राधिका नागरथ

जीवन में तीन बातों का होना आवश्यक है। संवेदनशीलता, पारदर्शिता एवं नेकी। इन तीनों मूल्यों पर ही जीवन अग्रसर होना अच्छी बात होती है। सच में जीवन को सही ढंग से जीने की कला इन तीन नियमों में छिपी है। अगर मनुष्य संवेदनशील हैूं तो उसे अपने आसपास में घटित चीजों को समझने और उन को बदलने की इच्छा होगी या फिर उसको स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। जिस चीज को बदलना चाहिए उसको बदलने की कोशिश हो और जो अपने हाथ से बाहर की बात हो उसे स्वीकार करने की, कितना सहज जीवन हो जाता है अगर जीवन में पारदर्शिता है, तो निश्चित ही फर्क पड़ता है।

कुछ बनने की जरूरत नहीं होगी किसी के सामने, जो है वही दिखाई देगा व्यक्तित्त्व और व्यवहार में। आत्म साक्षात्कार के लिए भी कथनी और करनी एक होना आवश्यक है, प्रभु प्राप्ति की राह में भी इसी का महत्त्व है। रामकृष्ण परमहंस एक उच्च कोटि के भक्त काली के उपासक इसीलिए बन पाए क्योंकि उनकी कथनी और करनी एक थी।

अगर गलती से भी उनके मुख से कुछ निकल जाता था और उसको वह पूरा ना कर पाते, तो बेचैनी रहती और सो नहीं पाते थे। एक बार उन्होंने कह दिया कि वे कहीं जाएंगे इस बीच कोई आ गए और वह थोड़ी देर हो गई, तो उनका ह्रदय छटपटाने लगा, जो बात मुख से निकाली उसको सदा पूरा करना वाक् सिद्धि की उपलब्धि देता है। फिर जो कुछ हम सोचे या चाहे वह हमारे आसपास घटित होने लगता है।

तीसरा गुण जीवन में नेक कार्य करने का हमें अहंकार बनाने में बहुत मदद करता है। किसी के अभाव को देखकर जब मन में करुणा उत्पन्न हो तो सहज ही हम नेक रास्ते पर चलने लगते हैं। जिसका परिणाम सुखद ही होता है। हो सकता है नेकी करने में कुछ शारीरिक कष्ट हो या सामर्थ्य से ज्यादा खर्चा करना पड़े परंतु जो सुकून किसी की भलाई में मिलता है, जो सुकून किसी के चेहरे पर मुस्कान ला कर महसूस होता है, उसकी तुलना में अनंत कोटि ऐश्वर्य पाकर भी सुख नहीं देता। वैसे भी जैसे स्वामी विवेकानंद कहते थे कि वही जीवित है जो दूसरों के लिए जीते हैं, सिर्फ अपना पेट भरने वाले तो मृत के बराबर हैं। जब हम दूसरे के लिए कष्ट उठाते हैं, अंत:स्तर पर हम अपनी शुद्धि कर लेते हैं और मन की शुद्धि का सेवा से बढ़कर और कोई माध्यम नहीं है।

ये तीनों गुण जीवन को सही मायने में अर्थ प्रदान करते हैं और संतुष्टि देते हैं इन मूल्यों को जीने वाले व्यक्ति जीवन मुक्त होते हैं। उन्हें शरीर छूटने के बाद मुक्ति की आवश्यकता नहीं ऐसे व्यक्ति अपने जीवन से परिलक्षित करते हैं कि आदर्श जीवन क्या होता है और एक आम आदमी भी इस जीवन को जी सकता है। उसके लिए कंदरा में जाकर तपस्या करने की या हठयोग जैसी साधनाओं की आवश्यकता नहीं।

रोजमर्रा का जीवन जीते हुए भी ऐसा जीवन जिया जा सकता है ,जो खुद के लिए भी उपयोगी हो और समष्टि के लिए भी। हमारे आसपास जरूरत तो काफी नजर आती है ,क्या सब कुछ दे देना चाहिए क्योंकि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है ‘योग क्षेम वहाम्यहम्’ यानी प्रभु हमारे भरण पोषण स्वयं करते हैं हमें उसके लिए संचय नहीं करना चाहिए। अपरिग्रह का मंत्र पतंजलि योग सूत्र में भी बार-बार आता है। पूर्णतया उस प्रभु पर आश्रित होकर , क्या अपना सब कुछ दूसरे के लिए अर्पित करना चाहिए।

इसलिए मरने के बाद तो अपनी वसीयत कर देते हैं कि हमारा सब पैसा अस्पताल को जाए परंतु जीते जी हम अपने कठिन दिनों के लिए, बीमारी के लिए बचा कर रखते हैं कि बुढ़ापे में काम आएगा तो क्या इसमें दोष है।जितना संभव हो अपने आसपास का अभाव कम करें। संपर्क में आने वाले जो व्यक्ति हैं कोई भी दुखी ना हों इसकी तन मन और धन से कोशिश करना चाहिए। संजोया हुआ वह भी प्रभु का मान कर उसको संभाले उसकी हिफाजत करने में कोई दोष नहीं।