नरपतदान चारण

30 अगस्त यानी भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी को संत ज्ञानेश्वर की जयंती है। ठीक आज ही के दिन ई. सन् 1275 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के आपेगांव में संत ज्ञानेश्वर का जन्म कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ। उनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता रुक्मिणी बाई थीं। संत ज्ञानेश्वर को भारत के महान संतों और कवियों में गिना जाता है।

अल्प आयु में ही ज्ञानेश्वरजी को नानाविध संकटों का सामना करना पड़ा। संन्यास छोड़कर गृहस्थ बनने के कारण समाज ने ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत का बहिष्कार कर दिया। वे कोई भी प्रायश्चित करने के लिए तैयार थे, पर शास्त्रकारों ने बताया कि उनके लिए देह त्यागने के अतिरिक्त कोई और प्रायश्चित नहीं है और उनके पुत्र भी जनेऊ धारण नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने प्रयाग में त्रिवेणी में जाकर पत्नी के साथ संगम में डूबकर प्राण दे दिए। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने उन्हें गांव के अपने घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके सामने भीख मांगकर पेट पालने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया।

15 वर्ष की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बाद के दिनों में ज्ञानेश्वर के बड़े भाई निवृत्तिनाथ की गुरु गैगीनाथ से भेंट हो गई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे। उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा और कृष्ण उपासना का उपदेश दिया था। फिर निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। फिर पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से पैठण पहुंचे। वहां रहने के दिनों की ज्ञानेश्वर की कई चमत्कारिक कथाएं प्रचलित हैं। कहते हैं, उन्होंने भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुंह से वेद मंत्रों का उच्चारण कराया। भैंस को जो डंडे मारे गए, उसके निशान ज्ञानेश्वर के शरीर पर उभर आए। यह सब देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी ख्याति अपने गांव तक पहुंच चुकी थी। वहां भी उनका बड़े प्रेम से स्वागत हुआ। इस तरह सर्वविध कष्ट सहकर भी उन्होंने अखिल जगत पर अमृत सिंचन किया।

ज्ञानेश्वरजी के प्रचंड साहित्य में कहीं भी, किसी के विरुद्ध परिवाद नहीं है। क्रोध, रोष, ईर्ष्या, मतभेद का कहीं लेशमात्र भी नहीं है। ज्ञानेश्वर समग्र क्षमाशीलता का विराट प्रवचन हैं। ज्ञानेश्वरजी पर छोटी बहन मुक्ताबाई का ही बड़ा प्रभाव था। एक बार किसी नटखट व्यक्ति ने ज्ञानेश्वरजी का अपमान कर दिया। उन्हें बहुत दुख हुआ और वे कक्ष में द्वार बंद करके बैठ गए। जब उन्होंने द्वार खोलने से मना किया, तब मुक्ताबाई ने उनसे जो विनती की वह मराठी साहित्य में ताटीचे अभंग (द्वार के अभंग) के नाम से अतिविख्यात है।

मुक्ताबाई उनसे कहती हैं- हे ज्ञानेश्वर! मुझ पर दया करो और द्वार खोलो। जिसे संत बनना है, उसे संसार की बातें सहन करनी पड़ेंगी, तभी श्रेष्ठता आती है, जब अभिमान दूर हो जाता है। जहां दया वास करती है, वहीं बड़प्पन आता है। आप तो मानव मात्र में ब्रह्मा देखते हैं, तो फिर क्रोध किससे करेंगे? ऐसी समदृष्टि कीजिए और द्वार खोलिए। यदि संसार आग बन जाए तो संत मुख से जल की वर्षा होनी चाहिए। ऐसे पवित्र अंत:करण का योगी समस्त जनों के अपराध सहन करता है। इन बातों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जो आगे चलकर उनके साहित्य में सामने आया। ज्ञानेश्वर ने एक वर्ष के अंदर ही भगवतगीता पर टीका लिख डाली थी।

‘ज्ञानेश्वरी’ नाम का यह ग्रंथ 10 हजार पद्यों में लिखा गया है। यह भी अद्वैतवादी रचना है, किंतु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों (छंदों) की इन्होंने हरिपाठ नामक एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का उदगार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में भी ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- अमृतानुभव, चांगदेवपासष्टी, योगवशिष्ठ टीका आदि। ज्ञानेश्वर ने उज्जयिनी, प्रयाग, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारका, पंडरपुर आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की। उस महान संत ज्ञानेश्वर जी ने 1296 में महज 21 वर्ष की आयु में संसार त्याग दिया और समाधि तक पहुंच गए।

महान कार्यों और ज्ञान के लिए उन्हें प्रति वर्ष आज के दिन याद किया जाता है। इस दिन लोग नित्य क्रियाओं को कर संत ज्ञानेश्वर जी के सम्मान में सत्संग, भजन उपदेश प्रदान करते हैं। संत ज्ञानेश्वर के समक्ष प्रार्थनाएं की जाती है। उन्हें ज्ञान देने के लिए शुक्रिया कहा जाता है।