शास्त्री कोसलेंद्रदास

भारत के लोकतंत्र की उत्कृष्टता पूरे विश्व में निराली है। इसका आधार वह वैदिक सनातन परंपरा है, जो वसुधैव कुटुम्बकम् से ओत—प्रोत है। भारत से इतर देशों ने नागरिकों को समानता के अधिकार देने में शताब्दियां लगाई हैं। अनेक देशों ने महिलाओं को मताधिकार देने में दशकों लगा दिए पर भारत ने आजादी के साथ ही स्त्री-पुरुष के लिंग भेद को समाप्त कर दिया। इसका कारण वैदिक मूल्यों पर टिका वह समाज है, जिसके लिए आज भी सत्य, दया, दान और अहिंसा आकर्षण एवं श्रद्धा के केंद्र बने हुए हैं।

सनातन संस्कृति की चेतना

मूल्यों का निर्धारण वातावरणजन्य होता है। एक या दो शती पूर्व तक दासता या जातीय वैषम्य, फैक्ट्रियों में छोटी-छोटी अवस्था वाले बच्चों को पसीने से लथपथ देखना ईसाई देशों में नैतिक तटस्थता का द्योतक था किंतु आज उन देशों में लोग इसे घृणित एवं अनैतिक मानते हैं। किसी काल में पशु यज्ञों को बड़ी महत्ता प्राप्त थी और उसे परलोक संबंधी महान लक्ष्य का रूप दिया जाता था किंतु उपनिषदों ने अहिंसा को प्रमुख महत्त्व दिया।

सनातन संस्कृति के ऐसे विशिष्ट मूल्य हैं, जो सहस्रों वर्षों से आज तक चले आए हैं, जैसे यह चेतना कि सम्पूर्ण लोक अनंत, परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, इंद्रिय-निग्रह, दया एवं दान। आज का युग लोकनीतिक है और लोकनीति के महत्त्वपूर्ण मूल्य हैं – न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं भातृभाव किंतु भाग्यवश जो लोकनायक लोकतंत्र का जय-घोष करते हैं, बहुत-से ऐसे हैं जो स्वार्थ एवं ईर्ष्या की मुट्ठी में हैं। लॉर्ड ऐक्टन ने लिखा था – ’सभी प्रकार की सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट करती है और पूर्ण एवं अनियंत्रित सत्ता व्यक्ति को पूरी तरह भ्रष्ट कर देती है।’ कौटिल्य ने दो सहस्र वर्षों से अधिक पहले कहा था ’शक्ति मन को मत्त कर देती है।’

जनतंत्र और लोकनीति का बचना जरूरी

भारतरत्न डा. पांडुरंग वामन काणे लिखते हैं कि आज के बहुत-से युवा लोगों में कदाचित ही ऐसी बात पाई जाती हो जिसके लिए वे उत्सर्ग के साथ प्रयत्न करें, अत: उनके समक्ष कोई भी आदर्श नहीं है। आवश्यक है कि पुरुषों एवं नारियों में धार्मिक भावना का संरक्षण होना चाहिए और विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान के मार्ग के रोड़ों को दूर करना चाहिए।

वास्तव में प्राचीन धर्म के सिद्धांत दोषी नहीं हैं, प्रत्युत आधुनिक समाज के फिर से गठित एवं व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। विशेषत: जब हमारे देश में लोकनीतिक जनतंत्र स्थापित है। ऐसे में महान आर्थिक विषमता के बीच भी समानता रखने के लिए बहुत वर्षों तक शक्तिशाली दलों एवं सामाजिक संप्रदायों से स्वतंत्रता की रक्षा करना हरेक भारतीय का कर्तव्य होना चाहिए। साथ ही, नकली नायकों से लोकनीति को बचाना है तथा धनिक लोगों के प्रभुत्व से भी अपने जनतंत्र की रक्षा करना बड़ा काम है।

धर्म के आधारभूत सिद्धांतों से परिवर्तन

लोगों को देश की विलक्षण एवं दारुण कठिनाइयों से विमुख नहीं होना चहिए। आंखें खोलकर इस विस्तृत एवं अति विशाल भारत की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए, जहां आठ प्रमुख धर्म हैं – हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, पारसी, ईसाई एवं यहूदी। अनेक ऐसी जातियां हैं, जिनके अपने विशिष्ट आदिम आचार हैं। विभिन्न राज्य हैं जो विभिन्न भाषाओं पर आधृत हैं। कई संघीय प्रदेश हैं और लगभग 200 परिगणित बोलियां हैं।

भारतवासियों में काफी विषमताएं हैं, एक ओर आदिम जातियां हैं और दूसरी ओर पढ़े-लिखे लोग हैं और इन दोनों के बीच में अशिक्षित लोगों की बड़ी संख्या है। बाह्य लोगों द्वारा शतियों तक विजित होने के उपरांत भारत ने स्वतंत्रता पाई है। स्पष्ट है, यह सब बड़ी गंभीरता से सोचने एवं कार्यरत रहने के लिए उद्वेलित करता है। ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म के आधारभूत सिद्धांत नहीं छोड़े जाने चाहिए।

पर नई एवं जटिल दशाओं से संघर्ष करने के लिए उसका नवीनीकरण कर एक परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति यही कहता है कि हममें राष्ट्रीय एकतानुभव के लिए भावात्मक एकता की परम आवश्यकता है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ लोगों ने निर्देश किया है कि जाति-प्रथा को उखाड़ फेंक देना चाहिए। पर सोचने की बात है कि यदि जाति-प्रथा कोई विभाव्यमान अथवा प्रकट वस्तु हो तो उसे सुकरता एवं शीघ्रता से तोड़ा जा सकता है किंतु बात वास्तव में वैसी नहीं है। कानून द्वारा इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। लगातार बहुत दिनों के प्रयासों के फलस्वरूप जनजागरण के माध्यम से हृदय परिवर्तन होने पर ही यह सम्भव हो सकता है।

रूढ़िगत विश्वास एवं आधुनिक विज्ञान

आजकल भारत में विचारों की बाढ़ आ गई है और भांति-भांति की विचारधाराओं का उद्गार हो रहा है। आज बहुत-से देशवासी अपने धर्म से प्रेरणा नहीं ग्रहण करते। यह धर्म का दोष नहीं है, यह हमारे पूर्ववर्ती लोगों एवं हमारा दोष है कि हमने अपनी संस्कृति एवं धर्म के सारतत्त्व को सबके समक्ष प्रकट नहीं किया और अंधविश्वासों एवं भ्रामक अवधारणाओं से उत्पन्न अनावश्यक तत्त्वों को पृथक करके प्रमुख सार-तत्त्वों पर बल नहीं दिया।

आज के सामान्य जन प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों एवं आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के बीच पाए जाने वाले विभेदों से व्यामोहित—से हो गए हैं। इसका दु:खद परिणाम यह हुआ है कि सदाचार के परम्परागत जीवन-मूल्य विच्छिन्न होते जा रहे हैं और कतिपय विचारधाराएं हमें बांधती जा रही हैं, पुराने पाश टूट रहे हैं और नए पाशों से हम बंधते जा रहे हैं। आज धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातों पर बहुत—सी स्पष्ट विवेचित धारणाएं उपस्थित हो गई हैं।