पर वे, अपने लिए, यही मानते आए हैं कि बिना दैवी शक्तियों के सहयोग के सृजन संभव नहीं है। वे अपने स्टूडियो में जब भी कैनवस पर काम करने या कोई काम करने के बाद उठते हैं तो उसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं। यह निरा रूपक नहीं है कि रज़ा के चित्र एक गहरे और अकाट्य अर्थ में प्रार्थना हैं।

एक विशेष बस में हम अजमेर गए और उसी में वापस आए। इतवार था, तो दरगाह पर बेहद भीड़ थी, लेकिन पूर्व सांसद प्रभा ठाकुर के सहयोगियों ने दरगाह के प्रबंधकों से संपर्क कर ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि हम आसानी से वहां जा सकें और मत्था टेक सकें। दरगाह में सभी धर्मों के लोग बिना किसी रोकटोक या संकोच के आते हैं, भले बहुसंख्यक इस्लाम मानने वाले ही होते हैं। बरसों पहले जब मैं पहली बार अजमेर गया तो दरगाह भी गया था। तब मुझे पता नहीं था, जो कि इस बार दरगाह के प्रबंधक शाह सैयद अली अब्बास गुरदेजी के बताए और दिखाए चला, कि दरगाह में अकबर, जहांगीर, हिंदू राजाओं और साम्राज्ञी विक्टोरिया आदि द्वारा उपहार या आभारपूर्वक दी या बनाई गई संरचनाएं भी हैं।

आस्था के वरदान से वंचित होने के कारण धार्मिक स्थलों पर जाने में मुझे संकोच होता है: मैं क्यों अपनी अपवित्र उपस्थिति से किसी धार्मिक स्थल या वहां के देवता आदि को दूषित करूं, इसका मुझे क्या हक है? इतना मेला-ठेला था कि मुझे अपनी कैसी भी उपस्थिति का कोई अहसास न रहा। रज़ा साहब के चेहरे पर वैसे ही एक तरह की आध्यात्मिक आभा रहती है, जिसे बहुतों ने लक्ष्य किया है। इस यात्रा से वह आभा थोड़ी और दीप्त हो गई, ऐसा लगा। इतनी उमर- वे अगली फरवरी 2015 को तिरानबे बरस के हो जाएंगे- और स्वास्थ्य संबंधी कुछ कष्टकारी कमजोरियों के बावजूद वे बहुत चाव से गए और बहुत प्रसन्न और विभोर लौटे। कई बार मुझे यह देख कर प्रीतिकर विस्मय होता है: आस्था जीने को कैसी सघनता, दीप्ति और अर्थवत्ता देती है। अनास्था में, बावजूद उसके खरेपन के, ऐसी ताब कहां!

दरगाह को लेकर एक जनश्रुति यह है कि जब गरीबनवाज बुलाते हैं तभी कोई वहां जा पाता है। पाकिस्तान के तबके राष्ट्रपति अपने कार्यकाल में वहां आने की योजना बना कर भी नहीं आ सके। बाद में, जब गरीबनवाज ने चाहा तो वे आ पाए! ऐसी जनश्रुतियां भले तर्कसंगत न लगती हों, उनकी अपनी तर्क से परे सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। मेरी असह्य अपवित्रता पर गरीबनवाज की कुछ मेहर झर गई होगी, ऐसी अतर्कित उम्मीद कर रहा हूं: आखिर मैंने एक आस्थावान मित्र के साथ उनकी ड्योढ़ी पर माथा टेका है।

 

संगीत और विनय

हमारा समय ऐसा है, जिसमें हर किस्म का पाखंड बढ़ता जाता है: आस्था, ईमानदारी और विनय के अनेक भदेस या चतुर पाखंड रोज ही देखने को मिलते हैं। कई बार यह दुखद अहसास भी होता है कि सफलता के लिए अब पाखंड एक जरूरी शर्त हो गई है: जो जितना प्रबल पाखंडी है उतना ही उसके सफल होने की संभावना है। यह समय सिर्फ बौनों के उन्नयन भर का नहीं, झूठे और पाखंडियों की दिग्विजय का भी है। जो ईमानदार है वह संकोच में दबा बैठा है, जो बेईमान है, वह अट्टे पर चढ़ कर डंके की चोट पर इतरा रहा है!

यों वहां भी पाखंड का राज कम नहीं है, संभवत: संगीत ऐसा क्षेत्र है, जिसमें अब भी विनय की बड़ी जगह और व्याप्ति है। स्वर झूठ नहीं बोलते, जबकि शब्द ऐसा कर सकते हैं: स्वर आत्यंतिक रूप से पवित्र होते हैं, जबकि शब्दों का मटमैला होना उनकी अनिवार्य नियति है। सुनीता बुद्धिराजा ने हाल ही में हमारे समय के सात मूर्धन्य संगीतकारों से अंतरंग संवाद और उनके संस्मरणों की एक बेहद पठनीय पुस्तक वाणी प्रकाशन से ‘सात सुरों के बीच’ प्रकाशित की है। उसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सभी संगीतकारों की अपनी भाषा-शैली में बातचीत दर्ज है, जो अलग ही समझ और आस्वाद देती है।

पुस्तक को लेकर एक बातचीत में पंडित जसराज, सुनीता और मैं साथ थे। जिस बात ने मुझे चकित किया कि हमारे सभी शास्त्रीय मूर्धन्यों ने, जिनमें उस्ताद बिसमिल्लाह खां, पंडित किशन महाराज, पंडित जसराज, डॉ. बालमुरली कृष्ण, पंडित शिव कुमार शर्मा, बिरजू महाराज और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया शामिल हैं, अपने संगीतसृजन को देवार्पण की तरह रचा-बरता है, हरेक संगीत को लगभग प्रार्थना मानता है और उसे देवकृपा भी। दूसरे शब्दों में, सभी की गहरी आध्यात्मिक भर नहीं, धार्मिक आस्था है। हमारा शास्त्रीय संगीत गहरे अर्थ में अध्यात्म और शांति से, मौन और शांति से जुड़ा है, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन यह सब धार्मिक आस्था में भी समेकित होता है। यह सोचने की बात है कि क्या अनास्था से, या आस्था के अभाव में शास्त्रीय संगीत संभव है? क्या धर्मनिरपेक्षता से शास्त्रीय संगीत संभव हो सकता है? क्या हम यह मानने को विवश हैं कि धर्मनिरपेक्षता से, जिसे धर्मों से दूरी या उनके प्रति उदासीनता का पर्याय ही समझना चाहिए, साहित्य, ललित कलाएं, रंगमंच आदि तो संभव हैं, पर शास्त्रीय संगीत और नृत्य नहीं।

दूसरी बात जो इस पुस्तक से एक बार फिर सत्यापित होती जान पड़ी है कि सभी मूर्धन्य स्वाभाविक और उत्कट रूप से विनयशील हैं। शायद यह उनकी आस्था का अनिवार्य परिणाम भी है: आस्था विनय को गहराती और उसका विस्तार करती है। जसराज ने तो इसका जिक्र भी किया है कि कैसे एकाधिक बार अहंकार ने उन्हें विपथ किया और उसका दंड उन्हें मिला। हमारे साहित्य से, उसकी प्रश्नवाचकता, व्यक्ति केंद्रिकता आदि के कारण, आस्था और विनय दोनों ही का सार्वजनिक अभिव्यक्ति और निजी गुणों से लगभग लोप हो चुका है। हो सकता है कि ज्यादातर लेखकों की शास्त्रीय कलाओं में दिलचस्पी के अभाव का एक कारण यह भी हो। इस पर सोचना चाहिए।
नाउम्मीदी की जगह

यों तो जहां-तहां हमारी परंपरा में, उसके दर्शन और साहित्य में, उसके अध्यात्म में निराशा है, पर कुल मिला कर शायद यह सामान्यीकरण बहुत अनुचित न होगा कि वह आशा-आकांक्षा-मुक्ति से भरी-पूरी परंपरा है। जब ग़ालिब जैसे शायर ने उन्नीसवीं सदी में और उससे पहले मीर ने नाउम्मीदी पर आग्रह किया और उसे कविता के लगभग केंद्र में ला दिया तो हमारी परंपरा में यह बड़ा परिवर्द्धन और संशोधन था। फिर याद आता है कि कम से कम ‘महाभारत’ को किसी न किसी अर्थ में निराशा के महाकाव्य के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

यह ठीक से कह पाना कठिन है कि हमारे यहां आधुनिकता का आरंभ आशा-निराशा के युग्म से अलग जाने के उपक्रम से हुआ: दूसरे शब्दों में, आशा और निराशा दोनों को जगह मिल गई। फिर भी, इतना तो जाहिर है कि निराशा की, साहित्य में, विचार में जगह बढ़नी शुरू हो गई। इस निराशा के कई रूप उभरते रहे हैं, जिनमें सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक से लेकर आध्यात्मिक और अस्तिमूलक निराशा भी शामिल है। इस तर्क में भी बल है कि आशा-निराशा ऐतिहासिक कोटियां हैं, साहित्य उनसे अलग या ऊपर ही होता है। साहित्य सच्चाई को उसके अनेक आशयों-रूपों-परिणतियों में खोजता-पाता है और यह आपकी दृष्टि पर है कि उससे आप आशान्वित होते हैं या निराश।

इस समय जब सारा माहौल नए तरह की आशा-आकांक्षाओं से बजबजा रहा है, निराशा की बात उठाना पश्चात्पद अर्थात कुछ पिछड़ा होना है। बहुत उत्साह में भागती-दौड़ती भीड़ में निराशा एक अंधेरा-सा कोना है, जहां ठिठक कर आप कुछ ऐसा देख सकते हैं, जो अन्यथा नजरअंदाज हो जाता। निराशा के सिर्फ कर्तव्य नहीं होते, कुछ लाभ भी होते हैं। शायद ही ऐसा कोई आधुनिक व्यक्ति होगा, जिसे अपने जीवन में कभी न कभी घोर निराशा न होती हो, अपना जीवन और प्रयत्न अकारथ न लगता हो, अपने सामने अंधेरा ही अंधेरा नजर न आता हो। कुछ लोग फिर वहीं रम जाते हैं- ज्यादातर जीवन के प्रवाह में आगे ठिल जाते हैं, उससे दूर निकल जाते हैं। इस मानवीय स्थिति का बखान और पड़ताल करने वाला साहित्य है, पर उसे लोकप्रियता और मान्यता दोनों ही मुश्किल से मिल पाती है। हमारे यहां यह पूर्वग्रह प्रबल है कि साहित्य का एक जरूरी काम हमें आशा देना है, उसकी संभावना पर भरोसा कराना है। साहित्य की यह जिम्मेदारी किसने और कब तय कर दी, यह कतई स्पष्ट नहीं है। स्वयंसिद्ध भी नहीं।

यह उल्लेख कराना इस मुकाम पर असमीचीन न होगा कि संसार के साहित्यों में ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिन्होंने निराशा को ही अपना स्थायी भाव बनाया है और बहुत महत्त्वपूर्ण और महान साहित्य पैदा किया है। बीसवीं सदी में ही टीएस इलियट, सेमुएल बैकेट, फ्रांज काफ्का, जेम्स जायस, ज्बीग्न्येव हेर्बेर्त आदि कई नाम जेहन में आते हैं। हमारे यहां इतने ही नाम और कृतियां क्यों नहीं हैं? क्या हमारा सृजन अभी तक उम्मीद के झमेले में ही फंसा है ज्यादातर! या कि उसके भी परे जा चुका है?

 

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