शास्त्री कोसलेन्द्रदास

वैदिक सनातन धर्म में सांख्य और योग दर्शन एक जोड़े के रूप में प्रचलित हैं। शास्त्रों में इन दोनों दर्शनों के आरंभिक सूत्र उपलब्ध हैं। उपनिषदों, महाभारत, भगवद्गीता तथा पुराणों में सांख्य एवं योग का उल्लेख एक साथ हुआ है। महाभारत का कथन है कि सांख्य एवं योग के कल्याणकारी फल हैं। सभी ग्रंथों में उनका पारस्परिक संबंध समान ही रहा है। यद्यपि सांख्य ने विश्व विकास के विभिन्न रूपों के संबंध में विवेचन करने वाले सभी ग्रंथों को प्रभावित किया है, किंतु दु:खद यह है कि इसे भारत में उतना सम्मान एवं आदर न प्राप्त हो सका, जितना योग को मिला अथवा अब भी मिलता है।

सांख्य सिद्धांत है सर्वाधिक प्राचीन

महर्षि पतंजलि के लिखे योगसूत्र ने कहीं भी विश्व के विकास की योजना पर स्पष्ट रूप से प्रकाश नहीं डाला है किंतु इसमें इतनी पर्याप्त सामग्री है, जिसके आधार पर यह कह सकते हैं कि यह सांख्य-पद्धति के कुछ सिद्धांतों को स्वीकार करता है। प्रकृति का सिद्धांत, सत्त्व, रज और तम नामक तीन गुण एवं उनकी विशेषताएं, आत्मा का स्वरूप एवं कैवल्य (मुक्ति में आत्मा की स्थिति) जैसी सांख्य की बातें योगसूत्र के कुछ निर्देशों से भी स्थापित की जा सकती हैं।

सांख्य के उद्गम की समस्या भारतीय दर्शन की कठिनतम समस्याओं में एक है। इसका उल्लेख पुरातन ग्रंथों में है। महाभारत का कथन है – एकमेव दर्शनं सांख्यमेव दर्शनम अर्थात एक ही दर्शन है और वह है सांख्य। महर्षि कपिल के द्वारा विरचित सांख्य सूत्र इसके आधार हैं।
सांख्य सिद्धांत पर बहुत से ग्रंथ एवं निबंध लिखे गए हैं। पर वे आरम्भिक सांख्य शिक्षा क्या थी, जिसे ईश्वरकृष्ण ने ‘सांख्यकारिका’ में सुधारा? इस विषय में सामान्य रूप से स्वीकृत कोई सम्मति नहीं है।

ईश्वरकृष्ण कृत सांख्यकारिका पर बहुत-सी टीकाएं हैं। अत्यंत आरंभिक टीका संभवत: परमार्थ द्वारा किए अनुवाद के रूप में है जो 546 ईस्वी में चीनी भाषा में छपी थी। इसका संस्कृत रूपांतर पंडित अय्या स्वामी शास्त्री ने किया है। सांख्यकारिका की माठराचार्य कृत टीका ‘माठरवृत्ति’ को 450 ईस्वी के उपरांत नहीं रखा जा सकता और ईश्वरकृष्ण को 250 ईस्वी के पश्चात का नहीं मान सकते। प्रो. एबी कीथ ने ‘सांख्य सिस्टम’ में कहा है कि ईश्वरकृष्ण 325ईस्वी के पश्चात नहीं रखे जा सकते।

चंचलता को रोकता है योग

योग को चित्त की वृत्तियों का निरोध कहा गया है अर्थात मन (चित्त) की चंचलताओं या क्रियाओं पर स्वामित्व स्थापन (नियंत्रण) या उनको हटाना। इसे व्यास ने कुछ काल के लिए ‘समाधि’ माना है। मन की विभिन्न भूमियां पांच हैं -क्षिप्त, मुग्ध (मूढ), विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध।
सांख्य पद्धति को स्वीकारता है योग

महर्षि पतंजलि के लिखे योगसूत्र ने कहीं भी विश्व के विकास की योजना पर स्पष्ट रूप से प्रकाश नहीं डाला है किंतु इसमें इतनी पर्याप्त सामग्री है, जिसके आधार पर यह कह सकते हैं कि यह सांख्य-पद्धति के कुछ सिद्धांतों को स्वीकार करता है। प्रकृति का सिद्धांत, सत्त्व, रज और तम नामक तीन गुण एवं उनकी विशेषताएं, आत्मा का स्वरूप एवं कैवल्य (मुक्ति में आत्मा की स्थिति) जैसी सांख्य की बातें योगसूत्र के कुछ निर्देशों से भी स्थापित की जा सकती हैं। योगसूत्र ने इंद्रियों के निरोध से उत्पन्न हुए फलों का उल्लेख किया है, जिनमें एक है प्रधानजय (विश्व के प्रथम कारण प्रधान का जीतना, जिसे सांख्य ने भी कहा है)। योगसूत्र ने कहीं भी प्रकृति एवं इसके विकास या उद्भव की चर्चा नहीं की है। अत: प्रकट होता है कि सांख्य ने प्रकृति के विषय में जो कहा है, योग उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेता है।

ईश्वर में है सर्वोच्च सर्वज्ञता

योग ने सांख्य के कुछ मौलिक सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया है, तथापि दोनों में कुछ अंतर भी है। सांख्य में ईश्वर को स्थान प्राप्त नहीं है किंतु योग के समाधि पाद में ईश्वर के अस्तित्व की बात पाई जाती है। यद्यपि वह केवल गौण रूप में ही प्रतिष्ठापित है और सम्भवत: यह केवल सर्वसाधारण के विश्वास पर ही आधारित है, क्योंकि योगसूत्र ने कहीं भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा है कि ईश्वर विश्व का सृष्टा है। वह जो कुछ कहता है वह यह है कि उसमें सर्वोच्च सर्वज्ञता पाई जाती है।

वह आदि ऋषियों का आचार्य है और ‘ओम’ के जप एवं उस पर ध्यान लगाने से योगी आत्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है। सांख्य एवं योग दोनों में परमार्थ है, कैवल्य किंतु सांख्य सम्यक ज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य अनुशासन की व्यवस्था नहीं करता। सांख्य आध्यात्मिक एवं बौद्धिक है, किंतु योग ने इस विषय में एक विशद मानस अनुशासन की व्यवस्था की है। केवल ज्ञान की अपेक्षा अभ्यास एवं प्रयास को अधिक महत्त्व एवं प्रधानता दी है तथा प्राणायाम एवं ध्यान पर विशेष बल दिया है।

सांख्य व योग में आत्मा है नित्य

सांख्य ने आत्मा के उद्धार एवं जन्म से छुटकारा (मुक्ति) पाने के लिए पुरुष एवं प्रकृति (गुण) एवं दोनों के अंतर को भलिभांति समझ लेना पर्याप्त माना है, किंतु दूसरी ओर योग केवल इस दार्शनिक सरल मानसिक स्थिति तक पहुंच जाने पर ही संतोष नहीं करता। वह इच्छा एवं संवेगों के क्रमबद्ध प्रशिक्षण एवं संयमन पर बल देता है। सांख्य एवं योग दोनों में प्रत्येक आत्मा नित्य है।

व्यक्ति की नियति है प्रकृति एवं उसके विभिन्न स्वरूपों से मुक्ति पाना तथा सदैव वही (शुद्ध स्वरूप में) बने रहना। यहीं पर सांख्य व योग शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत से पृथक हैं। अद्वैत वेदांत के अनुसार आत्मा की अन्तिम नियति है ब्रह्म में समाहित या निमग्न हो जाना। विज्ञानमिक्षु ने 1550 ई० में सांख्यप्रवचनसूत्र पर एक भाष्य लिखा। विज्ञानभिक्षु ने यह असंभव मान्यता स्थापित करने का प्रयास किया है कि सांख्य सिद्धांत की बातें ईश्वरवादी सिद्धांत या अद्वैत वेदांत के विरोध में नहीं पड़ती हैं।

एक हैं सांख्य और योग

गीता का कथन है कि अज्ञानी लोग ही सांख्य एवं योग को भिन्न मानते हैं किंतु जो इनमें से किसी एक का आश्रय लेता है वह दोनों द्वारा उद्घाटित फल की प्राप्ति करता है और जो दोनों को समान समझता है, वह सत्यावलोकन करता है। यहां ‘सांख्य’ का अर्थ है ‘संन्यास’ और ‘योग’ का अर्थ है ‘कर्मयोग’।