Happy Govardhan Puja 2018: दिवाली का इंतजार सभी को होता है क्योंकि इस त्योहार के साथ और भी कई त्योहार मनाने का महत्व है। पूरे देश में यह पर्व धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया गया। दिवाली के साथ ही गोवर्धन पूजा और भाई दूज के पर्व भी मनाए जाते हैं। दिवाली से एक दिन बाद गोवर्धन पूजा होती है। यह पूजा कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को मनाया जाता है। गोवर्धन पूजा को अन्नकूट पूजा के नाम से भी जाना जाता है। विधि-पूर्वक इस त्योहार को मनाने से घर में सुख-शांति और समृद्धि आती है। हालांकि हम में से बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि गोवर्धन पूजा दिवाली के अगले दिन ही क्यों मनाई जाती है। आइए जानते हैं इसका महत्व। साथ ही इसे मनाने के पीछे की पौराणिक कथा। आखिर इस पर्व को मनाने के पीछे क्या वजह है?
गोवर्धन पूजा गोवर्धन पर्वत और श्रीकृष्ण को समर्पित है। इस दिन गोधन यानी गायों की पूजा भी की जाती है क्योंकि कृष्ण गायों को बहुत प्रेम करते थे। इस दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाया था जिससे उन्होंने बृजवासियों की भगवान इंद्र के प्रकोप से रक्षा की। इसलिए इस दिन को पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।
शास्त्रों में गोवर्धन पूजा मनाने को लेकर एक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार, इंद्र को अपनी शक्तियों पर बहुत अधिक घमंड हो गया। तब भगवान श्री कृष्ण ने उनके घमंड को तोड़ने के लिए एक लीला रची। एक दिन सभी ब्रजवासी और कृष्ण की मा यशोदा एक पूजा की तैयारी कर रहे थे तो कृष्ण यशोदा मां से पूछने लगे, “मईया आप सब किसकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं?” तब माता ने उन्हें बताया कि वह इन्द्रदेव की पूजा की तैयारी कर रही हैं। फिर भगवान कृष्ण ने पूछा मईया हम सब इंद्र की पूजा क्यों करते है?
इस पर मईया ने बताया कि इंद्र वर्षा करते हैं और उसी से हमें अन्न और हमारी गायों के लिए घास-चारा मिलता है। यह सुनकर कृष्ण जी ने तुरंत कहा मईया हमारी गाय तो अन्न गोवर्धन पर्वत पर चरती है, तो हमारे लिए वही पूजनीय होना चाहिए। इंद्र देव तो घमंडी हैं वह कभी दर्शन नहीं देते हैं। कृष्ण की बात मानते हुए सभी ब्रजवासियों ने इन्द्रदेव के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इस पर क्रोधित होकर भगवान इंद्र ने मूसलाधार बारिश शुरू कर दी। वर्षा को बाढ़ का रूप लेते देख सभी ब्रज के निवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगें। तब कृष्ण जी ने वर्षा से लोगों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कानी अंगुली पर उठा लिया।
इसके बाद सभी गांववासियों ने अपनी गायों सहित पर्वत के नीचे शरण ली। इससे इंद्र देव और अधिक क्रोधित हो गए तथा वर्षा की गति और तेज कर दी। इन्द्र का अभिमान चूर करने के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियंत्रित करें और शेषनाग से मेंड़ बनाकर पर्वत की ओर पानी आने से रोकने के लिए कहा। इंद्र देव लगातार रात-दिन मूसलाधार वर्षा करते रहे। कृष्ण ने सात दिनों तक लगातार पर्वत को अपने हाथ पर उठाएं रखा। इतना समय बीत जाने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। तब वह ब्रह्मा जी के पास गए तब उन्हें ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण कोई और नहीं स्वयं श्री हरि विष्णु के अवतार हैं। इतना सुनते ही वह श्री कृष्ण के पास जाकर उनसे क्षमा मांगने लगें।
इसके बाद देवराज इन्द्र ने कृष्ण की पूजा की और उन्हें भोग लगाया। तभी से गोवर्धन पूजा की परंपरा कायम है। मान्यता है कि इस दिन गोवर्धन पर्वत और गायों की पूजा करने से भगवान कृष्ण प्रसन्न होते हैं। इस दिन गाय के गोबर के टीले बनाने की भी परंपरा है जिन्हें फूलों से सजाया जाता है और इनके आसपास दीपक जलाएं जाते हैं। इन टीलों की परिक्रमा भी की जाती है जिसे गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के जैसा माना जाता है।