सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने वेदों और गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के संयुक्त प्रचार-प्रसार के लिए निर्मल पंथ की स्थापना की थी। उत्तराखंड की सीमा से लगे हिमाचल प्रदेश के पोंटा साहिब में यमुना जी के तट पर तपस्यारत गुरु गोविंद सिंह जी को आत्मबोध हुआ और 1686 में उन्होंने पांच सिख अनुयायियों को संस्कृत और वेदान्त का अध्ययन करने के लिए उत्तर प्रदेश के संस्कृत भाषा ज्ञान के प्रमुख केंद्र काशी (वाराणसी) भेजा था।
पांच भक्तों को निर्मल संत की संज्ञा दी, संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा काशी
गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने पांच सिख भक्तों को निर्मल संत की संज्ञा दी और उन्हें संस्कृत के अध्ययन के लिए काशी रवाना किया। गुरु महाराज ने उन्हें उपदेश दिया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब की गुरमुखी में लिखी वाणी के साथ-साथ संस्कृत भाषा में लिखी वेदों की वाणी का अध्ययन कर उसका भी प्रचार-प्रसार करेंगे। इस तरह निर्मल पंथ के संत भगवा धारण करते हैं और गुरुमुखी के अध्ययन के साथ-साथ संस्कृत भाषा में ज्ञान प्राप्त कर शास्त्री, आचार्य और वेदांताचार्य की उपाधि प्राप्त करते हैं। काशी में संस्कृत के अध्ययन के बाद ये संत अपनी परंपरा के निर्मल भेख के श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा में विधिवत रूप से शामिल होते हैं। अखाड़े के श्री महंत और निर्मल भेख के परमाध्यक्ष उन्हें दीक्षा प्रदान करते हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब के पाठ के साथ-साथ गीता का पाठ भी किया जाता है
श्री निर्मल पंचायती अखाड़े के श्री महंत के पद पर पदासीन होने के लिए निर्मल संत को गुरुवाणी के साथ-साथ वेद वाणी में भी पारंगत होना पड़ता है। साथ ही शास्त्री, आचार्य या वेदांताचार्य होना भी आवश्यक है। निर्मल संतों के अखाड़े-आश्रमों में गुरुवाणी के साथ-साथ वेद वाणी भी गुंजायमान होती है। गुरु ग्रंथ साहिब के पाठ के साथ-साथ गीता का पाठ भी किया जाता है और निर्मल अखाड़े व आश्रमों में पंचदेव पूजा की जाती है। गुरु नानक देव जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गुरु गोविंद सिंह जी ने संस्कृत भाषा और वेद वाणी के पारंगत अपने अनुयायियों को निर्मल संत का नाम दिया। कहा जाता है कि जब गुरु नानक देव जी को पंजाब की बेई नदी के तट पर दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई तो उन्होंने गुरु के रूप में पहली दीक्षा और गुरु मंत्र भाई भागीरथी निर्मल संत को दिया और निर्मल संप्रदाय की स्थापना की।
पटियाला के राजा ने निर्मल अखाड़ा की स्थापना के लिए दी थी जमीन
गुरु नानक देव की परंपरा को आगे बढ़ाने का पुनीत कार्य सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने किया। निर्मल संतों ने पूरे देश में विशेषकर हरिद्वार, ऋषिकेश, पंजाब, हरियाणा में संस्कृत के कई विद्यालय स्थापित किए, जहां छात्र -छात्राओं को संस्कृत की शिक्षा-दीक्षा निशुल्क प्रदान की जाती है। निर्मल संप्रदाय से जुड़े साधु-संतों की एकता और भाषा के प्रचार-प्रसार को संगठित व संस्थागत रूप प्रदान करने के लिए 1861 में निर्मल संप्रदाय के महान तपस्वी बाबा मेहताब सिंह महाराज ने श्री निर्मल पंचायती अखाड़े की स्थापना पंजाब के पटियाला में की। पटियाला के राजा ने निर्मल अखाड़ा की स्थापना के लिए जमीन, भवन और धन संपदा दान की थी।
कुछ समय बाद श्री निर्मल पंचायती अखाड़े का मुख्यालय पटियाला से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में स्थानांतरित किया गया। उसके बाद हरिद्वार के उपनगर कनखल में श्री निर्मल पंचायती अखाड़े का मुख्यालय बनाया गया। श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा की ओर से अखाड़े के मुख्यालय कनखल में वर्ष 1930 में संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए निर्मल संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की गई, जो आज संस्कृत भाषा का प्रमुख अध्ययन केंद्र है।
श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा के श्री महंत ज्ञानदेव सिंह वेदांताचार्य का कहना है कि निर्मल संप्रदाय समाज श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में भी अहम योगदान देता है। निर्मल अखाड़े के संत केशधारी होते हैं और वे कड़ा व कोपीन पहनते हैं। निर्मल पंथ में कोई भी जाति भेद नहीं होता है। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को निर्मल संत के रूप में दीक्षित किया जाता है और सभी वर्णों के लोग एक साथ एक पंगत में बैठकर भोजन प्रसाद ग्रहण करते हैं। निर्मल संप्रदाय का मूल मंत्र ‘पंगत-संगत एक समान’ हैं।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म बिहार के पटना में 22 दिसंबर 1666 को पौष मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन हुआ था। इस दिन उनका प्रकाश पर्व श्री निर्मल अखाड़ा और उनसे जुड़े आश्रमों में श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। इस बार 17 जनवरी को गुरु गोविंद सिंह जी का प्रकाश पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार मनाया जाएगा।
गुरु गोविंद सिंह जी एक महान योद्धा, कवि और दार्शनिक थे। 1675 में नौ साल की उम्र में उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सम्राट औरंगजेब द्वारा सर कलम कर दिए जाने के बाद उन्हें औपचारिक रूप से सिखों के दसवें गुरु के रूप में स्थापित किया गया था। उनके पिता नौवें सिख गुरु थे। मुगलों से हिंदुओं की रक्षा के लिए गुरु गोविंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने ही खालसा पंथ का उद्घोष वाक्य ‘बोले सो निहाल’ दिया था। वे खालसा पंथ के प्रमुख रहे, जो उनकी मुगलों से लड़ने के लिए समर्पित योद्धाओं की एक फौज थी।
कनखल (हरिद्वार) में गंगा तट पर स्थित डेरा बाबा दरगाह सिंह तीजी पात शाही गुरु अमर दास जी के तप स्थल के महंत रंजय सिंह महाराज बताते हैं कि गुरु गोविंद सिंह जी ने आदि जगतगुरु शंकराचार्य की शास्त्र और शस्त्र की परंपरा को आगे बढ़ाया। इसलिए उन्होंने मुगलों से लड़ने के लिए और हिंदुओं की रक्षा के लिए खालसा पंथ की स्थापना की।