शास्त्री कोसलेंद्रदास

वैदिक सनातन धर्म के अनुगामियों के लिए श्रद्धा और आस्था के आधारों में सर्वप्रमुख है गंगा। वेदों से लेकर भारतीय भाषाओं के आधुनिक काव्यों तक गंगा न केवल साहित्यिक भाव के साथ उपस्थित है बल्कि उसका गौरव और माहात्म्य अतिविशिष्ट है।

गंगा दशहरा को गंगोत्सव

ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा महोत्सव होता है। ब्रह्मपुराण में आया है कि यह दिन दस पापों को नष्ट करता है। मनुस्मृति ने दस पापों को तीन श्रेणियों में बांटा है – कायिक, वाचिक एवं मानस। ऐसा कल्पित है कि इसी तिथि पर गंगा पृथ्वी पर मंगलवार को हस्त नक्षत्र में अवतरित हुई थी, जिससे इस दिन गंगोत्सव का आयोजन होता है।

धरती पर आने से हुई गंगा

वराहपुराण में गंगा शब्द की व्युत्पत्ति है – गां गता सा गंगा अर्थात जो पृथ्वी की ओर चली गई हो, वह गंगा है। पद्मपुराण में आया है कि भगवान विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का। पिता, पति, मित्रों एवं संबंधियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरुघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियां, मित्र एवं संबंधी उनका त्याग कर देते हैं किंतु माता गंगा उनका त्याग कभी नहीं करती।

वेदों में सबसे पहले गंगा

ऋग्वेद के नदीसूक्त में सर्वप्रथम जिस नदी का आह्रान किया गया है, वह है गंगा। ऋग्वेद में गांग्य शब्द है, जिसका अर्थ है गंगा पर वृद्धि प्राप्त करता हुआ। शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंति की विजय एवं उनके द्वारा किए यज्ञों का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में एक प्राचीन गाथा का उल्लेख है – नाडपित पर अप्सरा शकुंतला ने भरत को गर्भ में धारण किया, जिसने संपूर्ण पृथिवी को जीतने के बाद इंद्र के पास यज्ञ के लिए एक सहस्र से अधिक अश्व भेजे। महाभारत, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण में गंगा की महत्ता एवं उससे उत्पन्न होने वाले पवित्रीकरण के बारे में सैंकड़ों श्लोक हैं।

गंगा की सात धाराएं

पुराणों में आया है कि भगवान शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ‘‘ादिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस् एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भगीरथी है। कूर्मपुराण एवं वराहपुराण का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्षु एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा दक्षिण यानी भारतवर्ष की ओर आती है और सप्त-मुखों में होकर समुद्र में गिरती है। ब्रह्मपुराण में गंगा को विष्णु के पांव से प्रवाहित एवं शिव के जटाजूट में स्थापित माना है।

कलियुग में सबसे पवित्र है गंगा

महाभारत में आया है कि कृतयुग में सभी स्थल पवित्र थे। त्रेता में पुष्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर में कुरुक्षेत्र और कलियुग में गंगा। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जलधाराओं में वे गंगा हैं – स्रोतसामस्मि जाह्नवी। मनु ने साक्षी को सत्य के उच्चारण के लिए गंगा और कुरुक्षेत्र की शपथ लेने को कहा है, जिससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरुक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे। पद्म पुराण ने गंगा को स्वर्ग में मंदाकिनी, गंगा रूप में पृथ्वी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है।

गंगा मिटाती है पाप

मत्स्यपुराण का कहना है कि गंगा में पहुंचना सब स्थानों में सरल है। केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं गंगासागर, जहां गंगा समुद्र में मिलती है, पहुंचना कठिन है। जो लोग इन तीर्थों में गंगा स्रान करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं और जो लोग यहां मर जाते हैं, वे पुन: जन्म नहीं पाते। स्कंदपुराण में आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ है। सभी देश शुभ हैं और गंगा के किनारे बसने वाले सभी लोग दान ग्रहण के योग्य हैं।

गंगा पर हैं ग्रंथ अनेक

स्कंद पुराण के काशीखंड में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है। गंगा के माहात्म्य एवं उसकी तीर्थयात्रा के विषय में कई ग्रंथ प्रणीत हुए हैं। इनमें पंडितराज जगन्नाथ की लिखी गंगालहरी सर्वाधिक प्रसिद्ध है। गणेश्वर (1350 ईस्वी) का गंगापत्तलक, मिथिला के राजा पद्मसिंह के आश्रय में विद्यापति द्वारा लिखित गंगावाक्यावली, धारेश्वर के पुत्र गणपति की तीन अध्यायों में गंगाभक्तितरंगिणी (1710 ईस्वी) एवं वर्धमान का गंगाकृत्यविवेक, हरिनंदन का गंगाभक्तिप्रकाश व शिवदत्त शर्मा का गंगाभक्तिरसोदय गंगा पर प्रणीत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

गंगा में अस्थि विसर्जन

विष्णुधर्मसूत्र आदि ग्रंथों ने अस्थि-भस्म या जली हुई अस्थियों का प्रयाग या काशी या अन्य तीर्थों में प्रवाह करने की व्यवस्था दी है। अग्निपुराण में आया है कि मृत व्यक्ति का तब कल्याण होता है जब उसकी अस्थियां गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है। जब तक गंगा जल में अस्थियों का एक टुकड़ा भी रहता है तब तक व्यक्ति स्वर्ग में निवास करता है। यदि आत्मघातियों एवं पतितों की अस्थियां गंगा में रहती हैं तो उनका भी कल्याण होता है।

गंगा में अस्थि-प्रवाह की परंपरा संभवत: इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर के पुत्रों की गाथा से उत्पन्न हुई है। सगर के पुत्र कपिल महर्षि के क्रोध से भस्म हो गए थे और भगीरथ के प्रयत्न से स्वर्ग से नीचे लाई गई गंगा के जल से उनकी भस्म बहा दी गई, तब उन्हें मुक्ति मिली। यह कथा रामायण, महाभारत और विष्णुपुराण में है। नारदीयपुराण के मत से न केवल भस्म हुई अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से मृत को कल्याण प्राप्त होता है, प्रत्युत नख एवं केश डाल देने से भी कल्याण होता है।

गंगा तट पर न करें 14 कार्य

रघुनन्दन के प्रायश्चित्ततत्त्व ने ब्रह्माण्डपुराण से उद्धरण देकर 14 कर्मों का उल्लेख किया है, जिन्हें गंगा तट पर त्याग देना चाहिए – शौच (मल-मूत्र व थूकना), आचमन, केश-शृंगार, निर्माल्य विसर्जन (देवपूजा के उपरांत पुष्पों का त्याग), अघमर्षण, वैदिक सूक्तों का पाठ, देह मलना, क्रीडा-कौतुक, दानग्रहण, संभोग, अन्य तीर्थ की भक्ति, अन्य तीर्थ की प्रशंसा, अपने पहने हुए वस्त्रों का दान, किसी को मारना-पीटना और गंगा को तैरकर पार करना।